प्रथम अध्याय

समस्या का प्रस्तुतीकरण

वेदों में अश्व शब्द अनेक बार प्रस्तुत हुआ है; परन्तु सर्वत्र उसे घोड़े के अर्थ में ग्रहण करना सम्भव नहीं । उदाहरण के लिए वैदिक अश्व के पंख1 हैं और वे भी श्येन के । अतः निघण्टg में अश्व के 26 नामों में श्येन शब्द भी परिगणित है। आश्चर्य की बात यह है कि उन अश्व नामों में नरः शब्द भी है । वेदचक्षु नामक ग्रन्थमाला के प्रथम खण्ड में नरः शब्द की मनुष्य नामों के अन्तर्गत व्याख्या करते हुए उसे प्राणवाचक माना गया है । ताण्ड्य ब्राह्मण के अनुसार, नर देवों का ग्राम3 है । इस ग्राम के सम्भवतः वे पंच ग्राम्यः पशवः4 हैं जिनमें अश्व के अतिरिक्त पुरुष, गौ, अवि एवं अज माने गए हैं। तो क्या अश्व भी किसी प्राणमय ग्राम का कोई तत्त्व है ? इन पंच पशुओं में से, पुरुष आत्मा का बोध कराता है, क्योंकि वह देहरूपी पुर में रहता है। अन्तरिक्ष रूपी पुर में रहने से वायु भी पुरुष है और ब्रह्माण्ड रूपी पुर में अथवा सभी देहरूपी पुरों में रहने के कारण ब्रह्म को भी पुरुष कह सकते हैं। तो क्या अश्व भी पुरुष रूपी पशु के समान कोई ऐसा आध्यात्मिक तत्त्व हो सकता है ?

वैदिक अश्व की अलौकिकता :

वैदिक अश्व साधारण अश्व नहीं है । वह सींगों वाला अश्व है और उसके सींग ही नहीं अपितु केश, अक्ष और कक्ष्य हिरण्य के हैं तो पाद5 और शफ6 अयस के हैं। वैदिक अश्व के पक्ष श्येन के और भgजाएँ हरिण7 की हैं इसलिए उसे उड़ने वाला मानते हुए श्येन, पतंग (पतत्त्रि8)

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1 श्येनस्य पक्षा ……..ऋ. 1.163.1  

2 वेदचक्षु ग्रन्थमाला, प्रथम खण्ड

3 नरो वे देवानां ग्रामः । तांब्रा 6.9.2

4 एतावन्तो (पुरुषः अश्वः गो अविः अजः) वै ग्राम्याः पशवः । तैसं 2.1.1.5,

काठ 13.1

5 हिरण्यशृङ्गोऽयो अस्य पादा । ऋ. 1.163.9

6 हिरण्यकेशान् सुधुरान् हिरण्याक्षान् अयश्शफान् । अश्वान् अनश्यतो दानं--

काठ 83.12

- हिरण्यकक्ष्यान् सुधुरान् ..... अश्वाननः शतो राजाभितिष्ठति । तैआ 6.5.2

7 श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाह ....."। ऋ. 1.163.1

8 आत्मानं ते मनसारादजानर्भिवो दिवा पतयन्तं पतंगम् ।

शिरो अपश्यं पथिभिः सुगेभिररेणुभिर्जेहमानं पतत्त्रि ।। ऋ. 1.163.6


2

सुपर्ण और हंस नाम भी निघण्टु1 में दिए गए हैं।

वैदिक अश्व का लोकोत्तर स्वरूप यहीं तक सीमित नहीं है अपितु वे वृषपाणि2, द्रवत्पाणि3 और हिरण्यपाणि4 भी हैं। क्या लौकिक अश्व के चारों पादों को हाथ और पैर ये अलग-अलग नाम दिए जाते हैं ? और यदि आगे के दो पैरों को हाथ और पीछे के दो पैरों को पाद मान भी लिया जाए तो इन अश्वों के हाथों या पादों के वर्णन में वृष, द्रवत् या हिरण्य की क्या तुक है ? ये तो शेष शरीर की तरह हाड़-मांस के ही होते हैं। अतः क्या वृषपाणि आदि विशेषण वैदिक अश्व के किसी अलौकिक स्वरूप के द्योतक तो नहीं ?

