अष्टम अध्याय

वाजी

पञ्चम अध्याय में दधिक्रावा पर चर्चा करते हुए उसको प्रथम वाजी कहा गया है । इसका अभिप्राय यह है कि वाजी के कई रूप हो सकते हैं । सचमुच वाजी शब्द वेद में अश्व के लिए जितना अधिक प्रयुक्त हुआ है उसको देखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वैदिक अश्व की कल्पना में उसका वाजी रूप विशेष स्थान रखता है ।

वाजी शब्द नि:सन्देह वाज शब्द में इन् प्रत्यय के योग से निष्पन्न हुआ है। इस ओर संकेत निम्नलिखित ऋग्वेद के मन्त्र से भी मिलता है

वाजेवाजेऽवत वाजिनो नो धनेषु विप्रा अमृता ऋतज्ञाः ।

अस्य मध्वः पिबत मादयध्वं तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः ।।(ऋ. 7.38.8)

इस मन्त्र में वाजिनः के लिए विप्राः, अमृताः और ऋतज्ञाः विशेषण प्रयुक्त हुए हैं और उनको मधुपान करने के लिए आमन्त्रित किया गया है। मधु से तृप्त होकर उन्हें देवयान मार्गों द्वारा जाने के लिए भी कहा गया है। साथ ही उनसे प्रार्थना की गई है कि वे प्रत्येक वाज में और सभी धनों में हमारी रक्षा करें। वेंकटमाधव के अनुसार यहाँ वाजिनः नाम के कई देव अभिप्रेत हैं । सायणाचार्य भी इससे सहमत हैं; परन्तु प्रश्न यह है कि धनों के साथ जिस प्रत्येक वाज में उनसे रक्षा की याचना की गई वह वाज क्या है ? प्राचीन भाष्यकार वाज शब्द का अर्थ संग्राम करते हैं और आधुनिक विद्वान् तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के आधार पर वाज शब्द का सम्बन्ध अँगरेजी के Wager के साथ जोड़ते हैं। उसका द्यूतक्रीड़ा में लगाया गया दाँव है । उनकी दृष्टि में वाजी घुड़-दौड़ का घोड़ा होता था और घुड़दौड़ में दाँव लगाया जाता था, उसको वाज कहते थे । परन्तु इस मन्त्र में वाजिनः के लिए जो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं वे कभी भी घोड़े के लिए प्रयुक्त नहीं किए जा सकते हैं और न ही हाड़-मांस के घोड़ों को देवयान मार्ग से सम्बद्ध किया जा सकता है। इसलिए हमें वाजी में वह प्रतीकार्थ खोजना पड़ेगा जो वाज के प्रतीकवाद से निःसन्देह जुड़ा हुआ है।

वाज

वैदिक वाज शब्द निघण्टु के अन्ननामानि तथा बलनामानि में परिगणित है। वास्तव में वाज एक शक्ति का वाचक है जो मनुष्य-व्यक्तित्व के परिपोषण, परिवर्धन के लिए अन्न का काम करता है। इस वाज नामक

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शक्ति के दो स्तर हैं । एक को ‘वाजगन्ध्यं' और दूसरे को ‘वाज पस्त्यं'1 कहा गया है। ये दोनों शब्द निघण्टु में पदनाम में परिगणित हैं। अतः इन्हें वाज नामक शक्ति के दो पद अथवा दो स्तर कहा जा सकता है । इसमें वाजपस्त्यं का अर्थ है वाज का गृह । यह वही ज्ञानमयी शक्ति का उपर्युक्त गृह है जिसका निर्माण उच्चैःश्रवा अश्व के लिए की जाने की प्रार्थना की गई है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, उच्चैःश्रवा आत्मा की उस अद्वैत अवस्था से सम्बन्ध रखता है जिसमें सारी अनेकताएँ समाहित हो जाती हैं। अतः वाजपस्त्यं वह हिरण्ययकोश नामक ज्योतिमण्डित स्वर्ग प्रतीत होता है जिसमें आत्मा से युक्त ब्रह्म की कल्पना की गई है।

वाज का जो वाजगन्ध्यं नामक स्तर है वह उक्त वाजपस्त्यं के अति निकट है, जहाँ वाज की गन्ध आती है, स्वयं वाज प्राप्त नहीं होता। इस स्तर को विज्ञानमयकोश कह सकते हैं जिसकी उन्मनी शक्ति ऊर्ध्वगामी होकर उस हिरण्यकोश तक पहुंचती है जिसको वाजपस्त्यं नामक वाज का गृह कहा जाता है । वाज के इन स्तरों की कल्पना को देखते हुए इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है । इन दोनों पदों को प्राप्त करने वाले ‘सूरयः'3 कहे गए हैं ।

सूरयः

वे ज्ञानी जन हैं जिनकी गति योग में होती हैं । इस वाजगन्ध्य की ओर संकेत वेद में अन्यत्र भी पाए जाते हैं। इन दोनों स्थानों पर ‘गन्ध्यं वाजं' का उल्लेख है, जिसको देने वाला इन्द्र है। डॉ. फतहसिंह के अनुसार जो योगीजन साधना के स्तर पर पहुंच जाते हैं उनके शरीर से एक प्रकार की सुगन्ध भी निकलने लगती है। अत: वाजगन्ध्यं का नामकरण इस आधार पर भी सम्भव है । वाजगन्ध्य से सम्बद्ध इन्द्र को दोनों हरियों का स्वामी (हर्योः ईशान:5) कहा जाता है क्योंकि इस स्तर पर पूर्वोक्त उच्चैःश्रवा और औच्चैःश्रवा नामक दोनों अश्व क्रमश: दक्षिण और सव्य होकर मनुष्यरथ से जुड़े रहते हैं। यह मनुष्यरथ विज्ञानमयकोश है जो मनोमय नामक अवर इन्द्र के साथ युक्त रहता है । इस को वेद में कुत्स कहते हैं।

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1 तं सखाय पुरोरुचं यूयं वयं च सूरयः ।।

अश्याम वाजगन्ध्यं सनेम वाजपस्त्यम् ।। ऋ. 9.98.12

2 अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिरण्ययकोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः ।।

तस्मिन् यद् यक्षम् आत्मान् वत् तद्वै ब्रह्मविदो विदुः ।। शौ. 10.2.30; 31

3 देखिए पूर्व उद्धृत ऋग्वेद-मन्त्र 9.98.12

4 तु. ऋ. 4.16.11; 16

5 ऋ. 4.16.11

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इसलिए वाजगन्ध्य के साथ सम्बन्धित इन्द्र को कुत्स के साथ सरथे1 कहा जाता है। यही इन्द्र अपने भक्त के लिए बहुत से वीरोचित कार्य करता है और शीघ्र ही गन्ध्वाज तथा स्पृहणीय राधस्2 को प्रदान करता है ।

इस प्रकार वाजपस्त्यं और वाजगन्ध्यं नामक दो स्तरों को हम क्रमशः उच्चैःश्रवा तथा औच्चैःश्रवा से जोड़ते हैं, तो हमें इसकी पुष्टि में कुछ अन्य तथ्य भी मिल जाते हैं । उदाहरण के लिए, वाज शब्द के साथ वह ‘श्रवस्'3 शब्द भी प्रयुक्त मिलता है जो उच्चैःश्रवा और औच्चैःश्रवा के नामों से अंगभूत हैं; परन्तु इन दोनों शब्दों की जोड़ी ‘वाजं उत श्रवः' के रूप में मिलती है । जिसका अभिप्राय है वाज और श्रवस दोनों ही कोई ऐसे आध्यात्मिक तत्व हैं, जो एक दूसरे से सम्बन्ध रखते हैं । इस ओर संकेत इस बात से भी मिलता है कि वाजप्रेरक इन्दु को (सोम) ‘वाजसा ऋषि'4 कहा गया है। पवित्र रथ वाला सोमराजा श्रवो महत् को प्राप्त करने के लिए वाज पर5 आरूढ़ होता है ।

इसका अभिप्राय है कि बृहत् श्रवस् को प्राप्त करने के लिए वाज को एक सोपान माना जाता है । एक मन्त्र में अग्नि से कहा गया है कि ‘हे सुमित्र अग्नि6 ! तुम्हारा वह जो मनु नामक मुख है वह नया रेवत् तेज है । वह हमारी प्रार्थना स्वीकार करे, वही हमें वाज दे और यहाँ श्रवस् प्रदान करे। दूसरे शब्दों में, ज्ञानाग्नि के जिस मननशील रूप से युक्त व्यक्तित्व को मनु कहा जाता है, वही वाजप्रदायक है और वही श्रवस् को देने वाला है; परन्तु श्रवस् की प्राप्ति तब होगी जब पहले वाज की प्राप्ति हो जाए। साथ ही, एक स्थान पर यह भी कहा गया है, 'हे अग्ने! तुम्हारा महान् श्रवस् तथा अर्चियाँ देदीप्यमान हो रहे हैं, हे बृहद्7 भानो!

आप अपने बल द्वारा अपने ज्ञानी भक्तों को उक्थ्यवाज8 प्रदान करते हैं।' इससे संकेत मिलता है कि ज्ञानाग्नि का जो श्रवस् है, वह देदीप्यमान होता है, तभी उसके बल से उक्थ्य वाज की प्राप्ति होती है । दूसरे शब्दों

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1 वही

2 तमिद्व इन्द्रं सुहवं हुवेम, यस्ता चकार नर्या पुरूणि ।।

यो मावते जरित्रे गध्यं चिन्मक्षू वाजं भरति स्पार्हराधा: ।। ऋ. 4.16.16

3 ऋ. 9.1.4; 9.6.3

4 वही, 9.35.4  

5 वही, 9.86.40

6 यत् ते मनुर्यंदनीकं सुमित्र: समीधे अग्ने तदिदं नवीयः ।।

स रेवच्छोच स गिरो जुषस्व, स वाजं दर्षि स इह श्रवो धाः ।। ऋ. 10.69.3

7 अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो ।

बृहद्भानो शवसा वाजमुक्थ्यं दधासि दाशुषे कवे ।। ऋ. 10.140.1 

8 ऋ. 10.23.3.

