चतुर्थ अध्याय

दीर्घतमसोपरि संक्षिप्त टिप्पणी

दीर्घतमस् का अश्व

वेद में ऐसे कई सूक्त हैं जिनमें अश्व का वर्णन किया गया है। इनमें से ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में पाए जाने वाले दो सूक्त सर्वप्रथम उल्लेखनीय हैं। इन दोनों सूक्तों के मन्त्रों का विनियोग अश्वमेधयज्ञ में भी होता है। दोनों सूक्तों के ऋषि दीर्मतमस् हैं। दीर्घतमस् से अभिप्राय है घोर अंधकार में डूबा हुआ जीव जो ज्योति की खोज में निरन्तर लगा हुआ है । ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 140 से लेकर 164वें सूक्त तक दीर्घतमस् इसी खोज को प्रस्तुत करते हैं। सर्वप्रथम वे किसी तमोहन शुक्रवर्ण और शुचि ज्योतिरथ की कामना1 करते हैं, तो दूसरे स्थान पर उसे अग्नि के उन तीन रूपों में देखते2 हैं जो क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण देह में स्थित माने जा सकते हैं। इनमें से तृतीय रूप को ‘दशप्रमति' कहा जाता है जिससे दशों दिशाओं में चेतना रश्मियाँ फैलती हुई मानी जा सकती हैं। इन्हीं रश्मियों को ‘सूरयः' (ऋ. 1.141.3) कहा जाता है । वे महद् बुद्धि रूपी महिष् से उस समय उद्भूत होते हैं जबकि गुहा में छिपे हुए उक्त ज्योतिरूपी अग्नि को मातरिश्वा मन्थन3 करके निकालता है। इसी ज्योति की तुलना ऋग्वेद 1.141 में रथ से की गई है। जो अपने अरुष अंगों द्वारा द्युलोक में गति करता है और जिसके कृष्णवर्णा ‘सूरयः'4 कहे गए हैं। परन्तु दीर्घतमस् अग्नि के उस नव्य रूप का ध्यान कर रहा है जिसे वह ‘महिरत्न' कह कर सम्बोधित5 करता है। वह सुद्योत्मा, जीराश्व तथा चन्द्ररथ अग्नि है जिसकी उसे चाह6 है। यही

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1 वेदिषदे प्रियधामाय सुद्युते धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये ।

वस्त्रेणेव वासया मन्मना शुचिं ज्योतीरथं शुक्रवर्णं तमोहनम् ।। ऋ. 1.140.1

2 पृक्षो वपुः पितुमान्नित्य आ शये द्वितीयमा सप्तशिवासु मातृषु ।

तृतीयमस्य वृषभस्य दोहसे दशप्रमतिं जनयन्त योषणः ।। वही, 1.141.2

3 गुहा सन्तं मातरिश्वा मथायति । वही, 1.141.3

4 रथो न यात: शिक्वभिः कृतो द्यामंगेभिररुषेभिरीयते ।

आदस्य ते कृष्णासो दक्षि सूरयः शूरत्येव त्वेषथादीषते वयः ।। वही, 8

5 त्वमग्ने शशमानाय सुन्वते रत्नं यविष्ठ देवतातिमिन्वसि ।।

तं त्वा नु नव्यं सहसो युवन्वयं भगं न कारे महिरत्न धीमहि ।। वही, 10

5 उत नः सुद्योत्मा जीराश्वो होता मन्द्रः शृणवच्चन्द्ररथः ।।

स नो नेषन्नेषतमैरमूरोऽग्निर्वामं सुवितं वस्यो अच्छ ।। वही, 12


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परमव्योम में जायमान होता हुआ मातरिश्वा के लिए आविर्भूत1 होता है। वह जिस अग्नि को जानना चाहता है उसी में गतिशीलता, ज्ञानशक्ति और इच्छाशक्ति है तथा वही वाज, शवस् का पति है जिसमें अनेक आशाएँ और इच्छाएँ प्रादुर्भूत2 होती हैं।

स्वः रूप अश्व :

इससे स्पष्ट होता है कि दीर्घतमस् ऋषि जिस ज्योति अथवा अग्नि को खोज रहा है वह हमारी आन्तरिक ज्योति है जिसमें वे सभी इष्टयः और मतयः विद्यमान हैं जो मनुष्यरथ नामक चेतना रथ को ले जाने में समर्थ हैं। इसी चेतना को वह ऋग्वेद 1.146 में ‘त्रिमूर्धानं सप्तरश्मिमनूनमग्निम्3 तथा अन्यत्र सिन्धु से आविर्भूत होने वाला सूर्य4 कहता है । इसी अग्नि से ऋषि बड़े कातरस्वर में कहता है, ‘हे अग्ने ! तेरी जिन पालक किरणों ने मुझे अंधे को दुरित से बचाया उन विश्ववेत्ता सुकृत किरणों की भी तुम रक्षा करते रहो जिससे कि शत्रु उनको नष्ट5 न कर दें । यही अग्नि विशेष भावना शक्ति से युक्त रंग-बिरंगी स्वः नामक ज्योति है जो सभी मानुषी प्रजाओं [मनुष्यासु विक्षु] में निहित6 है। यही भरण-पोषण करने वाला कारु है जिसके कर्मों की उपस्तुति7 सभी स्वीकार करते हैं। इसी को यज्ञीय देवता किसी ‘नित्य सदन में ग्रहण करते हैं और उसको इष्टि (यज्ञ) में उसी प्रकार लाते हैं जिस प्रकार रथ से जुड़े हुए अश्व रथ8 को लाते हैं । ऋग्वेद 1.149.2 में इसी अग्नि के लिए ‘वृषा जीवपीत सर्गः' शब्द आया है अर्थात् वह ऐसा जीव है जिसने अपनी सारी सृष्टि को पी लिया है। इसका तात्पर्य है कि उक्त ज्योति अथवा अग्नि आत्मा का वह रूप है जिसमें सभी इच्छाओं, भावनाओं, क्रियाओं की सृष्टि समाहित हो जाती है। तभी वह आनन्द की वृष्टि करने वाला वृषा होता

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1 स जायमानः परमे व्योमन्याविरग्निरभवन्मातरिश्वने । वही, 1.143.2

2 तं पृच्छता स जगामा स वेद स चिकित्वा ईयते सा न्वीयते ।

तस्मिन्सन्ति प्रशिषस्तस्मिन्निष्टयः स वाजस्य शवसः शुष्मिणस्पतिः ।। वही, 1.145.1

3 वही, 1.146.1

4 सिषासन्तः पर्यपश्यन्त सिन्धुमाविरेभ्यो अभवत्सूर्यो नॄन् । वही, 4

5 ये पायवो मामतेयं ते अग्ने पश्यन्तो अन्धं दुरितादरक्षन् ।

ररक्ष तान्सुकृतो विश्ववेदा दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः ।। वही, 1.147.3