 वैदिक अश्व के बालों का भी उल्लेख मिलता है; परन्तु ऋग्वेद संहिता इन्द्र को ही अश्व का वार5 कहती है और वहीं अग्नि6 को वारवन्त अश्व के समान कहा गया है। तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक तथा कठ संहिताओं में प्रजापति के पक्ष्मों को अश्ववाल7 अथवा अश्ववार8 कहा गया है। यदि व्युत्पत्ति के अनुसार देव को द्युतिमान् माना जाए तो उक्त इन्द्र, अग्नि और प्रजापति के प्रसंग से यहां जिन बालों का उल्लेख किया गया है उनको प्रकाश-किरणें कहा जा सकता है। अतएव बहुत सम्भव है कि अश्व भी कोई प्रकाश-किरणों वाला तत्त्व हो। इसी दृष्टि से देवचक्षु सूर्य9 को उषा का श्वेत अश्व कहा गया प्रतीत हो सकता है । ऋग्वेद 1.30.26 में10 तो स्वयं उषा को अश्वा कहा गया है । अथर्ववेद के अश्वाः हिरण्यया:11 अथवा अश्वाः हरयः केतुमन्तः अमृताः12 निःसन्देह सूर्यरथ को वहन करने वाली किरणें कही गई हैं। । अतः वैदिक अश्व की अलौकिकता असंदिग्ध है। ऋग्वेद इसे

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1 निघण्टु 1.14

2 रथेभिः सह वाजयन्तः वृषपाणयो अश्वा तीव्रान् घोषान् कृण्वन्ते । ऋ. 6.75.7

3 हिरण्ययेन रथेन द्रवत्पाणिभिरश्वै धीजवना नासत्या । ऋ. 8.5.35

4 आ नो मखस्य दावने अश्वैर्हिरण्यपाणिभिः । देवास उपगन्तन । ऋ. 8.7.27

5 अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र•••••••। ऋ. 1.32.12

6 अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्वध्या अग्निं नमोभिः । ऋ. 1.27.1

7 प्रजापतेर्वा एतानि पक्ष्माणि यदश्ववालाः । तैसं 6.2.1.5, काठ 24.8, क 38.1

8 प्रजापतेर्वा एतानि पक्ष्माणि यदश्ववारा: मैसं 3.7.9

9 देवानां चक्षुः सुभगा वहन्ती श्वेतं नयन्ती सुदृशीकमश्वम् । ऋ. 7.77.3

10 अश्वे न चित्रे अरुषि । ।

11 शतमाश्वा हिरण्याः। शौ 20.131.5

12 सूर्यस्याश्वा हरयः केतुमन्तः सदा वहन्ति अमृताः सुखं रथम् । शौ 13.1.24


3

देवजात1, देवयान2 और देवबन्धु3 कहता है । अश्व त्वष्टा4 है, अदिति5 है और उसका समीकरण यम, आदित्य और त्रित6 से भी किया जाता है। कभी उसको वरुण7 कहा जाता है और कभी वारुण8 । अग्नि9 को भी अश्व कहा जाता है। इसी प्रकार इन्द्र10, सोम11 और अग्नि12 के साथ अश्व का समीकरण किया जाता है । इन्द्र13 अश्वपति है, सोम14 अश्वविद् है और उषा15 अश्वदा है क्योंकि देव होने के नाते ये सभी प्रकाश-किरणों से युक्त माने जा सकते हैं।

वैदिक अश्व को मनुष्य नहीं जोड़ सकते केवल देव अथवा मनु16 ही जोड़ सकते हैं। मनु शब्द मान-ज्ञाने17 से निष्पन्न मननशील जीवात्मा8 का नाम है । अतः मनु के द्वारा अश्व को युक्त करने का अभिप्राय है मननशील मन के द्वारा उससे संयुक्त होना । यही तात्पर्य ऋग्वेद 1.163.6 के19 इन शब्दों में निहित है कि अश्व के आत्मा को मन द्वारा जाना जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि अश्व शब्द वेद से किसी ऐसे आध्यात्मिक तत्त्व का प्रतीक है जो मन से ही जाना जा सकता है।