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में वाज और श्रवस् में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध प्रतीत होता है। सम्भवतः इसीलिए 'सनश्रुत्' इन्द्र को ‘वाजस्य दीर्घश्रवस्पतिः' कहा गया है।

वाज और श्रवस् का जो परस्पर सम्बन्ध है उस पर कई अन्य दृष्टियों से भी प्रकाश डाला गया है। उदाहरण के लिए, महान् अमृतवाज के लिए सहस्र ‘श्रवांसि' को आवश्यक (ऋ. 9.87.5) समझा गया। अन्यत्र (ऋ. 9.100.7) कहा गया है--हे सोम ! महान् वाजश्रवस् के निमित्त भक्तजन तुम में अपनी ध्यानबुद्धि केन्द्रित करते हैं । जब वाज के लिए ‘श्रवाय्यः'1 विशेषण प्रयुक्त होता है तो भी वाज का श्रवस से घनिष्ठ सम्बन्ध संकेतित होता है। इस प्रकार श्रवस् की इच्छा रखने2 वाले वाज की भी कामना करते हैं। अन्यत्र वाजों को ही ‘वाजासः श्रवस्वः'3 कहा गया है। एक दूसरे स्थान पर जिस इन्द्र को ॐ, सत्य, सोमपा तथा वाजानां4 पते कहकर सम्बोधित किया गया है, उसका आह्वान ‘श्रवस् (श्रवस्यवाः) के इच्छुक लोग' कहकर किया गया है । ऋग्वेद (8.52.4) में श्रवस् की कामना करने वाले शतक्रतु वाजी इंद्र को वाज में उसी प्रकार आहूत करते हैं, जिस प्रकार गाय को दुहने वाले दुधारू गाय का आह्वान करते हैं। इसका तात्पर्य है कि श्रवस् का वाज से जितना घनिष्ठ सम्बन्ध है कुछ वैसा ही वाज का सम्बन्ध शतक्रतु इंद्र से है। इसलिए उसे वाजिन् कह कर सम्बोधित किया गया है। एक अन्य मन्त्र में सोम को ‘कवे वाजिन्' कह कर सम्बोधित करते हुए उसकी धारों को प्रगतिशील ‘श्रवस्यवः'5 (श्रवस की कामना करने वाले) कहा गया है । वाज को श्रवस्य कहकर दाता इन्द्र को अधिवक्ता, मघवा, रक्षक, वृत्रहा तथा चर्षणीधृत कहा गया है तथा जिसको सुस्तुति के साथ हवि प्रदान की जाती है (ऋ. 8.96.20) ।

वाज और श्रवस् का जो घनिष्ठ सम्बन्ध शतक्रतु इन्द्र के साथ ऊपर देखा गया है, वह उस वाजश्रवस विशेषण में सर्वथा स्पष्ट हो गया है, जिसका प्रयोग इन्द्र के लिए एक मन्त्र6 में हुआ है। यह मन्त्र जिस सूक्त से लिया गया है, उसमें केवल पाँच ही मन्त्र हैं; परन्तु पूरे सूक्त की

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1 नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित् ।

वाजो अस्ति श्रवाय्य: ।। ऋ. 1.27.8

2 श्रवस्यवो वाजं चकाना.....। वही, 2.31.7

3 वाजासः श्रवस्यवः.......। वही, 5.9.2

4 तमुत्वा सत्य सोमपा इन्द्र वाजानां पते अहूमहि श्रवस्यवः ।। ऋ. 6.45.10

तु. ऋ. 8.24.18

5 ऋ. 9.65.10

6 वही, 6.35.4

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समीक्षा करने से यहाँ वाज के स्वरूप को समझने के लिए पर्याप्त सामग्री मिल सकती है । सूक्त का प्रारम्भ कुछ प्रश्नों के साथ होता है--मनुष्यरथ के विभिन्न स्थानों पर ब्रह्म को कब निवास मिलेगा ? स्तोता के लिए सहस्र पौत्स्यं धन कब दोगे ? राय नामक अध्यात्मिक धनों से उसके स्तोत्र कब वासित करोगे ? बुद्धियों को वाज रूपी रत्नों से कब युक्त करोगे ? इसका तात्पर्य यह है कि इस सूक्त में मनुष्य-व्यक्तित्व के उस स्तर की चर्चा की गई है, जिसको प्रायः मर्त्य कहा जाता है और जहाँ ब्रह्म और आत्मा की शक्तियाँ अनेक रूप में विभाजित होकर पूरे व्यक्तित्व को पोषित और समृद्ध कर सकती हैं। अत: इस प्रसङ्ग में जब अनेक बुद्धियों को वाज-रत्नों से युक्त कहा जाता है, तो इसका अभिप्राय है कि कोई ऐसा स्तर भी होगा जहाँ यह वाज-रत्न एकीभूत रहते होंगे । एक अन्य मन्त्र1 में मनुष्य-व्यक्तित्व के उक्त स्तर को असूर्य कहकर उसे विभिन्न दिव्यशक्तियों से युक्त करके इन्द्र को ‘वाजानां विभक्ता' कहा गया है। इससे भी स्पष्ट होता है कि वाजों का एक अविभक्त स्तर भी होगा। इस स्तर को ही वेद में अमृत-स्तर कहा गया है और इससे सम्बन्धित इन्द्र के लिए वाजश्रवस् विशेषण प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार दूसरे शब्दों में अपने इस अमृत-स्तर पर आत्मा की जो अविभक्त शक्ति होती है उसे वाज और श्रवसु दोनों की संयुक्त इकाई माना गया है।

इन्द्र के समान अग्नि के लिए भी एक मन्त्र में वाजश्रवस्2 विशेषण का प्रयोग हुआ है । यह मन्त्र जिस सूक्त का अंग है, वह वैश्वानर अग्नि की स्तुति में लिखा गया है। उससे प्रार्थना की गई है कि वह अपनी सुदीप्त ज्योति के द्वारा देदीप्यमान और गतिशील वाज3 को विभाजित करते हुए प्रकट हो । अगले मन्त्र में उसी वाज4 के लिए ऋग्मियम् (ज्ञानमय) विशेषण का प्रयोग हुआ है। यहाँ अग्नि को ‘वाजश्रवस्' कहकर यह बतलाया है कि उसको साधक लोग आनन्द के निमित्त अपने सामने रखते हैं (पुरो दधिरे) अर्थात् उसी पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं । यह अग्नि का अजात रूप है जो अगले मन्त्र5 में ‘स्वर्महज्जातम्' कहकर उसे वाजवितरण और अध्वर के लिए सभी दिशाओं में ले जाया जाने वाला नानारूपात्मात्मक होता हुआ बताया गया है । यह अग्नि का परिज्मन् (परितःगामी) रूप है जिसकी तीन समिधाओं में से एक को मनुष्य के मर्त्य स्तर का भोजन तथा अन्य दो को ॐ6 नाम देकर ॐ लोकम् में सगे सम्बन्धियों

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1 वही, 6.36. 1

2 ऋ. 3.2.5

3 वही, मं. 3

4 वही, मं. 7 .

5 वही, मं. 4

6 वही, म. 9

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के रूप में एकत्र कर दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि मर्त्य स्तर पर जो अनेकता है वह ‘ॐ लोक' नामक हिरण्ययकोश में एकत्व में परिणत हो जाती है और उसी को वाजश्रवस् अग्नि के स्तर पर वाज तथा श्रवस् की संयुक्त इकाई में मर्त्य स्तर के वाज एवं श्रवस के अनेक विभाजित रूपों का एकत्रीकरण हो जाता है ।

इस प्रकार, अग्नि और इन्द्र के वाजश्रवस् रूप को पूर्वोक्त वाजपस्त्यम् अथवा वाज का गृह कह सकते हैं। यह मनुष्य-व्यक्तित्व के अमृतस्तर की अद्वैत स्थिति है जो मर्त्यस्तर पर अनेकता एवं विविधता में परिणत हो जाती है। इसी स्तर पर, पूर्व स्तरीय वाज और श्रवस् क्रमशः वाजाः2 और श्रवांसि3 हो जाते हैं। इसी को ऊपर वाजों का विभाजन अथवा वितरण कहा गया है। इसके विपरीत अमृतस्तर का ‘वाजमत् श्रवः' (वाजश्रवस्) ‘पृथुश्रवस्4 तथा बृहत् कहा जाता है। इन्द्र से जब श्रवो बृहद् द्युम्नं सहस्रसातमम्5 की याचना की जाती है, तो तात्पर्य इसी एकीभूत वाजश्रवस् से होता है जिसे ऊपर प्रकारान्तर से अग्नि अथवा इन्द्र भी कहा गया है ।

वाज और श्रवस् की जो संयुक्त इकाई अग्नि तथा इन्द्र में देखी गई वही सोम में निहित मानी गई है। उदाहरण के लिए, राजा सोम जब वाज पर आरूढ़ होता है तो वह सहस्रभृष्टि होकर ‘बृहत् श्रवस्' को जीतता6 है। सोम जो स्वयं वाज है जो ‘बृहत् श्रवस्' को जीतता7 है तो निःसन्देह सोम के एक ऐसे ही रूप की कल्पना की जाती है । इसी दृष्टि से सोम को वाज एवं श्रवस् से सम्बद्ध8 कहा गया है। जिस ‘अयोहतं योनिं' पर ‘वाजी' सोम आरूढ़ होकर इन्द्र के लिए महान् श्रवस लाता9 है, वह भी उक्त ‘वाजश्रवस्’ स्थिति ही प्रतीत होती है ।