6 नि यं दधुर्मनुष्यासु विक्षु स्वर्ण चित्रं वपुषे विभावम् । वही, 1.148.1

7 जुषन्त विश्वान्यस्य कर्मोपस्तुतिं भरमाणस्य कारोः। वही, 1.148.2

8 नित्ये चिन्नु यं सदने जगृभ्रे प्रशस्तिभिर्दधिरे यज्ञियासः ।

प्र सू नयन्त गृभयन्त इष्टावश्वासो न रथ्यो रारहाणाः ।। वही, 1.148.3


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है । यही अग्नि वर्षणशील मित्रावरुणौ का क्रतु गातु तथा श्रुतं है जिसको वे मनुष्यव्यक्तित्व रूपी गृह (पत्य) में प्राप्त करते हैं।1 यही सूर्य (ऋग्वेद 1.152.5) रूप में कल्पित किए जाने वाला बिना लगाम का अर्वा' कहा जाता है । जो वस्तुतः ‘अचित्त ब्रह्म' है जो मित्र और वरुण में प्राप्त होने वाला अचित्त ब्रह्म ही है--

अनश्वो जातो अनभीशुरर्वा कनिक्रदत्पतयदूर्ध्वसानुः ।

अचित्तं ब्रह्म जुजुषर्युवानः प्र मित्रे धाम वरुणे गृणन्तः ।। ।

इस मन्त्र में उसका अनश्व विशेषण यह संकेत देता है कि उसकी सभी रश्मियाँ ब्रह्म रूपी उसी अश्व में समाहित हो गई हैं, क्योंकि वस्तुतः वह अतिमानसिक चेतना है जिसको अचित्त ब्रह्म कहा जाता है। इसका अर्थ है कि उसमें चित्त की सभी वृत्तियाँ समाहित हो जाने के कारण वह चित्तातीत ज्योति है।

विष्णुरूप अश्व :  

ऋग्वेद 1.154 में दीर्घतमस् उसी आन्तरिक ज्योति की विष्णु रूप में कल्पना करता है जो ॐ रूप में अकेला ही सारे नानात्व को धारण2 करता है। उसी के परमं पद में चेतना की रश्मियाँ रूपी सभी गाएँ3 समाहित हो जाती हैं। वही सारी नानात्वमयी सृष्टि की वर्षा करने वाला है, इसीलिए उसको वृषा4 भी कहा जाता है । इस विष्णु के जो तीन पद कहे जाते हैं, त्री पूर्णा मधुना पदानि (ऋ. 1.154.4), वे ही पद ऋग्वेद 1.155 में इन्द्र के अवर, पर और तृतीय नाम से कहे गए हैं जिन्हें वह अपने पिता (विष्णु ?) से प्राप्त करता है। इन्हीं तीनों का उल्लेख अगले दो मन्त्रों6 में भी, त्रिभिः विगामभिः तथा तीन क्रमणों के रूप में किया गया है । अगले मन्त्र में उसको बृहत् शरीर वाला ‘युवा अकुमार' कह कर कालात्मक महाविष्णु के रूप में चित्रित7 किया गया है।

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1 अध क्रतुं विदतं गातुमर्चत उत श्रुतं वृषणा पस्त्यावतः । ऋ. 1.151.2

2 य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा । वही, 1.154.4

3 ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः ।।  

अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि ।। वही, 6

4 वही, 6

5 दधाति पुत्रोऽवरं परं पितुर्नाम तृतीयमधि रोचने दिवः । वही, 1.155.3

6 य: पार्थिवानि त्रिभिरिद्विगामभिरुरु क्रमिष्टोरुगायाय जीवसे । वही, 4

- द्वे इदस्य क्रमणे स्वर्दृशोऽभिख्याय मर्त्यो भुरण्यति ।

तृतीयमस्य नकिरा दधर्षति वयश्चन पतयन्तः पतत्रिणः ।। वही, 5

7 बृहच्छरीरो विभिमान ऋक्वभिर्युवाकुमारः प्रत्येत्याहवम् । वही, 6 ।


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ऋग्वेद 1.156 में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि दीर्घतमस् ने अभी तक जिस ज्योति का वर्णन किया उसे विष्णु ही कहा जा सकता है। क्योंकि वह पूर्व्य  और नवीय1 भेद से स्वयं ॐ ही है। यही ऊँ अपने पूर्व्य रूप में ऋत का गर्भ भी कहा जाता है जिसकी सेवा वरुण, अश्विनौ और मरुतः2 करते हैं। ऋग्वेद 1.157 में अश्विनौ से प्रार्थना की गई है कि वे अपने रथ को जोड़ें और सविता देव एक पृथक् जगत् को उत्पन्न करें क्योंकि अब अग्नि उद्बुद्ध हो गई, सूर्य का उदय हो गया तथा चन्द्रा उषा भी अपनी किरणों द्वारा आविर्भूत हो चुकी है-- अबोध्यग्निर्ज्म उदेति सूर्यो व्युषाश्चन्द्रा मह्यावो अर्चिषा।  

आयुक्षातामश्विना यातवे रथं प्रासावीद्देवः सविता जगत्पृथक् ।।

अश्विनौ का यह रथ, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मनुष्यरथ है । यहाँ इसको वर्षणशील तथा क्षत्र रथ कहा गया है जिसे अश्विनौ घृत और मधु3 से सींचते हैं। यह त्रिचक्र, मधुमान् जीराश्व, त्रिबन्धुर, मघवा तथा विश्व सौभग रथ है जो मनुष्य के द्विपद् और चतुष्पद दोनों स्तरों के लिए शं प्रदान करता है । ऋग्वेद 1.159(4) में इसी ज्योतिर्मय मनुष्य व्यक्तित्व (रथ) को प्रजा का ‘उरु अमृतं' तथा अद्वैत का ‘सत्यं पदं तथा ‘सवितुः वरेण्यं तत् राधः' भी कहा गया है। ऋग्वेद 1.160.1 में यही ज्योतिर्मय चेतनतत्त्व ‘सूर्यः शुचि' है और यही वह वह्नि है जो सदा ‘शुक्रं पयः'5 दुहता रहता है । ऋग्वेद 1.161. में यही वह व्यष्टिगत आत्मारूपी अश्व है जिसको ऋभु ब्रह्मरूपी अश्व से उत्पन्न करते हैं और उसे रथ से जोड़ कर देवों के पास6 आते हैं। देवों के पास आने का अर्थ है मनुष्य व्यक्तित्व के व्यक्त स्तरीय नानात्व में प्रकट होना।

अश्व की त्रिविधता :