वैदिक अश्व के लोकोत्तर कार्य :

वैदिक अश्व का सम्बन्ध कुछ लोकोत्तर कार्यों से है। ऋग्वेद

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1 यद वाजिनो देवजातस्य सप्ते: प्रवक्ष्यामो विदथे वीर्याणि । ऋ. 1.162.1

2 यद्धविष्यमृतुशो देवयानं त्रिर्मानुषा: पर्यश्वं नयन्ति । ऋ. 1.162.4

3 चतुस्त्रिंशद् बाजिनो देवबन्धोर्वक्रीश्वस्य स्वधितिः समेति । ऋ. 1.162.18

4 एकस्त्वष्टुरश्वस्या विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथ ऋतु: । ऋ. 1.162.19

5 अनागास्त्वं नो अदितिः कृणोतु क्षत्रं नो अश्वोवनर्तां हविष्मान् । ऋ. 1.162.22

6. असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन । ऋ. 1.163.3

7. उतेव मे वरुणश्छन्त्स्यर्वन् यत्रा त आहुः परमं जनित्रम् । ऋ. 1,163.4

8 वारुणो हि अश्वः । मैसं 2.4.8, काठसं 11.10

9 ऋ. 10.188.1

10 भूर्णिम् अश्वम् इन्द्रम्...."। ऋ. 8.17.15

11 मधुपृष्ठं घोरम् अयासम् ऋष्वम् बाजिनम् अश्वम् । ऋ. 9.89.4

12 जातवेदसम् अश्वं हिनोत वाजिनम् । ऋ.10.188.1

13 वही, 8.21.3

14 वही, 9.55.3, 61.3

15 वही, 1.113.18

16 वायुर्वा त्वा मनुवा त्वा इति युनक्ति न वा एवं मनुष्य योक्तुमर्हन्ति देवताभि

रेवैनान् युनक्ति । मैसं 1.11.6, तुलनीय काठसं 14.6,

17 पाधा 4.65

18 वेदचक्षु, प्रथम रश्मि

19 आत्मानं ते मनसारादजानाम् । ऋ. 1.163.6


4

1.117.9, 118.91 में एक ऐसे अश्व का उल्लेख है जिसको अहिहन् अर्थात् अहि को मारने वाला कहा जाता है । डॉ. फतहसिंह2 के अनुसार वैदिक अहि अहङ्कार रूपी सर्प है जिसे वृत्र भी कहा जाता है और जिसके कारण इन्द्र को वृत्रघ्न विशेषण भी प्राप्त होता है । इस दृष्टि से वैदिक अश्व इन्द्र सिद्ध हो जाता है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इस अहिहन् अश्व को ‘इन्द्रजूत'3 भी कहा जाता है । वेद में एक वृषन् अश्व के कारोतर शफ का भी उल्लेख है जिससे अश्विनौ सुरा के सौ कुम्भों का सिञ्चन4 करते हैं। इसी तरह एक वाजी अश्व के शफ का उल्लेख है जिससे अश्विनों ने मधु के सौ कुम्भों का सिञ्चन किया5। ऋग्वेद के दो सूक्तों (1.162, 163) में अश्व की लोकोत्तरता का विशेष रूप से वर्णन किया गया है जिसकी समीक्षा आगे चलकर की जाएगी।

अश्व की आध्यात्मिकता :

वैदिक अश्व की लोकोत्तरता सम्भवतः आध्यात्मिक दृष्टि से ही समझ में आ सकती है। अश्व का मनु और मन से सम्बन्ध पहले ही बताया जा चुका है। प्रमति6 नामक आध्यात्मिक तत्त्व को जो अश्वावती कहा जाता है वह भी निःसन्देह अश्व की आध्यात्मिकता की ओर संकेत अभीष्ट होता है । यही प्रमति उषा रूप में कल्पित7 होकर भी अश्वावती8 अथवा अश्वा9 कही जाती है। जब भूमि10 को अश्वा कहा जाता है तो भी उसी आध्यात्मिक भूमि से अभिप्राय हो सकता है जिसके अमृत हृदय  को सत्य से आवृत तथा परम व्योम में स्थित बताया जाता है ।11 इसी