अग्नि और इन्द्र के समान सोम भी वाज एवं श्रवस दोनों से संयुक्त हो, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि इन तीनों देवों की भी एक संयुक्त अवस्था है जिसे जातवेदस् कहा गया है। वह एक ऐसा अग्नि है

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1 देखिए, डॉ. फतहसिंह कृत 'वैदिक एकेश्वरवाद और ओंकार'

2 ऋ. 4.34.3-5; 7.37.1; 48.1; 8,81.9

3 वही, 1.11.7; 34.5; 91.18

4 सं गोमदिन्द्र वाजवदस्मे पृथु श्रवो बृहद् विश्वायुः धेहि अक्षितम् । ऋ. 1.9.71

5 वही, 1.9. 8

6 वही, 9.86.40; 9.83.5

7 वाज: जेषि श्रवो बृहत् । वही, 9.44.6

8 अभि वाजमुत श्रवः । वही, 9.63.12

9 यं त्वा वाजिन् अघ्न्या अभ्यनूषताऽयोहतं योनिमा रोहसि द्युमान् ।

मघोनामायुः प्रतिरन् महि श्रव इन्द्राय सोम पवसे वृषा मदः।। ऋ. 9.8


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है

जिसमें इंद्र अपने पेट में सोम को रखे हुए बताया गया है और विशेष बात यह है कि इस सोम को भी ‘वाजं सहस्रिणं'2 कहा गया है । अतः डॉ. फतहसिंह ने जातवेदस् को विज्ञानमयकोश स्थित इन्द्राग्निसोमात्मक संयुक्त चेतना माना है। यही वह वाजश्रवा है जिसका पुत्र नचिकेता कठोपनिषद् में मृत्यु को दे दिया जाता है क्योंकि नचिकेता का अर्थ है अज्ञात, अव्यक्त अथवा छिपा हुआ । अर्द्ध व्यक्त विज्ञानमय आत्मा ही वाजश्रवा (हिरण्ययकोश) का वह पुत्र है जो मनोमय आदि के मर्त्य स्तर पर जाने से मृत्यु के पास भेजा गया माना जा सकता है । इस मर्त्य स्तर के अन्तर्गत मनोमय, प्राणमय तथा अन्नमय कोश ही वे तीन3 रात्रियाँ हैं जो नचिकेता यम के घर बिताता है। इन स्तरों पर आत्मा जिन अनेक इच्छाओं, वासनाओं आदि में ‘नचिकेत' (अज्ञात) हो जाता है उसी को हम ऋग्वेद के सौचीक अग्नि के4 रूप में पाते हैं। यह अग्नि एक देव है; परन्तु वह अनेक रूपों में देखा जाता है क्योंकि वास्तव में, निरन्तर यज्ञ की आहुतियाँ खाते-खाते त्रस्त होकर उसने अपने को विविध प्रकार के पेड़-पौधों आदि में छिपा लिया। वह कहता है कि ‘एतम् अर्यम् नचिकेत अहम् अग्निः' सम्भवतः यहाँ प्रयुक्त ‘नचिकेत के आधार पर ही इस आत्मा रूपी अग्नि का नाम नचिकेत पड़ गया। उक्त मर्यस्तर के तीनों लोकों में त्रिविध रूपों में वह एक ही अग्नि है । इस बोध के आधार पर ही कठोपनिषद् में त्रिणाचिकेत6 अग्नि की कल्पना भी प्रस्तुत की गई है।

वाजश्रवा के विषय में तैत्तिरीय ब्राह्मण7 एक विचित्र बात कहता है। वहाँ एक मन्त्र की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि वाजश्रवों (वाजश्रवा के पुत्रों) ने ही पहले ब्राह्मण (मन्त्र-व्याख्या) का ज्ञान प्राप्त किया था जिसके कारण उनमें से प्रत्येक की दो-दो पत्नियाँ हो गईं । अतः जो इस रहस्य को जानता है, उसको भी दो पत्नियाँ प्राप्त हो जाती हैं। इसका तात्पर्य है कि विज्ञानमयकोश रूपी वाजश्रवा की शक्ति का अवतरण जब मनोमय, प्राणमय और अन्नमय स्तर पर होता है तो इन स्तरों को

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1 अयं सोऽग्निर्यस्मिन् सोममिन्द्रः सुतं दधे जठरे वावशानः ।

सहस्रिणं वाजम् अत्यं न सप्तिम् ससवान् त्सन् त्स्तूयते जातवेदः ।। वही, 3.22.1

2 वही

3 तिस्रो रात्रिर्यदवासीत्गृहे मे । कठ. उ. 1.1.9

4 ऋ. 10.51 में इस अग्नि का उल्लेख हुआ है।

5 एतमर्थं नचिकेताहमग्निः । ऋ. 10.51.4

6 त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वॉश्चिनुते नाचिकेतम् ।

स मृत्युपाशान् पुरतः प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ।। कठोप. 1.1.18

7 तैतिरीय ब्राह्मण 1.3.10

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वाजश्रवा के पुत्रों के रूप में कल्पित किया जा सकता है और विज्ञानमयकोश जो उन्मनी और समनी नाम की शक्तियाँ1 हैं वे दोनों ही उक्त तीनों कोशों (वाजश्रवसों) में से प्रत्येक को पत्नियों के रूप में सुलभ हो जाती हैं।

ऋभु-विभ्वा और वाज :

वाजश्रवस के अन्तर्गत जो वाज शब्द है उसके अर्थ को समझने के लिए हमें उस वाज पर भी विचार करने की आवश्यकता है जो त्वष्टा के तीन शिष्यों में से एक का नाम है । ऋभु, विभ्वा और वाज नाम से ये तीन परस्पर भाई-भाई हैं। ऋग्वेद में इन सबका नामोल्लेख लगभग ....बार हुआ है। इस बन्धुत्रयी का परिचित नाम ऋभु भी है जो प्रायः बहुवचन में ऋभवः रूप में प्रयुक्त होता है । इन तीनों नामों का अनेक बार एक साथ उल्लेख हुआ है; परन्तु कभी-कभी केवल दो अथवा तीनों में से अकेले एक का भी उल्लेख होता है, उनमें से प्रत्येक नाम का बहुवचन भी तीनों का बोध कराने में समर्थ है।

डॉ. फतहसिह के अनुसार ऋभु, वाज और विभ्वा क्रमशः ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और भावना शक्ति के प्रतीक हैं । मनुष्य-व्यक्तित्व मूलत: एक है; परन्तु इन तीनों शक्तियों के कारण वह चतुर्विध हो जाता है क्योंकि जहाँ मनोमय, प्राणमय और अन्नमय स्तरों को, इन तीनों शक्तियों के कारण, ज्ञान, क्रिया और भावना के परिप्रेक्ष्य में त्रिविध कहा जा सकता है। वहाँ विज्ञानमयकोश में तीनों का एक अव्याकृत रूप हो जाने से व्यक्तित्व का चतुर्थ रूप भी कल्पित किया जा सकता है । इस तथ्य के आधार पर कहा जा सकता है कि ऋभुञों ने एक चमस1 को एक रखते हुए भी चतुर्विध कर दिया। इस प्रसंग में तीनों भाइयों को एक बार ज्येष्ठ, कनीय और कनिष्ठ कहकर उनमें छोटे बड़े का भेद भी किया गया है--

‘ज्येष्ठ आह चमसा द्वा करे ति कनीयान् त्रीन् कृणवामेत्याह । कनिष्ठ आह चतुरस्करे ति त्वष्ट ऋभवस्तत्पनय द्वचो वः ।। ऋ. 4.33.5

इस मन्त्र में ज्ञान शक्ति का प्रतीक ऋभु ज्येष्ठ है, जो मनुष्यव्यक्तित्व रूपी चमस को उन्मनी और समनी शक्ति के आधार पर केवल दो ज्ञानक्षेत्रों में ही विभक्त करना चाहता है; परन्तु भावना-शक्ति का प्रतीक विभ्वा उसे एक भावात्मक आयाम प्रदान करने की भी इच्छा व्यक्त करता है । इस प्रकार वह उसको त्रिविधता प्रदान करना चाहता

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1 देखिए -डॉ. फतहसिंह का वैदिक दर्शन, पृ. 119

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है । क्रिया शक्ति का प्रतीक वाज कनिष्ठ है; परन्तु वह चमस की त्रिविधता से सन्तुष्ट नहीं है, क्योंकि वह मनुष्य-व्यक्तित्व को क्रियात्मक आयाम देकर उक्त तीन पक्षों के अतिरिक्त एक चौथा पक्ष भी जोड़ना चाहता है। तीनों के वचन का उनके गुरु त्वष्टा ने प्रशंसा-पूर्वक अनुमोदन कर दिया; परन्तु एक स्थान पर ऋभुओं के इस कार्य पर त्वष्टा अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए भी बताया गया है --

हनामैनां इति त्वष्टा यदब्रवीच्चमसं ये देवपानमनिन्दिषुः ।  

अन्या नामानि कृण्वते सुते सचाँ अन्यैरेनान् कन्या नामभिःस्परत् ।। (ऋ. 1.161.5)