इस व्यष्टिगत अश्व को समष्टिगत ब्रह्माश्व से उत्पन्न करने वाले वस्तुतः तीन भाई हैं जो अलग-अलग ऋभु, विभ्वा तथा वाज नाम से जाने जाते हैं। परन्तु सामूहिक रूप में वे ऋभवः अथवा वाजाः कहे जाते हैं । डॉ. फतहसिंह7 के मतानुसार ये क्रमशः ज्ञानशक्ति, भावनाशक्ति और क्रियाशक्ति के प्रतीक हैं। ये ही तीनों शक्तियाँ उस ब्राह्मी ज्योति को

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1 यः पूर्व्याय वेधसे नवीव से सुमज्जानये विष्णवे ददाशति । वही, 1.156.2

2 तमस्य राजा वरुणस्तमश्विना क्रतु सचन्त मारुतस्य वेधसः । वही, 1.156.4

3 यद्युञ्जाथे वृषणमश्विना रथं घृतेन नो मधुना क्षत्रमुक्षतम् । वही, 1.157.2

4 क्रमश: 1.159.2; 3; 5

5 ऋग्वेद 1.160.3

6 सौधन्वना अश्वादश्वमतक्षत युक्त्वा रथमुप देवां अयातन । वही, 1.161.7

7 वैदिक तत्त्व मञ्जूषा : डॉ. फतहसिंह (मामचन्द बलवीर सिंह देवबन्द) पृ. 12

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व्यष्टिगत अश्व अथवा रथ का रूप प्रदान करती हैं। उसी को अन्यत्र ऋभुओं की उन अनेक उषाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिनके अव्याकृत रूप को एक ऐसी रहस्यमयी पुराणी1 उषा भी कहा जाता है जो ऋभुओं के विधानों को करती है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यह आत्मज्योति ही है जिसे उक्त तीनों के सन्दर्भ से त्रिविध रथ रूप में कल्पित किया जाता है। यह त्रिविधरूप मनुष्य-व्यक्तित्व का व्यक्त स्तर है, जबकि अव्यक्त स्तर पर यह त्रिविधता अव्याकृत रूप में रहती है । इस प्रकार जो ज्योतिर्मय व्यक्तित्व रूपी चमस् पहले एक और अव्याकृत था, उसी को ऋभु बन्धु चतुर्धा2 कर देते हैं।

ऋग्वेद 1.164.1 में3 जिन तीन भाइयों का उल्लेख है, वे सम्भवतः मनुष्य-व्यक्तित्व के वे ही तीन तत्त्व हैं जिनको पहले ऋभु, विभ्वा और वाज कहा गया है। वहीं एक सप्तपुत्र विश्पति का भी उल्लेख है जो इन तीनों का वह अव्याकृत चेतन रूप है जिसे अहंबुद्धि, मन तथा पञ्च ज्ञानेन्द्रियों में विभक्त होने पर सप्त पुत्रों वाला कहा जा सकता है। इसीलिए अगले मन्त्र में एक ऐसे एकचक्र रथ का वर्णन है जिसको वहन करने वाले सात अश्व अथवा सात नामों वाला एक अश्व4 कहा जा सकता है। यही वह सप्तचक्र रथ है जिस पर बैठने वाले सात हैं, जिसे खींचने वाले अश्व भी सात हैं, जिसमें सात बहिनें एकत्र होती हैं और जिनमें गायों के सात नाम भी छिपे5 हुए हैं। 53 मन्त्रों के इस सूक्त में उसी रहस्यमय ज्योतिस्तत्त्व का वर्णन अनेक प्रकार से करते हुए, अन्त में उसी को वह वृषा अश्व बताया गया है जिसका रेतस् सोम है और जो ब्रह्मा तथा वाक् का परमव्योम6 भी कहा जाता है।

ऋग्वेद १.१६३ का अश्व अर्वा :

अस्तु, इस ज्योतिर्मय तत्त्व का अश्व रूप में एक वर्णन दीर्घतमस के 1.163वें सूक्त में भी मिलता है । इस सूक्त में डॉ. प्रतिभा शुक्ला7 ने अश्व

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1 क्व स्विदासां कतमा पुराणी यया विधाना विदधुर्ऋभूणाम् । ऋ. 4.51.6

2 एक चमसं चतुरः कृणोतन तद्वो देवा अब्रुवन्तद्व आगमम् । वही, 1.161.1

3 अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः ।

तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ।।

4 सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा । ऋ. 1.164.2

5 इमं रथमधि ये सप्त तस्थुः सप्तचक्रं सप्त वहन्त्यश्वाः ।।

सप्त स्वसारो अभि सं नवन्ते यत्र गवां निहिता सप्त नाम ।। वही, 3

6 अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतो ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम । वही, 35

7 देखिए : वेदों में हिरण्य का प्रतीकवाद-जोधपुर विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत

शोध-प्रबन्ध ।

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के अव्याकृत रूप में उस हरि को देखा है जिसमें इन्द्र के अनेक हरयः नामक अश्व हरिद्वय में परिणत होने के पश्चात् एक हरियोग में रूपांतरित हो जाते हैं। इसी को हरि नामक निकाम व्रज भी कहा जाता है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि ब्राह्मणग्रन्थों में ‘वज्रो वा अश्वः''1 उक्ति देखने को मिलती है। एक जगह कहा गया है कि यह जो अश्व है, उसी को देवों ने वज्र रूप में देखा । सामान्यतः वज्र इन्द्र का आयुध कहा जाता है; परन्तु स्वयं अश्व3 इन्द्र भी है। जिस प्रकार, हम देख चुके हैं, जो ज्योतिर्मय तत्त्व अश्व कहा गया वही रथ भी कहलाता है। जब अश्व इन्द्र भी है तो इन्द्र के समान अश्व को वज्री4 भी कहा जाता है। इसलिए जहाँ तैत्तिरीयसंहिता5 वज्री अश्व का उल्लेख करती है वहीं काठक संहिता6 ‘वज्री वा अश्वः' कहकर अश्व को ही विकल्प से वज्री इन्द्र मानती प्रतीत होती है । मैत्रायणीसंहिता और कठसंहिता7 के अनुसार जो प्राजापत्य अश्व है वही वज्री है।

अव्यक्त स्तर पर उसी निकामवज्र कहे जाने वाले तत्व को अर्वा, वाजी, पतंग, अश्व, हंसादि अनेक नामों से याद किया जाता है । 'निकाम शब्द का अर्थ है जो विवस्वान् का है क्योंकि दोनों ही मनुष्य-व्यक्तित्व के वासना-रहित स्वरूप की ओर संकेत करते हैं। इसी व्यक्तित्व का स्वरूपनिरूपण ऋग्वेद 1.163 सूक्त में हुआ है क्योंकि वासनारहित व्यक्तित्व ही यम-नियम-संयम की जीवनधारा को प्रवाहित करके संयमशील जीव रूपी ‘यम' को जन्म देता है । यह यम ही उक्त अश्व को देने वाला कहा गया है। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के त्रैत का नाम ‘त्रित है जो अश्व को मनुष्य रूपी रथ से जोड़ता है। अन्नमय तथा प्राणमय कोशों में उलझा हुआ इन्द्रियों का सञ्चालक मनोमय आत्मा रूपी ‘अवर इंद्र' इस अश्व पर बैठने वाला प्रथम अश्वारोही है। इस अश्व की रस्सी को पकड़ने वाला मन8 रूपी ‘गन्धर्व' है । वासनारहित व्यक्तित्व की सभी

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1 माशा 4.3.4.27; 6.3.3.12; 13.1.2.9

1 ततो देवा एतं वज्रं ददृशुः यदश्वम् । माशब्रा 2.1.4.16.