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1 ::::नि पेदव ऊहथुराशुमश्वम् । सहस्रसां वाजिनमप्रतीतमहिनं श्रवस्यं तरुत्रम्

–युवं श्वेतं पेदव इन्द्रजूतमहिहनमश्विनादत्तमश्वम् ।।

2 वैदिक दर्शन (संस्कृति सदन, कोटा) पृ. 155

3 वहीं, ऋग्वेद 1.118.9

4 अश्वस्य कृष्णः कारोतरात् शफात् शतं कुम्भान असिंचसं सुरायाः । ।

ऋ. 1.116.7; शौ 6.69.1; पै. 8.10.4

5 अश्वस्य वाजिनः शफाद जनाय शतं कुम्भां असिचतं मधूनाम् । ऋ. 1.117.6

6 सं देव्या प्रमत्या वीरशुष्मया गोअग्रयाश्वावत्या रभेमहि । ऋ. 1.53.5

7 देखिए-डॉ. वीणा चौधरी का जयपुर विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत शोधप्रबंध

 ‘ऋग्वेद के उषस् सूक्तों की वैचारिक पृष्ठभूमि

8. उषो अद्येह गोमति अश्वावति विभावरि । ऋ 1.92.14

द्रष्टव्य-ऋ. 1.48.2; 123.12; 7.41.6; 80.3

9 अश्वे न चित्रे अरुषि । 1.30.31

10 माश 14.1.3.25; तैआ 4.5.4; 5.4.8

11 शौ. 12.1.8


5

तरह सुवीर्य1 को अश्ववत् और धी2 को अश्वसा कहना भी अश्व की आध्यात्मिकता को सूचित कर सकता है। विभिन्न धन नामों3 को अश्ववत् कहा जाना भी इसी ओर संकेत करता है क्योंकि जोधपुर विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत डॉ. श्रद्धा चौहान के शोध-प्रबन्ध के अनुसार वेद के सभी धन-नाम किसी न किसी आध्यात्मिक तत्त्व के बोधक हैं। इसी प्रकार मतयः अश्वयोगाः4 अथवा गिरः अश्वराधसः5 जैसी उक्तियाँ भी अश्व के आध्यात्मिक स्वरूप की ओर संकेत करती हुई कही जा सकती हैं । जब काम को अश्वयुः (अश्व की कामना करने वाला) कहा जाता है6, तो भी अश्व को एक आध्यात्मिक वस्तु ही मानना अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है क्योंकि यह काम अश्वयुः के साथ-साथ गव्ययुः तथा हिरण्ययुः7 भी कहा जाता है और डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली8 के शोध-प्रबन्ध के अनुसार गो तथा डॉ. प्रतिभा शुक्ला9 के शोध-प्रबन्ध के अनुसार हिरण्य निःसन्देह आध्यात्मिक तत्व के बोधक हैं ।

वैदिक अश्व का सम्बन्ध आपः अथवा समुद्र से भी है । उसको अप्सुयोनिः10, अप्सुजा11, समुद्रयोनिः या समुद्रबन्धु12 भी कहा जाता है। डॉ. फतहसिंह ने ‘मानवता को वेदों की देन' नामक पुस्तक के प्रथम अध्याय में ही आद्यासृष्टि की चर्चा करते हुए आपो वै प्राणाः18 की उक्ति को स्वीकार किया है और समुद्र-मन्थन से उत्पन्न होने वाले चौदह रत्नों को भी मनुष्यगत चेतनासिन्धु से प्राप्त आध्यात्मिक गुणों के रूप में

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1 दधानो गोमद् अश्ववत् सुवीर्यमादित्यजूत पद्यते । ऋ. 8.46.5 

2 उत नो गोषणिं धियमश्वसा वाजसामुत । नृवत् कृणुहि वीतये । ऋ. 6.53.10

3 ऋग्वेद के अनेक प्रसंगों में रत्नं, वसु, रायः, रयि, भोजनं, वरिव, राति आदि

धननामों को प्रायः अश्वावत् कहा गया है।

4 उत न ईं मतयोऽश्वयोगाः शिशुं न गावस्तस्णं रिहन्ति । ऋ. 1.186.7

5 ये अग्ने चन्द्र ते गिरः शुम्भन्त्यश्वराधसः । ऋ. 5.10.4 

6 आ दिवस्पृष्ठम् अश्वयुर् गव्ययुः सोम रोहसि । वीरयुः शवसस्पते । ऋ. 9.36.6 7 त्वामिद्यवयुर्मम कामो गव्ययुर्हिरण्ययुः । त्वामश्वयुरेषते । ऋ. 8.78.9