त्वष्टा के इस परस्पर विरोधी व्यवहार का कारण यह है कि त्वष्टा वैदिक वाङमय2 में उस वाक् का प्रतीक माना गया है जो केवल वाणी ही नहीं, अपितु सभी प्रकार की सृष्टि करने वाली पराशक्ति के रूप में चित्रित2 की गई है। अत: जिन तीन शक्तियों के उक्त तीनों बन्धु प्रतीक हैं ये वस्तुतः इस पराशक्ति के तीन व्याकृत रूप हैं । इस अर्थ में त्वष्टा को उन तीनों की अभिव्यक्ति का समर्थक ही कहा जाएगा; परन्तु क्या कारण है कि ऋभु, विभ्वा और वाज को अपने पुराने नाम से छोड़ कर ज्ञानशक्ति, भावनाशक्ति और क्रियाशक्ति के नाम से पुकारा जाने लगा? इसके उत्तर में कल्पना की गई कि उक्त पुंल्लिंग नामों के स्थान पर स्त्रीलिंगी नामों को स्वीकार करने का कोई विशेष कारण होना चाहिए। इसलिए इस मन्त्र में कहा गया है कि मनुष्य-व्यक्तित्व रूपी देवपान चमस को निन्दित करने के लिए जब त्वष्टा ने तीनों का वध करने की धमकी दी, तो वे कन्या नामों को ग्रहण करके रहने लगे । एक दृष्टि से यह बात सच भी है क्योंकि हमारी ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और भावना-शक्ति ही तो विकृत होकर मनुष्य-व्यक्तित्व को निन्दनीय दशा में ले जाती हैं। इसलिए मानो वाग्देवीरूपी त्वष्टा की क्रोधभाजन होकर ही तीनों शक्तियाँ अनेक इच्छाओं, क्रियाओं, भावनाओं, वासनाओं तथा अनुभूतियों के रूप में स्त्रीत्व ग्रहण करके जीवित रह जाती हैं ।  

इस व्याख्या में वाज को क्रियाशक्ति का प्रतीक मानने से एक नई उलझन उठ खड़ी होती है । हम देख चुके हैं ‘वाजं ऋग्मियम्' कह कर

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1 सुकृत्यया यत्स्वपस्यया चँ एकं विचक्र चमसं चतुर्धा ।। ऋ. 4.35.2

तु-व्यकृणोत चमसं चतुर्धा । वही, 4.35.3

तु-एकं विचक्र चमसं चतुर्वयं । वही, 4.36.4

2 वाग्वै त्वष्टा वाग्धीदं सर्वं ताष्ठीव । ऐब्रा 2.4

ऋ. 10.125 सूक्त पूरा ।

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वाज को ज्ञानात्मकता प्रदान की जाती है। ऐसी स्थिति में उसको क्रिया शक्ति का द्योतक कैसे माना जाए? इसका समाधान यह है, कि विज्ञानमय कोश में जब ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति तीनों एकीभूत होकर पराशक्ति की अङ्गभूत होती हैं तब वास्तव में उन्हें ऋभु, वाज अथवा विभ्वा किसी भी एक नाम से पुकारा जा सकता है, क्योंकि वहाँ वे तीनों ऐसी सक्रिय पराशक्ति के रूप में रहती हैं जिसे दिव्य क्रिया कहा जा सकता है । वा पूर्वक ‘/अज-गतौ' से निष्पन्न वाज शब्द जहाँ दिव्य अजन्मा गति को द्योतन करने में समर्थ है वहाँ विकल्प से उसके द्वारा मनुष्य-व्यक्तित्व के मर्त्यस्तर की जन्मने और मरने वाली क्रियाओं का बोध भी हो सकता है। यही कारण है कि वाज के लिए वेद में जिन विशेषणों का प्रयोग हुआ है उनमें से अनेक ऐसे भी हैं जो ऋग्मियम् के समान उस शब्द की ज्योतिर्मय ज्ञानात्मकता की ओर संकेत करते हैं । इस संदर्भ में निम्नलिखित उद्धरण विशेषण रूप से विचारणीय हैं --

1  द्युमन्तं वाजं वृषशुष्मम् उत्तमम । ऋ. 4.36.8

2 वाजं सुवीर्यम् । ऋ. 1.48.12

3 सुपेशसं वाजम् । ऋ. 1.63.9

4 अस्मे अग्ने संयद्वीरं बृहन्तं क्षुमन्तं वाजं स्वपत्यम् रयिं दाः । ऋ. 2.4.8

5 वह वाज जिसे अग्नि श्रुति द्वारा अपावृत करते हुए बताया गया है -- वाजं श्रुत्या अपा वृधि । ऋ. 2.2.7

6 गध्यं वाजं । ऋ. 4.16.16 तु. 4.16.11

7 वाजं द्युम्नम् अजराजरम् । ऋ. 6.7.5

8 वाजं राजानां श्रुष्टिमन्तम् । ऋ. 5.54.14

9 शविष्ठं वाजं विदुषा चिदर्घ्यम् । ऋ. 5.44.10

10 वाजं गोमन्तम । ऋ. 9.63.14; 18

11 वाजं देवहितम् । ऋ. 6.17.15

12 पुरुरूपं वाजं नेदिष्ठम् । ऋ. 8.60.18

13 क्षुमन्तं वाजं शतिनं सहस्रिणम् गोमन्तम् । ऋ. 8.88.2

14 वाजं श्रुत्यम् । ऋ. 7.5.9

15 वाजं जेषि श्रवो बृहत् । ऋ 9.44.6

16 हिरण्यवत् अश्वावत् वीरवत् वाजं गोमन्तम् । ऋ. 9.63.18

17 अश्वावन्तं रथिनं वीरवन्तं सहस्रिणं शतिनं वाजम् इन्द्र ।

   भद्रव्रातं विप्रवीरं स्वर्षाम् अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिम् दाः ।।ऋ.10.47.5

18 वाजं विश्वरूपं बृहस्पतिं वृषणं ज्योतिः । ऋ. 10.67.10

19 वाजं गोमन्तम् । ऋ. 9.33.2

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20 वाजं सहस्रिणम । ऋ. 9.57.1

21 वाजस्य श्रुत्यस्य । ऋ. 8.1.36.12

22 वाजस्य परमस्य रायः । ऋ. 4.12.3

23 वाजस्य गध्यस्य । ऋ. 6.10.6; 26.2

24 वाजस्य श्रवस्यस्य । ऋ. 8.96.20

वाजं शब्द के इन्हीं विशेषणों को देखते हुए यह अनुमान करना कठिन नहीं है कि ऋभु, विभ्वा और वाज एक वचन में प्रयुक्त होकर अपने वृद्ध माता-पिता को युवा1 बनाने वाले कहे जाते हैं। क्योंकि एक वचन में वे तीनों ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और इच्छाशक्ति की उस अव्याकृत अवस्था के द्योतक हैं जो नीचे अवतीर्ण होकर सूक्ष्म और स्थूल देह रूपी पिता-माता को नवशक्ति, नवउल्लास तथा नवज्योति के रूप में पुनः यौवन प्रदान करते हैं। तीनों ही अव्याकृत अवस्था के द्योतक होने के कारण, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, उनमें से कोई एक नाम अन्य सभी का द्योतक हो जाता है । यह अव्याकृत त्रयी किसी व्यक्ति को वाजी, ऋषि अथवा शूर बना सकती है तथा रायस्पोषं2 तथा सुवीर्य प्रदान कर सकती है। यही वह वाज है जो हमें विश्वं3 द्रविणम्' प्रदान करता है। तथा जिसको ‘ऋभुक्षा रथस्पतिः भगः'4' कहा जाता है। यही वह वाज ‘वाजं सहस्रिणम्' है जिसमें सभी पौंस्य, जिसमें अग्नि अथवा इंद्र के सभी पराक्रम ‘विश्वानि पौंस्या'5 निहित कहे जाते हैं। और इसी वाज को ब्रह्म ज्योतिरूपी आन्तरिक उषा मानुष-जन को प्रदान करती है, तो अनेक वह्नियां उसका स्तवन6 करने लगते हैं।

वाज और वाजी :

 अतः जो मनुष्य जन उक्त वाज नामक अव्याकृत पराशक्ति से युक्त होता है, उसको वाजी कहना सर्वथा उचित है इसलिए वेद में स्पष्ट कहा गया है कि वही वाजी, वही ऋषि और शूर है जिसमें वाज, विभ्वा7 अथवा ऋभु कही जाने वाली शक्ति आविष्ट हो जाती है। ऐसे ही व्यक्तित्व को दैव्य वाजी कहा जाता है जो यज्ञ रूप होता है और इसका

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1 पुनर्ये चक्रुः पितरा युवाना सना यूपेव जरणा शयाना ।