2 इन्द्रो वा अश्वः । शांब्रा 15.4

3 वज्री अश्वः । तैसं 5.1.2.3; 29.8; काठसं 19.2; कसं 29.9

4 वज्री अश्वः । तैसं 5.1.2.6; वज्री वा एष यदश्वः । तैसं 5.1.2.6

5 19.3

6 वज्री वा एष प्राजापत्यो यदश्वो । मैसं 3.1.3

वज्री वा अश्वः प्राजापत्यः । कसं 301

7 माशब्रा 9.4.1.12


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वासनाएँ अन्तमुखी होकर ब्रह्मरूपी सूर्य को समर्पित हो जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप उक्त अश्व प्रादुभूत होता है, इसीलिए कहा जाता है कि इस अश्व को वसुओं ने सूर्य से निष्पन्न किया--

यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ।

गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात्सूरादश्वं वसवो निरतष्ट ।। 1.163.2

अतः इस अश्व को क्या कहा जाए ? यम-नियम-संयम की जीवनधारा के सञ्चालक यम का इसमें योग है, इसलिए इसको यम कह सकते हैं । ब्रह्म रूपी आदित्य से निष्पन्न होने से आदित्य कह सकते हैं तथा उक्त ‘त्रित' नामक गुह्य व्रत के कारण इसको त्रित भी कहा जा सकता है। वह सोम के साथ निकटता से संपृक्त है इसलिए वह हिरण्ययकोश रूपी द्युलोक के त्रिविध बन्धनों से बँधा हुआ है । अतएव कहा गया है कि --

असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन ।

असि सोमेन समया विपृक्त आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि ।। वही, 3

हिरण्ययकोश के इन तीन बन्धनों को परब्रह्म के सत्, चित् और आनन्द पक्ष माना जा सकता है। पर, इसके अतिरिक्त विज्ञानमयकोश और मनोमयकोश में ऋक, यजुः, साम की क्रमशः अव्याकृत और व्याकृत त्रयी को भी अश्व के तीन-तीन बन्धन कह सकते हैं । वेद में कभी-कभी विज्ञानमयकोश को आपः तथा मनोमय कोश को समुद्र भी कहा जाता है । इन तीन प्रकार के बन्धनों के अतिरिक्त अश्व का एक ‘परमं जनित्रम्' भी है जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र से ज्ञात होता है—

त्रीणि त आहुर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रे ।

उतेव मे वरुणश्छन्त्स्यर्वन् यत्रा त आहुः परमं जनित्रम् ।। वही, 4

इस सूक्त में अश्व को निघण्टु में परिगणित, अत्य, अर्वा, वाजी, पतंग, सुपर्ण, हंस आदि अनेक नामों से याद किया गया है क्योंकि जैसे-जैसे ध्यान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे वह ज्योतिर्मय अश्व तथा उसके अंगप्रत्यंग1 प्रकट होते जाते हैं। द्युलोक से अवतरित होते हुए सूर्य (पतंग) का मन द्वारा साक्षात्कार पहले दूर से होता है, उसका शिर स्वच्छ सुन्दर मार्गों से गतिशील होता हुआ ज्ञानचक्षु से दिखाई देता है --

आत्मानं ते मनसारादजानामवो दिवा पतयन्तं पतंगम् ।

शिरो अपश्यं पथिभिः सुगेभिररेणुभिर्जेहमानं पतत्रि ।। वही, 6 

अन्त में उसके उत्तम रूप का दर्शन करके योगी आनन्दभोग करता

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1 इमा ते वाजिन्नवमार्जनानीमा शफानां सनितुर्निधाना ।

अत्रा ते भद्रा रशना अपश्यमृतस्य या अभिरक्षन्ति गोपाः ।। वही, 5


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है तथा साथ ही अपने विविध मनोरथों रूपी ओषधियों को समाप्त कर देता है --

अत्रा ते रूपमुत्तममपश्यं जिगीषमाणमिष आ पदे गोः ।

यदा ते मर्तो अनु भोगमानळादिद्ग्रसिष्ठ ओषधीरजीगः ।। वही, 7

     इस अश्व के पीछे मानव-व्यक्तित्व रूपी रथ, चित्तवृत्तियाँ रूपी गाएँ तथा कामनाओं रूपी कन्याओं का सौन्दर्य चलने लगता है और मरुद्गण उससे मैत्री चाहने लगते हैं तथा दिव्य शक्तियाँ (देवाः) उसके वीर्य का अनुभव करने लगती हैं--

अनु त्वा रथो अनु मर्यो अर्वन्ननु गावोऽनु भगः कनीनाम् । ।

अनु व्रातासस्तव सख्ममीयुरनु देवा ममिरे वीर्यं ते ।। वही, 8 

वासनारहित व्यक्तित्व की समग्र चेतना का प्रतीक होने के कारण, इस अश्व का जो चित्रण किया गया है, उसमें अन्नमय कोश से लेकर हिरण्ययकोश तक की ज्योतियों की झलक मिल जाती है। उसके लिए प्रयुक्त ‘हिरण्यशृङ्ग' विशेषण जहाँ हिरण्ययकोश की ओर संकेत करता है। वहीं ‘अयस्' शब्द अन्नमयकोश को इंगित करता है। ‘मनोजवा अवर इन्द्र मनोमयकोश के जीवात्मा का सूचक है तथा उसको ‘अद्य हवि’ बनाने वाले प्राण रूपी देव प्राणमयकोश का स्मरण कराते हैं

हिरण्यशृङ्गोऽयो अस्य पादा मनोजवा अवर इन्द्र आसीत् ।।  

देवा इदस्य हविरद्यमायन्यो अर्वन्तं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ।। वही, 9