8 ऋग्वेद में गोतत्त्वः डा. बद्रीप्रसाद, अर्चना प्रकाशन, अजमेर से प्रकाशित

9 वेद में हिरण्य का प्रतीकवाद, जोधपुर विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत

10 अप्सुयोनिर्वा अश्वः । तैसं 2.3.12.2; 5.3.12.2; माश 13.2.2.19;

11 अप्सुजा वा अश्वाः । मै1.11.6 अप्सुजा वा अश्वः । काठ 14.6; 7.10[3.1.3

12 समुद्रो बा अश्वस्य योनिः समुद्रो बन्धुः । तैसं. 7.2.25.2  अश्वो वा सामुद्रिः । माश 13.2.2.14 । अश्वो वै सामुद्रिः । जैब्रा 3.14

13 काश 4.8.22; माश 3.8.2.4; जैड 3.109; तैआ 1.26.5


स्वीकार किया है। इन्हीं चौदह रत्नों में एक रत्न अश्व भी है । अतः वैदिक अश्व के उपर्युक्त चार विशेषण उसके आध्यात्मिक स्वरूप के साथ ही सुसंगत कहे जा सकते हैं। आपः और समुद्र से वरुण का घनिष्ठ संबन्ध वैदिक और परवर्ती साहित्य में सुप्रसिद्ध है। इसलिए इस आध्यात्मिक आधार पर ही अश्व को वारुण1 अथवा वरुण को अश्व2 कहना युक्तिसंगत हो सकता है। अश्व को वरुण की नाभि, वात की जूति3 कहना भी यही संकेत करता है कि अश्व का एक रूप वरुण से सम्बन्ध रखता है और दूसरा वात से। तो क्या अश्व के दो रूप हैं ? ।

वास्तव में अश्व के कई आयाम हैं। इसीलिए उसके अनेक नाम हैं । अश्व के कोई माता पिता भी हैं जिनके आधार से इसको क्रमशः विभु और प्रभु भी कहा जाता है। जबकि किन्हीं अन्य दृष्टियों से उसे अश्व, हय, अत्य, नर, अर्वा, सप्ति, वाजी, वृषा, नृम्णा, ययुः4 नाम भी दिए गए हैं । इन नामों में से विभु, प्रभु, वृषा, नृम्णा तथा ययु को छोड़कर शेष सभी नाम निघण्टु5 के अश्व नाम में तो परिगणित हैं ही; परन्तु इनके अतिरिक्त वहां और भी बहुत से नाम हैं । यद्यपि वृषा नाम नैघण्टु सूची में नहीं है; परन्तु ऋग्वेद में भी वृषन् अश्व का उल्लेख है और सोम को उसका रैतस्6 माना गया है। और अन्य संहिताओं में जहां वीर्य7 को अश्व कहा गया है वहाँ अश्व को वृषा8 भी कहा गया है । अश्वे वे देवताः अन्वायत्ता9 कहकर अथवा 'वैश्वे देवो वा10 अश्वा' कहकर अश्व की अनेकरूपता को विभिन्न देवों से सम्बद्ध माना गया प्रतीत होता है ।

इसी दृष्टि से अश्व का सम्बन्ध विभिन्न देवों से समझा जा सकता है । पूषा को अजाश्व11 या रथों का अश्वहय12 कहना इसी ओर संकेत करता

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1 वारुणो हि अश्वः । मैसं 2.4.8; काठसं 11.10; माशब्रा 7.5.2.18

2 वरुणो ह वै सोमस्य राज्ञोऽभीवाक्षि प्रतिपिपेष तदश्वयत् ततोऽश्वः समभवत् ।

माशब्रा 4.2.1.1.