ते वाजो विभ्वां ऋभुरिन्द्रवन्तो मधुप्सरसो नोऽवन्तु यज्ञम् ।। ऋ. 4.33.3

2 स वाज्यर्वा स ऋषिर्वचस्यया स शूरो अस्ता पृतनासु दुष्टरः ।

स रायस्पोषं स सुवीर्यं दधे यं वाजो विभ्वाँ ऋभवो यमाविषुः ।। ऋ. 4.36.6

3 वही, 10.35.13

4 वही, 10.64.10

5 वही, 1.6.9

5 वही, 1.48.11

7 ऋ. 4.36.6

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जानकार भी वाजी कहा जाता है। जो इस व्यक्तित्व को पा नहीं सका वह अशान्त मानुषवाजी है, जिस पर आरूढ़ होकर उक्त दैव्यवाजी उसके अशान्त रूप को नष्ट कर देता है। परन्तु प्रश्न उठाया जाता है कि जब यह दैव्यवाजी अशान्त हो जाता है तो उस पर कौन आरूढ़ होता है ? इसका उत्तर है कि अध्वर नामक आध्यात्मिक योग-यज्ञ करने वाला अभिमान पूर्वक कहता है कि मैं उस दैव वाजी को शान्त करता हूं और शान्त हुए इस वाजी पर जब आरूढ़ होता हूं तो मुझको कोई कष्ट1 नहीं होता । इस प्रकार के वाजी व्यक्तित्व को ‘उत्सम् अक्षितम्' (ऋ.1.64.6) कहा जाता है, और इसके विपरीत जो वाज-रहित व्यक्तित्व है, उसे अवाजी कहा जाता है; परन्तु अवाजी होते हुए भी वेद के अनुसार वाजी के साथ तुलना2 करके उसको उपहास का पात्र नहीं बनाना चाहिए, अपितु ऐसे वाजी व्यक्तित्वों के वाजी प्राणों को प्रोत्साहित करना चाहिए जिससे इस प्रकार के विजयी व्यक्तित्वों का जयघोष व्याप्त हो3 । ऐसे ही व्यक्तित्व के ज्ञानाग्नि को वसु, रुद्र, आदित्य विश्वदेवाः तथा मरुतः नामक विशः में ऋषि अथवा वाजी के प्रशस्त और प्रिय कहा4 जाता है । इसी ज्ञानाग्नि को गृह में जन्मा सुपुत्र अथवा प्रीत वाजी कहा जाता है जो उक्त पंचविध विशः को समुन्नत करता है। ऐसे ही वाजी व्यक्तित्व के आत्मारूपी इंद्र को भी वाजी कहा जाता है (ऋ. 1.133.7) । इसी आत्मा को एक ब्रह्मपुत्र शकुनि तथा वाजी के रूप में कल्पित किया गया है, और उससे आशा की गई है कि वह सर्व नामक बाह्यपक्ष में भद्र की अभिव्यक्ति करे, विश्वनामक आन्तरिक पक्ष में पूर्ण की (ऋ. 2 43.2) अभिव्यक्ति करे। एक मन्त्र में अग्नि से कहा गया है-हे अग्नि ! तुझसे ही वाज नामक पराशक्ति का भरणपोषण करने वाला वाजी व्यक्तित्व उत्पन्न होता है और उसमें सत्य का बल तथा अभीष्टि करने का सामर्थ्य (ऋ. 4.11.4) होता है। एक अन्य मन्त्र में अग्नि से निवेदन है कि हे अग्ने ! शरीर रूपी द्रोण कलश में क्रतु के द्वारा ही वाजी व्यक्तित्व उत्तरोत्तर विकसित किया जाता है, वह बाहर से करणीय अथवा उत्पाद्य6 नहीं है । वैश्वानर अग्नि से कहा जा रहा है-'हे अग्ने! तुझसे ही विप्र तथा वाजी नामक व्यक्तित्व तथा शत्रुनाशक वीर प्राणों की उद्भूति हो सकती है। अतः हे राजन् !

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1 पूरे प्रसंग के लिए देखें-जै.ब्रा. 1.8.3-8.4

2 ऋ. 3.53. 23

3 10.103-10

4 ऋषिर्न स्तुभ्वा विक्षु प्रशस्तो वाजी न प्रीतो वयो दधाति । ऋ. 1.66.2

5 पुत्रो न जातो रण्वो दुरोणे वाजी न प्रीतो विशो वितारीत् । वही, 1.69.3

6 ऋ. 6.2.8

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तुमसे ही प्रार्थना है, तुम हम लोगों को यह स्पृहणीय सम्पत्ति प्रदान करो (ऋ. 6.73) ।' यह वाजी व्यक्तित्व मनुष्य के भीतर सहसा नहीं उत्पन्न हो जाता। इसके लिए धैर्यपूर्वक चिरकाल तक साधना करनी पड़ती है। यह साधना प्राणवायु के नियंत्रण से प्रारम्भ होती है। इसलिए वायु से कहा जाता है कि 'हे वायो ! मनुष्य में तुम ही वह प्रशस्य कार्य करते हो जिससे वाजी नामक व्यक्तित्व उत्तरोत्तर साधना के द्वारा विभूत होता हुआ जन्म1 ग्रहण करता है। योग-साधना के प्रत्येक अवसर पर साधक को यह अतीन्द्रिय वाज सुलभ2 होता है जिससे उसका आत्मा रूपी इंद्र अधिकाधिक आत्मबल से युक्त हो जाता है। इसलिए उरुशंस पूषा से प्रार्थना है कि वह वाज प्राप्ति के प्रत्येक अवसर (वाजेऽवाजे) पर हमारे व्यक्तित्व के लिए गतिशील3 हो । उसी प्रकार सरस्वती से प्रार्थना की गई कि वह भी हमारे व्यक्तित्व की प्रत्येक वाज प्राप्ति (वाजेऽवाजे) के अवसर पर हमारे लिए आहवनीय4 हो जावे । व्यक्तित्व में इस वाज की जैसे-जैसे मात्रा बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ये सभी प्राण देव वाजी बनते जाते हैं । अतः इन सभी वाजियों से प्रार्थना है कि वे शान्तिस्वरूप हो जावें और देवत्व के विस्तार में सीमित गति वाले तथा सुन्दर ज्योति वाले होकर हमारे आन्तरिक राक्षसों तथा अहङ्कार रूपी अहि एवं क्रोध वृक को नष्ट करते हुए हम से रोग के कीटाणुओं (अमीवा) को दूर5 कर दें । पुनः इन्हीं वाजियों को विप्र, अमृत तथा ऋतज्ञ कह कर प्रार्थना की गई है कि वे वाजी प्रत्येक वाज-प्राप्ति के अवसर पर (वाजेऽवाजे) हमारे आध्यात्मिक धनों के प्रसंग में हमारी रक्षा करें और परमात्मा रूपी सविता के मधु का6 पान करके आनन्दित तथा तृप्त होकर देवयान पर गतिशील हों।

इस प्रकार जहाँ एक व्यक्तित्व को वाजी कहा जाता है वहाँ उस व्यक्तित्व के प्राणों, अंगों तथा कोशों आदि को भी अनेक वाजियों के रूप में कल्पित किया जा सकता है। एक स्थान पर मनुष्य व्यक्तित्व के दश-

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1 कृणोषि तं मर्त्येषु प्रशस्तं जातो जातो जायते वाज्यस्य ।

ऋ. 7.90.2; मैसं 4.14.2

2 योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे । सखाय इन्द्रमूतये । ऋ. 1.30.7

3 अहेळमान उरुशंस सरीभव वाजे वाजे सरीभव । ऋ. 1.138.3

4 वाजे वाजे हव्याभूत । वही, 6.61.12

5 शं नो भवन्तु वाजिनो हवेषु देवताता मितद्रवः स्वर्काः ।

जम्भयन्तोऽहि वृकं रक्षांसि सनेम्यस्मद् युयवन्नमीवाः ।। ऋ. 7.38.7

6 वाजे वाजे अवत वाजिनो नो धनेषु विप्रा अमृता ऋतज्ञाः ।।

अस्यः मध्वः पिबत मादयध्वं तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः ।। वही, 7.38.8


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कोशीय दश1 वाजियों की कल्पना की गई है। तदनुसार मनुष्य-व्यक्तित्व रूपी रथ पर बुद्धि रूपी सुसारथि इन्द्रिय रूपी वाजियों को जहाँ-जहाँ चाहता है वहाँ-वहाँ सामने ले जाता है और मन बुद्धि सारथि द्वारा नियन्त्रित रस्सियों की प्रशंसा करता है। सभी चित्तवृत्तियाँ रूपी रश्मियाँ2 मन के पीछे पीछे चल देती हैं। पूर्वोक्त ऋभु बन्धुओं को जब वाजा:3 (बहुवचन) कहा जाता है । तब उन्हीं को तुरन्त ही वाजिनः भी कह दिया जाता है-

पीवोअश्वाः शुचद्रथा हि भूतायःशिप्रा वाजिनः सुनिष्का: ।

इन्द्रस्य सूनो शवसो नपातोनु वश्चेत्यग्रियं मदाय ।। (ऋ. 4.37.4)  

कारण स्पष्ट है कि जिस अतीन्द्रिय तथा अव्याकृत इस बन्धुत्रयी के लिए एकवचन वाजा शब्द का प्रयोग होता है, वही जब व्याकृत होकर त्रिविध हो जाती है, तो भी वह उक्त अव्याकृत वाज के प्रभाव से प्रभावित होने के कारण वाजिनः (वाज से युक्त) तीन बन्धु कहे जा सकते हैं । साथ ही सम्पूर्ण त्रयी की संयुक्त समष्टि को ‘वाजिनं ऋभुं वाजिन्तमं इन्द्रस्वन्तं अश्विनम्' कहना भी उपयुक्त समझा जाता है क्योंकि इस समष्टि4 में ही वाज सर्वाधिक मात्रा में विद्यमान होता है। इन्हीं तीनों के व्याकृत रूप के लिए वाजिनः शब्द का प्रयोग (ऋग्वेद 7.38.7,8) जब होता है तो वेंकटमाधव जैसे भाष्यकार उनको ‘वाजिनः अश्वरूप केचन देवाः सत्यज्ञाः कहते हैं, परन्तु वास्तव में वे वाजिनः वे ही ऋभु, विभ्वा और वाज के व्याकृत रूप हैं जिन्हें क्रमशः ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति का प्रतीक बताया है। वास्तव में विज्ञानकोश के एकीभूत वाज की चर्चा कर चुके हैं। वह सविता देव की वही उपज है जिसे प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र में उसको ‘वरेण्यं भर्गः' कहा गया है; इसी वाज से युक्त होकर मरणशील5 मनुष्य भी ‘वाजिनः' होकर स्वर्ग की प्राप्ति करते हैं ।


वाजिनी और वाजिनीवती :

 मनुष्यों के ‘वाजिनः' होने का तात्पर्य क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर

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1 ऋ. 6.47.22

2 रथे तिष्ठन् नयति वाजिनः पुरो यत्र यत्र कामयते सुषारथिः । ।

अभीशूनां महिमानं पनायत मनः पश्चादनु यच्छन्ति रश्मयः ।। ऋ. 6.75.6

3 वही, 4.37.1; 3; 7; 8

4 ऋभुमृभुक्षणो रयिं वाजे वाजिन्तमं युजम् ।

इन्द्रस्वन्तं हवामहे सदासातममश्विनम् ।। ऋ. 4.37.5

5 आविर्मर्या आ वाजं वाजिनो अग्मं देवस्य सवितुः सवम् ।

स्वर्गा अर्वन्तो जयत ।। कौ. 1-435; तै ब्रा 1.42-8

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में उस उषा को समझना होगा जिसे वेद में बार-बार वाजिनी1 अथवा वाजिनीवती2 कहा जाता है। कभी-कभी तो एक ही मन्त्र में उषा के लिए दोनों विशेषण एक साथ प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण के लिए, तै. सं. का निम्नलिखित मन्त्र लें—

अश्वाजनि वाजिनि वाजेषु वाजिनीवती अश्वान् समत्सु वाजय ।।(तै. सं. 1.7.8.11) 

यहाँ जिस उषा को इन्द्रिय रूपी अश्वों को गतिशील करने वाली अश्वाजनी कहा गया उसे वाजों के परिप्रेक्ष्य में वाजिनी तथा वाजिनीवती कहकर उससे इन्द्रियाश्वों को प्रेरित करने के लिए प्रार्थना भी की गई है। डॉ. फतहसिंह के अनुसार यह उषा निःसन्देह उस वाज नामक ज्ञानेच्छा क्रियापरक बल से युक्त ब्राह्मी ज्योति है जिससे उत्पन्न होने पर साधक अपने भीतर उत्साह, अद्भुत उल्लास एवं उमंग का अनुभव करता है । अतः डॉ. वीणा चौधरी ने अपने शोध-प्रबन्ध ऋग्वेद में उषस्-सूक्तों की वैचारिक पृष्ठभूमि में वाजिनीवती उषा को अत्यन्त प्रेरक वाजिनी शक्ति माना है। उक्त मन्त्र में, ‘वाजिनी वाजेषु वाजिनीवती' के साथ प्रेरणार्थक वाजय क्रिया का प्रयोग करके स्पष्ट कर दिया है कि वाज शब्द का जुए के दाँव से कोई सम्बन्ध नहीं, अपितु वह उद्दाम प्रेरणास्रोत अवश्य है । यही भाव कामशास्त्र अथवा आयुर्वेद के ‘वाजीकरण' शब्द में देखा जा सकता है।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वाज शब्द वा पूर्वक-गत्यर्थक {/अज् धातु से निष्पन्न है और वा विकल्प से मनुष्य-व्यक्तित्व के मर्त्य और अमर्त्य दोनों स्तरों पर सक्रिय होने वाली एक अलौकिक पराशक्ति है जिस में ज्ञान, इच्छा और क्रिया-शक्तियों के बीज एकीभूत होते हैं। डॉ. फतहसिह के अनुसार साधक को वाज नामक प्रखर ज्योति जब ध्यान में प्राप्त होती है तो वह मनुष्य के अंग-अंग को उल्लसित तथा प्रेरित कर देती है। अतः इसी शक्ति से युक्त ज्योति को वेद में ‘वाजिनीवती उषा कहा गया है । यही बुद्धियों की रक्षिका, वाजों द्वारा वाजिनीवती सरस्वती देवी भी कही गई है--  

प्र णो देवी सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती, धीनामवित्र्यवतु ।। (ऋग्वेद 6.61.4)

वाज नामक इसी अनुपम शक्ति से युक्त ज्योति के कारण ही उषा को ‘वाजेन वाजिनी प्रचेताः' (ऋ. 3.61.1) कहा गया है और सरस्वती

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1 ऋ. 3.61.1; बै. 6. 19.6; मै. 4.14.3; तै ब्रा 2.8.2.5 इत्यादि ।

2 ऋ. 1.48.6; 16; 92.13; 15; 4.55.9 इत्यादि ।

120

‘वाजेभिर्वाजिनीवती' के साथ-साथ ‘धियावसुः' (बुद्धि से प्राप्त धन वाली) बताया गया है –

पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती, यज्ञ वष्टु धियावसुः ।।(ऋ. 1.3.10)

यही वाजिनीवती सरस्वती1 देव निन्दकों तथा मायावियों को हमारे आन्तरिक विश्व को नष्ट करने में समर्थ होती है।

 

वाजिनीवसू

जिस प्रकार धियावसुः शब्द का प्रयोग उषा अथवा सरस्वती के लिए हुआ, उसी प्रकार वाजिनीवसू का प्रयोग अश्विनौ के लिए प्रायः2 देखने को मिलता है क्योंकि अश्विनौ का उषा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध प्राप्त होता है। ये देवता--‘यमल' साथ-साथ आने वाले हैं । अतः इनकी तुलना चक्षु, हाथ और पैर से या पशु-पक्षियों के युग्म से की जाती3 है । यास्क4 ने एक मन्त्र का उदाहरण देते हुए लिखा है कि एक रात्रि-पुत्र है। और दूसरा उषा-पुत्र है। वास्तव में वैदिक उषा और रात्रि एक संयुक्त देवता के रूप में आती हैं तो उसको उषानक्ता वा उषारात्रि कहा जाता है । डॉ. वीणा चौधरी ने अपने शोध-प्रबन्ध में डॉ. फतहसिंह को उद्धृत करते हुए बताया है कि उक्त वाजिनीवती उषा जब साधक के भीतर आविर्भूत होती है तो चेतना की पराक् और अर्वाक् गति के कारण उसमें द्वैत आ जाता है जिसके कारण एक अपेक्षाकृत उज्ज्वल हो जाती है दूसरी कुछ धूमिल । इस आधार पर वेद में उषा रात्री जैसे देवयुगल की कल्पना, चेतना की जिस पराक् अर्वाक गति पर की गई है उसी के आधार पर अश्विनौ के मिथुन की भी कल्पना की गई है । ।

 इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि अश्विनौ को उषारात्रि से सम्बद्ध माना जाए और वाजिनी उषा रूपी वसु से (धन) सम्बद्ध मान कर दोनों अश्विनौ को वाजिनीवसू कहा जावे । वाजिनीवसू के साथ-साथ उनके लिए ‘विप्रवाहसा’5 कहना भी सिद्ध करता है कि दोनों अश्विनौ विप्र नामक उस अति मानसिक प्रज्ञा के वाहक भी हैं जिसको प्रकारान्तर से

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1 सरस्वति देवनिदो निबर्हय प्रजां विश्वस्य बृसयस्य मायिनः ।

उत क्षितिभ्योऽवनीरविन्दो विषमेभ्यो अस्रवी वाजिनीवति ।। ऋ. 6.61.3

2 वही, 2.37.5; 5.74.6; 7; 75.3.; 78.3; 8.5.3; 12; 20; 30  इत्यादि ।

3 देखिए- सूर्य कान्त वैदिक देव शास्त्र, पृ. 1 1 4.

4 निरुक्त 12.2

5 को वामद्य पुरूणामा वव्रे मर्त्यानाम् ।

को विप्रो विप्रवाहसा, को यज्ञैर्वाजिनीवसू।।ऋ 5.7.4.7

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वाज कहा जाता है और जिसके सन्दर्भ से अश्विनौ के लिए भी कभी-कभी वाजिनौ विशेषण का प्रयोग होता है। 'वाजिनीवसू अश्विनौ' जिस परावत्1 (अति मानसिक स्तर)से आते हैं वह वस्तुतः मनुष्य का हिरण्ययकोश है क्योंकि वे जिस रथ के द्वारा आते हैं, उसके वर्णन से स्पष्ट है कि वह रथ मनुष्य-व्यक्तित्व का वह रूप है जिसमें हिरण्ययकोश की ज्योति अवतरित होकर ज्योति रूपी वसु की वर्षा करने लगती है जिसके कारण अश्विनौ वृषणवसू' (बरसते दो वसू) कहे जाते हैं। इस बात का सबसे प्रमुख प्रमाण निम्नलिखित तीन मन्त्र हैं जिनमें अश्विनौ के रथ को हिरव्यबन्धुर हिरण्याभिषु तथा हिरण्ययी इषा, हिरण्यय अक्ष और हिरण्यय चक्रवाला कहा गया है

1 रथं हिरण्ययबन्धुरं हिरण्याभीशुमश्विना।

आहि स्थाथो दिविस्पृशम् ।।

2 हिरण्ययी वां रभिरीषा अक्षो हिरण्ययः । ।  

उभा चक्रा हिरण्ययाः ।।

3 तेन नो वाजिनीवसू परावतश्चिदा गतम् ।।

उपेमां सुष्टुतिं मम ।। (ऋ. 8.5.28-30)  

इस प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि डॉ. प्रतिभा शुक्ला ने ‘वेद में हिरण्यय का प्रतीकवाद' शीर्षक से जो पी-एच.डी. का शोध-प्रबन्ध लिखा है उसमें हिरण्ययकोश को ब्राह्मी ज्योति माना है जिसे वेद में ज्योतिर्मण्डित स्वर्ग कहा जाता है और जिसमें आत्मा से युक्त ब्रह्म का निवास बताया जाता है । अतः अश्विनौ जिस रथ से आते हैं वह वस्तुतः हिरण्ययकोश की हिरण्ययी प्रज्ञान ज्योति का रथ है जो पूर्वोक्त वाज नामक ज्ञान बल को जन्म देती है एवं उसके द्वारा सम्पूर्ण मानव-व्यक्तित्व को अनुपम उत्साह, अद्भुत उमंग तथा अलौकिक प्रेरणा से परिपूर्ण कर देती है। यही वह हिरण्ययरथ है जिसके लिए ‘वाजिनीवान'2 विशेषण का भी प्रयोग होता है क्योंकि उसमें पूर्वोक्त वाजिनी उषा निहित रहती है । इसी प्रज्ञान ज्योति के सघन प्रकार के कारण साधक का सम्पूर्ण व्यक्तित्व ‘शक्र' का एक बृहद् वाजिनीवान्-जाल1 बन जाता है जिसके द्वारा सभी

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1 तेन नो वाजिनीवसू परावतश्चिदा गतम् ।

।  उपेमां सुष्टुतिं मम ।। ऋ. 8.5.30 : . . .'