इस समग्र चेतना रूपी अश्व से उदभूत दिव्यभाव, विचार आदि धवल हंसों के समान श्रेणीबद्ध होकर मानस-पटल पर गति करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं--

ईर्मान्तास, सिलिकमध्यमासः सं शूरणासो दिव्यासो अत्याः ।

हंसाइव श्रेणिशो यतन्ते यदाक्षिषुर्दिव्यमज्ममश्वाः ।। वही, 10

इस विचित्र अश्व का ज्योतिर्मय शरीर सभी इन्द्रिय व्यापारों में गतिशील (पतयिष्णु ), उसका चिन्तनशील चित्त वायु के समान वेगवान, उसकी रश्मियाँ रूप शृङ्ग, विविध रूपों में बिखरी हुई, जगत् के विषयारण्यों में विचरण कर रही हैं--

तव शरीरं पतयिष्ण्वर्वन्तव चित्तं वात इव ध्रजीमान् ।

तव शृङ्गाणि विष्ठिता पुरुत्रारण्येषु जर्भुराणा चरन्ति ।। वही, 11 

अवर इन्द्र का अश्व होने के कारण ‘पर इन्द्र' रूपी अज' (अजन्मा) को उसकी नाभि (केन्द्रस्थान) कहा गया है और उसकी अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों के लिए 'कवयः' तथा 'रेभाः' शब्दों का प्रयोग किया गया है--


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उप प्रागाच्छसनं वाज्यर्वा देवद्रीचा मनसा दीध्यानः ।  

अजः पुरो नीयते नाभिरस्यानु पश्चात्कवयो यन्ति रेभाः ।। वही, 12

अन्ततोगत्वा यह अश्व हिरण्ययकोश नामक ‘परमं सधस्थं' में पहुंच जाता है और मानसिक एवं शारीरिक चेतना रूपी माता-पिता तथा विचारों, भावों रूपी अन्य अश्वों एवं प्राण रूपी देवों से एकीभूत होकर, अवर इंद्र रूपी यजमान को वरणीय दैवी सम्पत्ति प्राप्त कराने में सहायक होता है--

 उप प्रागात्परमं यत्सधस्थमर्वाँ अच्छा पितरं मातरं च ।

अद्या देवाञ्जुष्टतमो हि गम्या अथा शास्ते दाशुषे वार्याणि । वही, 13


देवजात सप्ति के रूप में वारी :  

अभी जिस अर्वा अश्व का वर्णन किया गया उसका महान् जन्म स्तुत्य है क्योंकि उसकी गतिशीलता को प्रकट करने के लिए उसे श्येन के पक्षों से तथा हरिण की बाहुओं से युक्त बताया गया है। पक्ष ऊपर उड़ने में सहायक हो सकते हैं जिसका अर्थ है कि यह अर्वा रूपी प्राण ऊर्ध्वमुखी होकर हिरण्ययकोश की ओर जाने की शक्ति रखता है। इसी प्रकार हरिण की बाहू से संकेत मिलता है कि वह सूक्ष्म और स्थूल देहों में भी गति करने वाला है। यह सब मानते हुए, साथ ही उसे मनस्समुद्र अथवा प्राणमय रूपी अन्तरिक्ष से ऊपर उठकर जायमान होता हुआ भी बताया गया है--

यदक्रन्द्रः प्रथमं जायमान उद्यन्त्समुद्रादुत वा पुरीषात् ।  

श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन् ।। ऋ. 1.163.1

इसका अभिप्राय है कि ऋग्वेद 1.163 में वणित अश्व मुख्यतः सूक्ष्म और स्थूल शरीरों में सक्रिय रहने वाली चेतना ही है, यद्यपि उसमें ऊर्ध्वमुखी होने की सम्भावना भी निहित है। इसीलिए इस अश्व पर अधिष्ठित होने वाला अवर इन्द्र कहा गया है। इससे किंचित् भिन्न प्रकार का वर्णन ऋग्वेद 1.162 में मिलता है । डॉ. फतहसिंह1 ने इसके साथ 1.163 का समावेश करते हुए जो वर्णन किया है, उससे स्पष्ट है कि यहाँ अश्व को देवजात, वाजी और सप्ति2 कहा गया है । परब्रह्म रूपी देव से उत्पन्न होने के कारण यह देवजात है। इसी दृष्टि से पहले कहा जा चुका है कि ऋभुओं का अश्व ऐसा है जो कि अन्य ब्रह्मरूपी अश्व से उत्पन्न

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1 वेद-सविता, वर्ष 8, अङ्ग 4, नवम्बर 1987

2 यद्वाजिनो देवजातस्य सप्तेः प्रवक्ष्यामो विदथे वीर्याणि । ऋ. 1.162.1


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किया1 जाता है। ब्रह्म से उत्पन्न होने पर भी उसे सप्ति कहते हैं, क्योंकि वह मनुष्यव्यक्तित्व के अहं बुद्धि, मन और पांच ज्ञानेन्द्रियों के स्तर पर प्रकट होकर अपना पराक्रम दिखाता है । मूलतः यह अश्व अज2 है। अज का यद्यपि रूढ अर्थ बकरा है, तथापि व्युत्पत्ति के अनुसार वह अ-जन्मा परमात्म-ज्योति का द्योतक है। उसे छाग3 भी कहते हैं क्योंकि छ+अग का अर्थ है गतिहीन बच्चा (छ) । प्रथमतः वह अज है; परन्तु ध्यान द्वारा उसकी अनुभूति होना ही उसका जन्म है। जैसे गतिहीन नवजात शिशु स्वयं आगे नहीं चल सकता वैसे ही परमात्मा की यह प्रथम अज अभिव्यक्ति भी स्वतः आगे नहीं बढ़ती। उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है। इस प्रयत्न को करने वाले एक तो क्रियापरक वासनाओं के प्रतीक प्राण होते हैं और दूसरे भावनापरक प्राण होते हैं। क्रियापरक प्राण वसवः हैं जो सूर से अश्व4 को निकालते हैं। भावनापरक प्राण उस अश्व को खण्डखण्ड करके उसे कामक्रोधादि मनोवेगों में बाँटते हैं। आदान-प्रदान में लगे हुए ज्ञानपरक प्राण उन अश्वखण्डों को लेकर प्रज्ञा देवों को दे डालते हैं। इन्हीं तीन प्रकार के प्राणों को क्रमशः वसवः, रुद्राः, आदित्याः कहा जाता है । ये ही त्रिविध प्राण उक्त ऊँ रूपी छाग को आगे बढ़ाते हैं । इस त्रिविध प्रयास को एकीभूत करने वाला त्रित प्राण है । वही इस त्रिधा अश्व को जोड़ने वाला कहा गया है ।