3 माशब्रा. 7.5.2.18

4 मा 22.19; का 24.6.1; तैसं 7.1.12.1; मैसं 3.12.4; काठ 41.3 तांब्रा 1.7. 1

5 नि. 1.14

6 ऋ. 1.164.34; 35

7 वीर्यं वै अश्वः । तैसं 2.4.9.4; माश 2.1.4.23; 24

8 वृषा हि अश्वः । मैसं 2.4.8; काठ 11.10

9 तै ब्रा 3.8.7.3

10 गोब्रा 2.3.19; तैब्रा 3.9.2.4; 11.1; माश 13.2.5.4

11 ऋ. 1.138.4; 6.55.3; 4; 58.2.1; 9.67.10

12 ऋ. 10.26.5


7

है। अश्वहय विशेषण के साथ अश्व को ऋषिर्मनुर्हित:1 कह कर पुनः उसके आध्यात्मिक अर्थ की तरफ संकेत किया गया है। अतएव अश्व से सम्बन्धित विभिन्न देवों को आध्यात्मिक देवों के रूप में समझना पड़ेगा जिनके परिप्रेक्ष्य में मनुष्य देह रूपी अयोध्या को देवपुरी2 कहा जाता है ।

अश्व और संवनन :  

इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि अश्व्य स्तोम को अनपच्युत संवनन3 कहा जाए क्योंकि संवनन एक प्रकार का आध्यात्मिक समन्वय अथवा भावात्मक सामंजस्य प्रतीत4 होता है । इसी दृष्टि से अनेक वैदिक तत्वों को अश्व्य कहा गया है । ऋग्वेद के अनुसार अश्विनों ने आथर्वण दधीच् के लिए अश्व्य शिर लगाया। दधीच् ने उन दोनों को मधु (विद्या)5 का उपदेश दिया । अथवा, अश्विनों ने दधीच् के मन की सेवा की अर्थात् उसे जीता तब दधीच् ने, अश्व्य शिर ने उनको उपदेश६ किया। ऐसा ही वर्णन कुछ विस्तार के साथ माध्यन्दिन-शतपथब्राह्मण और जैमिनीय ब्राह्मण में भी आता है। माध्यन्दिन शतपथब्राह्मण7 के अनुसार अश्विन् दध्यङ् अथर्वण से मधुविद्या प्राप्त करना चाहते थे। दध्यङ् उस विद्या को अश्विनों के लिए कह नहीं सकता था। उसे इन्द्र से भय था क्योंकि ऐसा करने पर इन्द्र उसका सिर काट डालता । अतः अश्विनों ने विद्या की प्राप्ति के लिए दध्यङ् के सिर को काट कर उसके स्थान पर अश्व का सिर लगा दिया। अश्व्य सिर द्वारा दध्यङ ने उनके लिए इस विद्या का उपदेश किया । तब इन्द्र ने उसका अश्व-सिर काट डाला । फिर अश्विनों ने दध्यङ के उसका अपना सिर लगा दिया।

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1 प्रत्यधि यज्ञानाम् अश्वहयो रथानाम् ।।