आ वां रथो रोदसी बद्बधानो हिरण्ययो वृषभिर्यात्वश्वैः ।

घृतवर्तनिः पविभी रुचान इषां वोळहा नृपतिर्वाजिनीवान् ।। वही, 7.69.1

3 बृहद्धि जालं बृहतः शक्रस्य वाजिनीवतः।।।.. ....

तेन शत्रूनभि सर्वान्न्युज यथा न मुच्यातै कतमश्चनैषाम ॥


122

आध्यात्मिक शत्रुओं से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है क्योंकि अपरिमित शक्ति के कारण ही शक्र (शक्तिमान्) का जाल कहा जाता है। इसी शक्तिजाल के परिणामस्वरूप वाज-ऋभुक्षा-विभ्वा इन्द्र और वरुण का एक सुकर्मा हो जाता है--

वाजो देवानामभवत् सुकर्मा इन्द्रस्य ऋभुक्षा वरुणस्य विभ्वा ।।। (ऋ. 4.33.9)


वाज तथा वाजी ज्ञानाग्नि है :

अब तक के विवेचन से स्पष्ट है कि जिस वाज के कारण मनुष्यव्यक्तित्व ‘वाजी' हो जाता है , वह वस्तुतः अतीन्द्रिय प्रज्ञान ज्योति है जो उषा, अश्विनौ जैसे दिव्य रूपों में प्रकट होती हुई साधक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में अपना जाल फैला देती है। इसी दष्टि से अग्नि को एक सुभृत उत्तम ‘वयस्' के अतिरिक्त विस्तारशील बृहद् वाज तथा आन्तरिक जगत् में बहुलता तथा पृथुता प्राप्त करने वाला ‘रयिम्' कहा जाता है --

त्वमग्ने सुभृत उत्तमं वयस्तव स्पार्हे वर्णे आ संदृशि श्रियः ।  

त्वं वाजः प्रतरणो बृहन्नति त्वं रयिर्बहुलो विश्वतस्पृथुः ।। (ऋ. 2.1.12)

यही वह वाज है जिसका अग्नि द्वार की तरह श्रुति के द्वारा उद्घाटन करता है तो उषाएँ सूर्य के समान शुक्रज्योति1 का प्रसार कर देती हैं। इस वाज के सम्बन्ध से अग्नि को बार-बार वाजी भी कहा जाता है । इस प्रकार अग्निरूपी वाज को ही वाजी कहना कोई अनोखी बात नहीं है क्योंकि जिस ज्ञान ज्योति को शुक्रा देवीमनीषा3 कहा जाता है, वह वस्तुतः उक्त वाज नामक शक्ति होते हुए भी वाजी कही गई है। जिस अग्नि को मनीषी विपश्चित् और मेधावी अपनी बुद्धियों द्वारा प्रेरित करते हैं, उसी वाजी को वे अध्वर रूप में विस्तार देते हुए स्तवन करते4 हैं । वह अग्नि ज्ञानरूपी दृष्टि वाला है जिसको आन्तरिक जगत् की सभी विशः (प्रजाएँ) पुकारती हैं । यह अग्नि हमारे सभी द्वेषियों को नष्ट करने वाला जातवेदस् अग्नि है जो हमारे सभी धर्मों का अद्भुत अध्यक्ष तथा

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1 दा नो अग्ने बृहतो दाः सहस्रिणो दुरो न वाजं श्रुत्वा अपा वृधि ।

 प्राची द्यावापृथिवी ब्रह्मणा कृधि स्वर्ण शुक्रमुषसो विदिद्यतुः ।। ऋ. 2.2.7

2 वही, 3.27.8; 29.7; 5.1.4; 7 इत्यादि ।

3 प्र शुक्रतु देवी मनीषा अस्मत् सुतष्टो रथो न वाजी ।

विदुः पृथिव्या दिवो जनित्रं श्रृण्वन्त्यापो अध क्षरन्तीः ।।  ऋ. 7.34.1; तै आ 6.6.16; 1.2.8

4 ऋ. 8.43.19-20


123

आन्तरिक प्रजाओं (विशाम) का राजा 'ॐ' स्वरूप1 है वह अग्नि सर्वगत बल से युक्त मनुष्य के समस्त वाजी है । वाजी हमारे भीतर छिपा हुआ है। जिसे हम अश्व के समान प्रेरित करते हैं (वाजयामसि)2।

अग्नि एक ऐसा वाजी है जिसे मनुष्य के द्वारा सर्व प्रथम अपने बुद्धि केन्द्र पर समिद्ध किया जाता है और जो श्रीसम्पन्न, अमृत, विजेता तथा श्रवस्य विशेषणों द्वारा वर्णित होता3 है । वह अग्नि ज्ञानवान् विप्र कवियों द्वारा प्रशंसित सुदानु4 है । अध्वर नामक आध्यात्मिक यज्ञ में यह अग्नि वाजी होकर मनुष्य व्यक्तित्व में सर्वत्र प्राणदेवों के मध्य ले जाया5 जाता है । यह निःसन्देह जातवेदस् अग्निरूपी वाजी है जिसे हमारे हृदयरूपी बर्हि में आसीन किया जाता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है जातवेदस उस संयुक्त ईकाई का नाम है जिसमें अग्नि, इंद्र और सोम की त्रयी का एकत्रीकरण होता है। अतः इस जातवेदस् अग्नि के तीन वाजी, तीन स्थान, तीन जिह्वायें तथा तीन शरीर भी कल्पित6 किए गए।

 

वाजी इन्द्र :

 अग्नि के समान इंद्र को भी वाजी कहा गया है । शतक्रतु इंद्र वाज7 से वाजी है जिसे श्रव के इच्छुक लोग सुदुघा गाय की तरह (ऋ. 8.52.4) दुहते हैं। जब वाजी इंद्र शूरों द्वारा स्वः ज्योति देता है और विप्रों द्वारा वाज देता है (ऋ. 1 129.2) तो तात्पर्य यह है कि वह अंगिरस प्राणों (शूरैः) द्वारा स्वःज्योति तथा उच्चतर विप्रों (आदित्यों) द्वारा वाज नामक बल की प्राप्ति कराता है। अतः जो शोभनकर्मा मनुष्य वसु, सुम्न अथवा धन चाहते हैं वे विप्र इंद्र की वाक् का तक्षण करते हैं, तो मानो स्वयं उस इंद्र का तक्षण करते हैं जिसे ‘जेन्यं वाजेषु वाजिनम्' कहा जाता है—

इमां ते वाचं वसूयन्त आयवो रथं न धीर: स्वपा अतक्षिषुः सुम्नाय त्वामतक्षिषुः ।

शुम्भन्तो जेन्यं यथा वाजेषु विप्र वाजिनम् ।

अत्यमिव शवसे सातये धना विश्वा धनानि सातये ।। ऋ. 1.130.6

यहाँ जिस वाक् का उल्लेख है वह वही परावाक् है जिसे हमने

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1 वही. 24

2 वही, 25 ।

3 वही, 2.19.1

4 वही, 3.29.7

5 वही, 4.15.1

6 वही, 3.20.2; मै. 2.4.4; तैसं 3.2.11.1

7 तु. वाजेषु वाजिनम् वाजयामः शतक्रतो । ऋ. 1.4.9


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ऊपर वाजनामक अव्याकृत शक्ति से युक्त माना है। इसी की दुधारू गाय के रूप में कल्पना करते हुए जब उसकी प्राप्ति के लिए तीव्रगामी इंद्ररूपी वाजी1 को प्रेरित किया जाता है, तो तात्पर्य यही होता है कि वाजी इंद्र जिस शक्तिरूपी गाय से युक्त है वह वस्तुतः वाजिनी उषा (सरस्वती) है जिसका वर्णन पहले कर चुके हैं। दूसरे शब्दों में, जो वाजी इंद्र वाज या वाजिनी वाक से युक्त है वह उस जीवात्मा का द्योतक है जो साधना के उच्च स्तर को प्राप्त कर चुका है। इस प्रसंग में निम्नलिखित मन्त्र विशेष रूप से विवेचनीय हैं--

‘स्तुहीन्द्रं व्यश्ववदनूर्मि वाजिनं यमम् ।

अर्योगयं मंहमानं विदाशुषे ।। ऋ. 8.24.22

इस मन्त्र में वाजी इंद्र के लिए जिन विशेषणों का प्रयोग हुआ है उनसे पता चलता है कि वह एक ऐसा तत्व है जिसे विशेष प्रकार का अश्व (व्यश्व ) कहा जाना चाहिए। यह विशेषता एक तो उसके ऊर्मि रहित होने में है और दूसरी यमनियम संयम के प्रतीक (यम) होने में है। इस साधना का स्वामी होकर जीवात्मा जिस ‘गयं मंहमानम्'2 को प्राप्त करने की इच्छा करता है वह वही ज्योतिर्मण्डित स्वर्गरूपी गृह प्रतीत होता है जो हिरण्यय कोश में स्थित माना गया है। अन्यत्र आत्मा रूपी वाजी इंद्र को बल का विशेषज्ञ, स्थविर, प्रवीर, सहस्वान्, सहमान, उग्र, अभिवीर, गोवित् कह कर जैत्र रथ पर विराजमान होने के लिए बुलाया3 जाता है। वही वाजिनी नामक शक्ति से युक्त होकर वसु, आदित्य, रुद्र, विश्वेदेव और मरुत नामक विशः का पति तथा देवों का अधिपति बनता4 है। इस वजिनीवान इंद्र के लिए अथर्वा जिस व्यक्तित्व रूपी चमस को पूर्ण करता है उसमें वह सुकृत का ‘भक्षम्' भी पैदा करता है और उसमें इन्दु सदा पवमान5 रहता है । यही इंद्र वाजी का वह रूप है जो सभी प्रकार के पिशाचों को नष्ट करता है और जिसके जिष्णुशिर को सोम कहा जाता है (पै. 13.9.9) ।