वही आत्मज्योति (त्रित) उक्त ब्रह्मज्योति रूपी अश्व को इन्द्रियों में प्रयुक्त करने के कारण इन्द्र कही जाती है । इंद्रिय-सम्पर्क से कल्पित यह इंद्र ही अश्व का प्रथम सवार माना गया है। यह सवार ‘अवर इंद्र है, कोई दक्ष सवार नहीं । अतः मनस् रूपी गन्धर्व उसकी रशना (रास) पकड़ कर आगे-आगे चलता है । वास्तव में यह ॐ रूपी अश्व का छाग रूप है जिसे अवर इंद्र रूपी वाजी अश्व आगे ले जाता है । वस्तुतः ऋग्वेद 1.162 और 163 में, परमात्मा और आत्मा दोनों को अश्व कहा गया है, क्योंकि दोनों ही नित्य और सनातन होने से अश्व अर्थात् श्वः (कल) रहित हैं। अजन्मा होने से दोनों अज भी कहलाते हैं। साथ ही दोनों ही व्याप्त होने वाले हैं। अतः ‘अश् व्याप्तौ' से भी अश्व शब्द की व्युत्पत्ति की जाती है ।  

दोनों अश्वों में अन्तर यह है कि परमात्मा तो पोषण करने वाला

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1 वही, 1.161.7

2 सुप्राङजो मेम्यद्विश्वरूप इन्द्रापूषणोः प्रियमप्येति पाथः । वही, 1.162.2

3 एष च्छागः पुरो अश्वेन......। वही, 3

4 सूरादश्वं वसवो निरतष्ट । वही, 1.163.2

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अजाश्व पूषा है। ऊँ से उसका वाज नामक आध्यात्मिक बल पाकर जीवात्मा ‘वाजी' अश्व कहलाता है। विश्वे देवाः नामक प्रज्ञानपरक प्राण-देवों के लिए ऊँ रूपी अश्व को हविष्य बनाया जाता है । अतः अश्व का ‘विश्वदेव्य'1 भी नाम है । उक्त आदित्याः, रुद्राः और वसवः नामक तीन मानुष प्राण इस अश्व को चारों ओर ले जाने वाले कहे जाते हैं। यह वास्तव में अ-ज आत्मा द्वारा ही उस अश्व को यज्ञ-रूप में प्राण देवों के लिए प्रस्तुत2 करना है।

ज्ञानपरक, भावनापरक और क्रियापरक प्राणों द्वारा ॐ रूपी अश्व के जिस उपयोग की चर्चा की गई वह वस्तुतः श्रेष्ठतम कर्म' रूप यज्ञ ही तो है। उक्त त्रिविध प्राणों को ही क्रमशः ऋक्, साम और यजुः नामक त्रयी-विद्या कहा गया है जो यज्ञरूप में परिणत होती है- सैषा त्रयी विद्या यज्ञः3। पर जहाँ इस यज्ञ को, समष्टि की दृष्टि से ऊँ रूपी अश्व का यज्ञरूप कह सकते हैं, वहीं व्यष्टि की दृष्टि से वह आत्मरूपी अश्व का भी यज्ञरूप है। यही परमात्म रूपी पुरुष का यज्ञरूप है जो सभी पुरों (शरीरों) में होता है। साथ ही यह आत्मरूपी पुरुष का भी यज्ञ है जिसे एक शरीर में होता हुआ कह सकते हैं।

 परमात्मा रूपी अश्व मनुष्य-व्यक्तित्व में सर्वत्र व्याप्त है । अतः ज्ञान-विवेक का प्राधान्य होने पर श्रेष्ठतम कर्म ही होते हैं। जब उसका प्राधान्य नहीं होता तो जीवात्म-रूपी अश्व अमेध्य और आसुरी होता है। उसे मेध्य करके ही किसी व्यक्तित्व में श्रेष्ठतम कर्मरूप यज्ञ होता है । ध्यान की अवस्था में ज्योतिरूपी उषा की लालिमा इसका प्रमाण है कि यज्ञ हो रहा है। क्योंकि ‘उषा वै मेध्यस्य अश्वस्य शिरः4' के रूप में उषा मेध्य-आत्म-रूपी अश्व का शिर कही गई है। यदि मेध्य अश्व का शिर विद्यमान है तो यज्ञ का आरम्भ हो चुकना भी निश्चित है ।


अमेध्य जीवात्मा ‘अर्वा ।

अश्व है, उसको पकाना5 ही साधना-कर्म है । जब तक वह कच्चा है, तब तक उसमें दुरितों की दुर्गन्ध6 है। उस पर वासनारूपी मक्खी भिन

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1 एषच्छागः पुरो अश्वेन वाजिना पूष्णो भागो नीयते विश्वदेव्य: । वही, 3

2 यद्धविष्यमृतुशो देवयानं त्रिर्मानुषाः पर्यश्वं नयन्ति ।

अत्रा पूष्णः प्रथमो भाग एति यज्ञं देवेभ्यः प्रतिवेदयन्नजः ।। वही, 4

३ माशब्रा 1.1.4. 3

4 तैसं 7.5.25.1; 2

5 ये चार्वते वचनं सम्भरन्ति.....। वही, 6

6 यदूवध्यमुदरस्यापवाति य आमस्य क्रविषो गन्धो अस्ति । वही, 10


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भिनाती1 रहती है। परिपक्व होने पर उस अर्वा अश्व (जीवात्मा) के ओजो-रूप मांस-भिक्षा का जो जन सेवन करते हैं, उनकी समस्त अभिव्यक्तियाँ वांछनीय होती हैं, आचरण श्रेष्ठतम2 होता है। इस साधना की प्राप्ति के लिए अश्व की 34 पसलियों पर एक साथ स्वधिति3 चलानी होगी । ये 34 पसलियाँ हैं भावना, ज्ञान और क्रियाशक्ति के प्रसंग से दस प्राणों के 30 रूप-मन-बुद्धि-चित्त और अहङ्कार का चतुष्टय । ‘स्वधिति का मूलार्थ है स्वरूप का ध्यान अथवा आत्मनिरीक्षण । यही वह छुरी है जो उन पसलियों पर चलेगी । उसके चलने पर अश्व का जो वि-शसन (काटना) होगा उसमें, सभी अंगों के वि-शस्त होने (कटने) पर भी, प्रज्ञान द्वारा वे अंग फिर अछिद्र6 हो जाएँगे । अर्थात् ध्यान करने से जीवात्मा रूपी अश्व वस्तुतः निर्माणकर्ता त्वष्टा' बन जाता है। ध्यान रूपी छुरी उसे काटती-छाँटती है। ध्यान का निश्चित समय 'ऋतु' है । प्राणापानात्मक प्राणायाम उसका नियमन करते हैं। निश्चित समय पर जिन-जिन अंगों का निरीक्षण ध्यान द्वारा होता है वे ज्ञानाग्नि4 में पड़ कर शुद्ध होने लगते हैं। उक्त विशसन से अश्व मरता नहीं है, क्योंकि ध्यान के अभ्यास द्वारा परमात्मा के सर्वत्र व्याप्त हो जाने से जीवात्मा-रूपी अश्व स्वयं परमात्मरूप हो जाता है।