ऋषिः स यो मनुर्हितो विप्रस्य यावयत्सखा । ऋ. 10.26.5

2 अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या । शौ 10.2.32

3 एतं मे स्तोमं तना न सूर्ये द्युतद्यामानं वावृधन्त नृणाम् ।

संवननं नाश्व्यं तष्टेवानपच्युतम् । ऋ. 10.93.12

4 तुलना करो : डॉ. फतहसिंह के अश्व सम्बन्धी विचार; वेद-सविता

नवम्बर 1987 पृ. 122-124, दिसम्बर 1987 पृ. 157-158

5 आथर्वणायाश्विना दधीचेऽश्व्यं शिरः प्रत्यैरयतम् ।

स वां मधु प्र वोचदृतायन् त्वाष्ट्रं यद् दस्रावपिकक्ष्यं वाम् । ऋ. 1.117.22

युवं दधीचो मन आ विवासथोऽथा शिरः प्रतिवामश्व्यं वदत् । ऋ. 1.119.9

7 माशब्रा 14.1.1.23; 24; 25



इस अश्वशीर्ष की कथा जैमिनीय ब्राह्मण1 में कुछ भिन्न तरह से आती है। उसके अनुसार, यज्ञ का सिर काट डाला गया। दध्यड् आथर्वण ने उसे देखा । अतः वह यज्ञसिर उसी में प्रवेश कर गया। उस यज्ञसिर को जानने के लिए अश्विन् दध्यङ् अथर्वण के पास आए। पर, दध्यङ् ने उन्हें उसके विषय में नहीं बताया, क्योंकि किसी अन्य को बता देने पर  इन्द्र उसका सिर काट डालता । तब अश्विनों ने दध्यङ् के अश्व का सिर लगा कर उससे उसे सुना । जब इन्द्र ने जाना कि अश्विनों को उसने बता दिया तब दौड़ कर उसने उसका अश्वशीर्ष काट डाला। तब मनीषी अश्विनों ने दध्यङ् का अपना सिर ही पुनः लगा दिया। अश्वशीर्ष के लिए यहीं अन्यत्र आता है कि इस अश्वशीर्ष द्वारा (दध्यङ् ने) अश्विनों के लिए देववेद2 का प्रवचन किया था। तात्पर्य हुआ अश्व्य शिर अथवा अश्वशीर्ष किसी ऐसे ज्ञान से सम्बद्ध है जिसे मधुविद्या, यज्ञशिर वा देववेद कहा जाता है।

अश्व का देववेदत्व :

उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि अश्व उस आध्यात्मिक तत्त्व का नाम है जो संवनन, सामंजस्य तथा भावात्मक समन्वय स्थापित करने में समर्थ है । अध्यात्म के इसी पक्ष को ऐसे अश्व्य शिर के रूप में कल्पित किया गया है जो मधुविद्या अथवा आनन्द तत्त्व के ज्ञान का उपदेश कर सकता है। वेद में मधु3 शब्द निस्सन्देह सोम नामक आनन्द तत्व के लिए प्रायः प्रयुक्त हुआ है। सोम4 को जिस वृषन् अश्व का रेतस् कहा जाता है उसे अवश्य ही सोम रूपी आनन्द का स्रोत मानना पड़ेगा। यह आनन्द का स्रोत स्वयं सच्चिदानन्द परब्रह्म ही हो सकता है। अतः अश्व को मूलत: परब्रह्म का ही एक स्वरूप मानना पड़ सकता है। यही वह देव होगा जिसके बेद को मधुविद्या अथवा सोम रूपी तत्त्व का ज्ञान कहा जाए। यह एक सम्भावना है जिसको दृष्टि में रख कर आगे यथोचित विवेचन करना सम्भव होगा। यहाँ केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि यदि अश्व मूलतः आनन्दस्वरूप परमात्मा का नाम है, तो साथ ही उसी को एक घट-घट वासी अन्तर्यामी अश्व के रूप में व्यष्टिगत देह में भी स्थित मानना पड़ेगा। इसके साथ ही यह भी

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1 जैब्रा 3.126; 127

2 इदम् अश्वशीर्षं येनाश्विभ्यां देववेदं प्राब्रवीत्। जैब्रा 3.64

3 वैदिक दर्शन, पृ. 118

4 अयं सोमो वरुणो अश्वस्य रेतः। ऋ. 1.164,35


9

याद रखना होगा कि वेद में अश्व एक नहीं अनेक भी हैं। इसलिए उस मूल अश्व के अनेक आयामों को दृष्टि में रखते हुए सम्भवतः अनेक अश्व नामों की कल्पना की गई हो ।

अस्तु, इस अध्याय में वैदिक अश्व का जो सामान्य परिचय दिया गया है उससे यह तो स्पष्ट ही है कि वह कोई साधारण हाड-मांस का बना हुआ घोड़ा नहीं है। वह स्पष्टतः एक रहस्यात्मक प्रतीक है जिसके मूल में निस्सन्देह कोई न कोई अलौकिक अथवा पारमाथिक तत्व स्वीकार करना पड़ेगा। इस सम्भावना को दृष्टि में रख कर, आगे के अध्यायों में वैदिक अश्व के विविध वर्णनों पर विचार किया जाएगा और वेद से ही प्रमाण लेकर किसी युक्ति-संगत निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयास किया जाएगा। इस कार्य में ब्राह्मण, आरण्यकादि वैदिक तथा पुराणादि की परवर्ती परम्परा भी निस्सन्देह सहायक होगी ।

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