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1 अहेळता मनसा श्रुष्टिमा वह दुहानां धेनुं पिप्युषीमसश्चतम् ।।

पद्याभिराशुं वचसा च वाजिनं त्वां हिनोमि पुरुहूत विश्वहा । वही, 2.32.3

2 पूर्व उद्धृत

3 बलविज्ञायः स्थविरः प्रवीरः सहस्वान् वाजी सहमान उग्रः ।।

अभिवीरो अभिसत्वा सहोजा जैत्रमिन्द्र रथमा तिष्ठ गोवित्।। ऋ. 10.103.5

4 इन्द्रो देवानामधिपाः पुरोहितो विशां पतिर भवद् वाजिनीवान् ।। मै. 4.14.12

[तु] इन्द्रो देवानामधिपाः पुरोहितः । दिशां पतिरभद्वाजिनीवान् ।

अभिमातिहा तविषस्तुविष्मान् । अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दात् ।

इति–-तै. ब्रा. 2.8.4.2

5 शौ-18.3.54


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वाजी सोम :

अतः कोई आश्चर्य नहीं कि वेद के अनेक मन्त्रों में सोम को भी वाजी कहा जाता है । इस वाजी सोम को विप्र लोग जिस अण्वी धी के द्वारा जिस अदिति की गोद में पैदा करते हैं वह मनुष्य व्यक्तित्व की वही अखण्ड अद्वैत चेतनस्थिति है जो हिरण्यय कोश में प्राप्त होती है (ऋ. 9. 26.1) । यही वह वाजी है जिसको विप्र लोग प्राणरूपी देवों के विस्तार के लिए अपनी बुद्धियों द्वारा मार्जन करते हैं (ऋ. 9.17.7) । यह बात अभिप्रेत है जब सोमरूपी हरि तथा वाजी कहे जाने वाले मदच्युत सोम को इंद्र के लिए नदियों में प्रेरित किया जाता1 है, क्योंकि यहाँ नदियों से अभिप्राय मनुष्य व्यक्तित्व की विभिन्न प्राणधाराओं से है। इन सब धाराओं में जो वाजी का मूल वाज प्रवाहित होने लगता है उसके लिए बहुवचन का प्रयोग होता है। वह वाजी सोम अनेक वाजों में प्रेरित किया जाता है, तो उसको ओणियों का धर्ता स्वर्ज्योति का द्रष्टा भी कहा जाता है (ऋ. 9.65.11) । इस सोम वाजी की तुलना उस अश्व से की जाती है। जिसे अनेक रसनाओं द्वारा ले जाया जाता है (ऋ. 9 87.1) यह घोर होते हुए भी एक चेष्टा वाला मधु पृष्ठ अश्व है जिसको उरु चक्रवाले व्यक्तित्व रथ से जोड़ा जाता है। अनेक प्राणधाराएँ रूपी सनाभा (समान केन्द्रवाली) बहिनें उस वाजी सोम को ऊर्जस्वित्2 करती हैं। निःसन्देह यह वाजी सोम स्वयं आनन्दमय कोश नामक आध्यात्मिक स्तर है जिसे बुद्धियों द्वारा प्रेरित तथा अभिव्यक्त किया3 जाता है। मनुष्य व्यक्तित्व में प्रवाहित होने वाली अनेक चेतना सिन्धुओं का जब यह वाजी सोम पति बनता है तो वह सुनहरी सुन्दर किरणों द्वारा गति करता4 है। यही वाजी जब प्राणों द्वारा धारण किए जाने पर विश्वविद् मनसस्पति बनता है तो वह बहुत गतिशील5 होता है । अपने वरणीय स्वरूप की ओर गतिशील होता है । यह वाजी सोम द्युलोक का प्रकाश रक्षोहा पवमान है जो अपने वरणीय अव्ययस्वरूप की ओर विशेष रूप से दौड़ता है। यह वाजी सोम दिवस्पति, शतधार, विचक्षण, वृषा तथा हरि है जो मित्र के सदनों में सिन्धुओं द्वारा परिमार्जित होता हुआ6 गति करता है।

 अन्यत्र इसी वाजी सोम को सहस्र सातन (मै. 4.12.5), सहस्रधार (कौ. 2.5.103; जै. 3.40.6) तथा सहस्रिणः भी कहा जाता है। वह

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1 ऋ. 9.53.4; 63.17

2 वही, 9.89.4

3 वही, 9.106.11

4 वही, 9.15.5

5 वही, 9.28.1

6 वही, 9.86.11


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सहस्रधार होकर इन्द्र के लिए प्रवाहित होता है, तो उसको क्रतु, दक्ष आदि के लिए गतिशील कहा जाता है (ऋ 9.109.10; 17.19) । वह द्युलोक का धारणकर्ता शुक्र पीयूष है जिसे विशेष धर्मी सत्य में प्रवाहित होने के लिए कहा1 जाता है। इसी सत्य को वह आपृच्छ आधार (धरुण) कहा जाता है जिसमें विचक्षण वाजी प्राणों रूपी नरों से प्रेरित होकर गति2 करता है। इन सब संकेतों से इस बात की पुष्टि होती है कि अग्नि और इन्द्र की तरह अपने वाजी रूप में सोम भी एक आध्यात्मिक शक्ति के रूप में वेद में वर्णित हुआ है । इसलिए वाजी सोम के प्रसंग में मतियों और बुद्धियों की चर्चा सुनने को मिलती है और उसे मनसस्पति भी कहा जाता है ।


 वाजी और रोहित :

 अग्नि, इन्द्र और सोम के वाजी रूप में जो आध्यात्मिक परिवेश दिखाई पड़ा, उसका कारण यही है कि वे तीनों देव-शक्तियाँ वास्तव में आत्मा की क्रमशः ज्ञानपरक, क्रियापरक और आनन्दपरक भद्रा प्रमति की प्रतीक3 हैं। तीनों की जिस संयुक्त इकाई को जातवेदस् कहा गया, वही, जैसा कि पहले कह चुके हैं, मूल वाजी है जो मनोमय, प्राणमय और अन्नमय स्तर पर अनेक वाजियों के रूप में अभिव्यक्त होता है। इसी मूल वाजी को अथर्ववेद के 13 काण्ड में किसी रोहित के सम्पर्क में प्रस्तुत किया गया है, जो सम्पूर्ण विश्व का जन्मदाता है--

उदेहि वाजिन् यो अप्स्वन्तरिदं राष्ट्रं प्र विश सूनृतावत् ।

या रोहितो विश्वमिदं जजान स त्वां राष्ट्राय सुभृतं बिभर्तु ।। (शौ. 13.1.1)

यहाँ उस वाजी से प्रार्थना है जो प्राणों रूपी आपः के भीतर छिपा हुआ है कि वह मनुष्य-व्यक्तित्व रूपी राष्ट्र में प्रवेश करे।

विश्व का वह जनक परमात्मा रूपी रोहित उस वाजी को राष्ट्र के लिए सर्वथा भरपूर कर दें। इस बात को और स्पष्ट करते हुए आगे उस वाज का आह्वान किया गया है जो प्राण रूपी आप: के भीतर विराजमान है । उससे कहा गया है कि तुम विशः अर्थात् प्राणरूपी प्रजाओं से ऊपर उठो जो तुम से उद्भूत हैं और प्राणरूपी आपः, औषधि तथा गौ में सोम को स्थापित करते हुए चतुष्पदों और द्विपदों को यहाँ आविष्ट4 कर लो ।

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1 वही, 9.109.6

2 वही, 9.107.5

3 डॉ. फतहसिंह : भावी वेदभाष्य के सन्दर्भ-सूक्त ।

4 शौ. 13.1-2


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जिन विशः को वाज से उद्भूत कहा गया है उनके अन्तर्गत वे उग्र मरुत् भी आते हैं जिनको सम्बोधित करके कहा गया है कि तुम इन्द्र से युक्त होकर हमारे आन्तरिक शत्रुओं का विनाश करो और परमात्मा रूपी रोहित तुम्हारी पुकार को सर्वत्र सुने—

यूयमुग्रा मरुतः पृश्निमातर इन्द्रेण युजा प्रमृणीत शत्रून् ।

आ वा रोहितः शृणवत् सुदानवस्त्रिषप्तासो मरुतः स्वादुसंमुदः ।। (शौ. 13.13)

इस मन्त्र में मरुत को पृश्निमातरः कहा गया है और उसकी संख्या (त्रिषप्तासः) बताई गई है जबकि अन्यत्र उनकी संख्या 49 बताई गई है। इसका कारण यह है कि यहाँ केवल अन्नमयकोश, प्राणमयकोश और मनोमयकोश के तीन सप्तकों के सन्दर्भ से ही उनकी संख्या निर्धारित की गई है। इन स्तरों पर वे अशुद्ध प्रकृति रूपी पृश्नि (चितकबरी) के पुत्र कहे जाते हैं । अतः उन्हें इन्द्र से युक्त होकर वह बल प्राप्त करना है जिससे वे शत्रुओं को नष्ट कर सकें। विशः होने से मरुतः भी वाज से उद्भूत है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि मरुतों को भी अन्यत्र1 वाजिनः कहा गया है।

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1 ऋ. 7.36.7


वाजपेय याग पर टिप्पणी व संदर्भ

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