अतः वह न मरता है और न ही उसे कोई चोट ही पहुंचती है। अपितु सुमार्गों पर चलकर प्रकाश-अंधकार, अहोरात्र रूप दो चितकबरे 'हरी' (अश्वद्वय) एकमात्र वाजी जीवात्मा में परिणत होकर हिरण्ययकोश के आनन्द-रस-रूप रासभ से जुड़5 जाते हैं। रासभ का यौगिक अर्थ ‘रास-भ' अर्थात् रसात्मक आभा वाला है। ध्यान में जब साँस का आनाजाना (प्राणापान) बन्द हो जाता है तो जीवात्म-रूप वाजी हिरण्ययकोश के आनन्दरस में निमग्न हो जाता है। ऐसा होने से जीवात्म रूपी पुरुष के प्राणरूप सभी पुत्रों को एक ऐसा धन मिल जाता है जो व्यक्ति के

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1 यदश्वस्य क्रविषो मक्षिकाश.....। वही, 9

2 ये वाजिनं परिपश्यन्ति पक्वं य ईमाहुः सुरभिर्निहरेति ।

ये चार्वतो मांसभिक्षामुपासत उतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु ।। वही, 12

3 चतुस्त्रिंशद्वाजिनो देवबन्धोर्वङक्रीरश्वस्य स्वधितिः समेति ।

अच्छिद्रा गात्रा वयुना कृणोत परुष्परुरनुघुष्या वि शस्त ।। वही, 18

4 एकस्त्वष्टुरश्वस्या विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथ ऋतुः ।

या ते गात्राणामृतुथा कृणोमि ताता पिण्डानां प्र जुहोम्यग्नौ ।। वही, 19

5 न वा उ एतन्म्रियसे न रिष्यसि देवाँ इदेषि पथिभिः सुगेभिः ।

हरी ते युञ्जा पृषती अभूतामुपास्थाद्वाजी धुरि रासभस्य ।। वही, 21


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आन्तरिक विश्व का पोषक होता है। उसमें ब्रह्म-ज्ञान रूप सुन्दर गौ और ब्रह्मभावना (ॐ) रूप सुन्दर अश्व का समावेश होता है । इस प्रकार ॐ रूप अश्व रूपी मनुष्य व्यक्तित्व हविष्यमान् होकर हमें क्षत्र-बल प्राप्त कराता है और अ-दिति (अ-खण्डित) होकर हमें निष्पाप (अनागाः)1 करता है।


वाजी-अर्वा :

ऐसा होने से पूर्व हमारे अर्वा व्यक्तित्व को वाजी होना पड़ता है। वाजी होने के लिए अर्वा में वाज नामक बल का आधान2 आवश्यक है। यूँ तो ‘अन्नं वै वाजः' कह कर तैत्तिरीय-संहिता3 अन्न मात्र को वाज कहती है; परन्तु जब वेद में ‘वाजे वाजे हवामहे'4 जैसी उक्तियाँ देखने में आती हैं तो स्पष्ट होता है कि यह वाज नामक अन्न अनेक प्रकार का होता है । अत: मैत्रायणी-संहिता5 सोम को वाज ही नहीं, अपितु वाजपेय भी कहती है जिसको पीकर मनुष्य-व्यक्तित्व रूपी अर्वा वाजी6 बनता है । अतः जब दीर्घतमस् वाजी-अर्वा7 के विशसन का उल्लेख करता है तो यह भी कहता है कि ऐसा करने से अजन्मा ब्रह्म सामने लाया जाता है और उसके पीछे कवि2 चलते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि वाजी होने पर अर्वा-व्यक्तित्व में अद्भुत दिव्यता आ जाती है । इसीलिए मन्त्र में उसे देवगामी (देवद्रीचा) मन द्वारा ध्यान करता हुआ बताया गया है। यह देव निःसन्देह ब्रह्म है जिसे अज' कहा गया है।

यह वाजी-अश्व ही अन्यत्र दधिक्रा नाम से एक दधि बिखेरने वाला घोड़ा कहा जाता है। ऋग्वेद 4.37.8 में9 जिस अश्व को ‘वाजाः' मघत्व के लिए ‘आशसन' करने वाला कहा गया है वह यही वाजी अश्व है।

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1 सुगव्यं नो वाजी स्वश्व्यं पुंसः पुत्राँ उत विश्वापुषं रयिम् ।

अनागास्त्वं नो अदितिः कृणोतु क्षत्रं नो अश्वो वनतां हविष्मान् ।। वही, 22

2 तु. क. वाजमर्वत्सु (अदधात्) तैब्रा 1.2.8.1; काठसं 2.6; कसं 1.19

3 5.1.2.1

4 तु.क. ऋ. 1.30.7; 138.3; 6.61.12; 7.38.3; तैसं 5.1.2.1 इत्यादि   

5 मैसं 4.5.4.5; 1.11.5.7 पाजपेय तु. क. तै ब्रा 1.3.2.3

6 सोमो वै वाजपेयः । यो वै सोमं वाजपेयं वेद वाज्येवैनं पीत्वा भवति । आस्य वाजी जायते, इति ।। तै ब्रा 1.3.2.4

7 उप प्रागाच्छसनं  वाज्यर्वा देवद्रीचा मनसा दीध्यानः । ऋ. 1.163.12

8 वही, 1.163.12

9 तं नो वाजा ऋभुक्षण इन्द्र नासत्या रयिम्।

समश्वं चर्षणिभ्य आ पुरु शस्त मघत्तये।।


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विभिन्न प्रकार का वाज जैसे ही मनुष्यव्यक्तित्व में बढ़ता चला जाता है, वैसे ही 'म' नामक विष को हनन करने वाला मेधतत्त्व आता चला जाता है और अर्वा अश्व वाजी बनता चला जाता है। वास्तव में प्रत्येक वाज योग-साधना का एक बढ़ता हुआ कदम है जिसके द्वारा हम परमेश्वर रूपी इन्द्र की अधिकाधिक मैत्री और सहायता के अधिकारी1 होते जाते हैं। इस योग-साधना में वाजाः और ऋभवः तथा विभ्वः कही जाने वाली पूर्वोक्त शक्तियाँ ही विशेष रूप से सहायक होती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि वाज, विभ्वा और ऋभु जिस व्यक्तित्व की रक्षा करते हैं, वह ही वाजी2 अर्वा होता है, वही वाग्मी ऋषि होता है और वह ही अस्ता शूर होता है।  

सब वाजों में एक ऐसा चित्रविचित्र वाज भी है जिसको ये शक्तियाँ दे सकती हैं और जिसको प्राप्त करके मनुष्य व्यक्तित्व दूसरों का अतिक्रमण2 करके ज्ञान प्राप्त करता है। यह वाज के क्षेत्र में ‘वाजिन्तमं युजं' तथा 'अश्विनं रयिं4 नामक स्थिति है जो इन्द्रयुक्त होने के कारण सदा आहवनीय समझी जाती है। योग की इसी सर्वोत्कृष्ट अनुभूति को ॐ नामक दधिक्रा वाजी कहा गया है जिसके विशेषणों में श्येन तथा आशु5 जैसे अश्वनामों का भी समावेश हुआ मिलता है । ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल में पूरे तीन सूक्तों में (4.38-40) इसी दधिक्रा की चर्चा है। एक तेज तर्रार घोड़े के रूप में स्थित दधिक्रा सूर्य के समान ज्योति को फैलाने वाला, श्येनसदृश झपट्टा मारने वाला, अग्नितुल्य देदीप्यमान और अपनी अभिव्यक्तियों को मधु-सम्पृक्त करने वाला कहा गया6 है। यह चारों ओर सभी मोर्चों पर युद्ध करता है, दुराचारी (दुर्वृत्त) के लिए वह भीम है, अपराधी (अभियुक्त) उससे डरते हैं पर यतियों के भीतर वह एक ऐसी गति पैदा करता है जिससे दोनों भौंहों के ऊपर रेणु ऋञ्जन्’ होने लगता है । ध्यानस्थ यति जब अपने शिरोभाग में एक अनुरणन ध्वनि के सहित एक स्पन्दन-सा अनुभव करता है, उसी को यहाँ रेणुरञ्जन कहा गया है।

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1 योगेयोगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे । सखाय इन्द्रमूतये । ऋ. 1.30.7

2 स वाज्यर्वा स ऋषिर्वचस्यया स शूरो अस्ता पृतनासु दुष्टरः ।   

स रायस्पोषं स सुवीर्यं दधे यं वाजो विभ्वाँ ऋभवो यमाविषुः ।। वही, 4.36.6

3 येन वयं चितयेमात्यन्यान्तं वाजं चित्रमृभवो ददा नः । वही, 4.36.9

4 ऋभुमृभुक्षणो रयिं वाजे वाजिन्तमं युजम् ।   

इन्द्रस्वन्तं हवामहे सदासातममश्विनम् ।। वही, 4.37.5

5 उत वाजिनं पुरुनिष्षिध्वानं दधिक्रामु ददथुर्विश्वकृष्टिम् ।

ऋजिप्यं श्येनं प्रुषितप्सुमाशुं चर्कृत्यमर्यो नृपतिं न शूरम् ।। वही, 4.38.2

6 यहाँ दधिक्रा सूक्तों की व्याख्या डॉ. फतहसिह के लेख से ली गई है जो ‘वेद-सविता' 87, अगस्त मास के अङ्क में प्रकाशित हुआ था।


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इससे स्पष्ट है कि यह दधिक्रा अश्व कोई हाडमास का घोड़ा नहीं । पहले सूक्त में ‘दधिक्रा उँ” ददथुर्विश्वकृष्टिम्' कह कर उस अश्व को ऊँ नामक विश्वकृष्टि बताया है। दूसरे में दधिक्राम् उ सूदनं मर्त्याय2 द्वारा उसे मनुष्य के लिए प्रेरक कहा गया है और तीसरे सूक्त में तो मानो उसे विराट् रूप ही दे दिया गया है । सम्बन्धित मन्त्र इस प्रकार है--

दधिक्राव्ण इदु नु चर्किराम विश्वा इन्मामुषसः सूदयन्तु ।

अपामग्नेरुषसः सूर्यस्य बृहस्पतेरांगिरसस्य जिष्णोः ।। ऋ. 4.40.10

इस मन्त्र में आपः, अग्नि, उषा, सूर्य और विजयी आंगिरस बृहस्पति को दधिक्रावा की ॐ ज्योति को बिखेरने वाले माना गया है। प्रार्थना है कि इन सबकी जो उषाएँ हैं वे हमें प्रेरित करें, हम दधिक्रावा के ऊँ को बिखेर रहे हैं।

इस स्थिति को प्राप्त करने के विषय में डॉ. फतहसिंह का कहना है कि ब्रह्म-भावना के साथ ओंकार का जप करने से हमारी ज्ञानशक्ति, भावनाशक्ति और क्रियाशक्ति का कायापलट हो जाता है। और उनको वैदिक शब्दावली में क्रमशः ऋभु, विभ्वा और वाज कहा जाता है। इन तीनों का  सामूहिक रूप से वाजाः अथवा ऋभवः नाम भी है। यूँ तो ज्ञान, भावना और क्रिया सभी में होती हैं, परन्तु सामान्यजन में ये शक्तियाँ क्षणभंगुर होती हैं जो ऊँ रूपी ज्योति की किरणें बिखेरने में समर्थ नहीं होतीं। जब वे समर्थ होती हैं तो उनमें अमरत्व का प्रादुर्भाव हो जाता है । ओंकार के जप द्वारा मनुष्य के भीतर शक्ति का जो उत्थान या उभार होता है, उसे वेद में उक्थ कहते हैं। यह उत्थान प्रथम तो शारीरिक स्तर पर होता है, उसके पश्चात् ध्यान द्वारा मन का ऊर्ध्वमुखी होते जाना और उसके फलस्वरूप आन्तरिक चेतना सिन्धु से शब्द और प्रकाश की किरणों को उभारते हुए मुदिता, मधुरता, करुणा एवं शान्ति का प्रसार होता है। ये ही आध्यात्मिक उषाएँ हैं, किरणें हैं। इन किरणों का बिखराव जिस ब्राह्मी चेतनासिन्धु से होता है, उसी को ऋभुओं की प्रथमा उषा कहा जाता है जो मनुष्य की ज्ञान शक्ति, भावनाशक्ति और क्रियाशक्ति का कायापलट कर देती है। इसके फलस्वरूप जो शुभ्र ज्योति अन्तःकरण में फैल जाती है, उसी को वेद में दधि कहा जाता है। इसी दधि को बिखेरने के कारण उक्त अश्व को दधिक्रा कहा जाता है । यही वह ज्योति है जिसकी खोज में अंधा दीर्घतमस् वेद के उक्त विभिन्न सूक्तों के माध्यम से माँग प्रस्तुत करता रहता है।

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1 ऋ. 4.3 8.2

2 वही, 4.39.5



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