दशम अध्याय

उपसंहार

अब तक अश्व के विषय में नव अध्यायों में जो विवेचन हुआ है, उसका सिंहावलोकन करना तथा अन्तिम निष्कर्ष प्रस्तुत करना इस अध्याय का लक्ष्य है। जैसा कि समस्या का प्रस्तुतीकरण करते हुए बताया गया है कि वैदिक अश्व की कल्पना सर्वथा अलौकिक प्रतीत होती है। उसके सींग हैं जो लौकिक अश्व में कभी नहीं होते। इसके अतिरिक्त वैदिक अश्व के शृङ्ग, केश, कक्ष और अक्ष हिरण्य के , उसके पाद तथा अक्ष अयन के हैं। उसके पक्ष श्येन के और भुजाएँ हरिण की हैं । उसे देवजात, देवयान तथा देवबन्धु कहा जाता है एवं उसका समीकरण त्वष्टा, अदिति, यम, आदित्य, त्रित तथा वरुण से किया जाता है । इन्द्र, सोम तथा अग्नि में से प्रत्येक को अश्व कहा जाता है । साथ ही इन्द्र अश्वपति, सोम अश्वविद् तथा उषा अश्वदा है । वैदिक अश्व को वायु अथवा मनु युक्त कर सकते हैं, मनुष्य नहीं । इसी प्रकार वैदिक अश्व की लोकोत्तरता उसके विभिन्न कार्यों से भी सिद्ध होती है ।  

     अश्व की इस लोकोत्तरता को समझने के लिए, इसी अध्याय में आध्यात्मिक दृष्टि अपनाने की सम्भावना व्यक्त की गई है । इस प्रसंग में अश्व का मनु और मन से सम्बद्ध होना तथा प्रमति अथवा प्रमतिरूपी उषा को अश्वावती कहना अश्व की आध्यात्मिकता का सूचक है। इसी अश्व का शिर जब दध्यङ अथर्वण के लगाया जाता है तो अश्विनौ को मधुविद्या का उपदेश करता है । इसी मधुविद्या को प्रकारान्तर से यज्ञशिर देववेद भी कहा गया है। इसी का अभिप्राय है कि अश्व-शिर से दध्यङ जिस विद्या का का उपदेश करते हैं, वह कोई दिव्यज्ञान है ।

     इस सामान्य परिचय से ही वैदिक अश्व की रहस्यात्मकता स्पष्ट है । अतः आगे के अध्यायों में उसकी अलौकिकता ध्यान में रखते हुए, वैदिक अश्व के प्रतीकार्थ को खोजने का प्रयास किया गया है। दूसरे अध्याय में वृषा अश्व की चर्चा की गई है । वृषा अश्व मूलतः पर्जन्य है; परन्तु वेद में कोई साधारण मेघ नहीं है, यद्यपि जब पर्जन्य वेद में वृष्टिमान कहा जाता है तो ऐसा ही प्रतीत होता है । पर्जन्य वस्तुतः योग की घर्म मेघ समाधि में सच्चिदानन्दात्मक वृष्टि करने वाला रहस्यमय अश्व है । इस बात की पुष्टि पर्जन्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए की गई है । पर्जन्य में इन्द्र, अग्नि तथा सोम तीनों का समावेश है। वशा को पर्जन्य पत्नी माना गया है, वशा स्वयं एक ऐसी रहस्यमयी गौ है जिसके प्रतिग्रहण के लिए पूर्वोक्त यज्ञशिर, मधुविद्या अथवा देवविद्या का ज्ञान आवश्यक माना गया है। यज्ञशिर सोम विचक्षण कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि यज्ञशिर, मधुविद्या अथवा देवविद्या वस्तुतः सोमरूपी आनन्दतत्त्व का ज्ञान है। वशा देवी जिस त्रिविध सोम को तीन पात्रों में उडेलती है वह मनोमय, प्राणमय तथा अन्नमयकोशों में प्रवाहित होने वाला उसी आनन्दमय कोश का आनन्द रस रूपी सोम है जिसमें आत्मन्वद् ब्रह्मरूपी अथर्वा दीक्षित होकर बैठता कहा जाता है । इसी ब्रह्म की परावाक् त्रयीविद्या वा त्रिवेदमयी वाक होकर मनोमय, प्राणमय, अन्नमय कोशों में, त्रिविध सोम होकर जाती है। यह मूल वाक् अथवा वेद ही वह वशा नामक गौ है जिसके जायमाना तथा जाता कह कर दो रूप बताए गए हैं । ब्रह्म को इसी वशा का वशी अथवा हुन्धु कहा गया है । वशा ब्रह्म की सच्चिदानन्दमयी शक्ति है जो अपने जायमाना रूप में वर्षणशील ब्रह्म पर्जन्य की पत्नी बनती है और अपनी जाता अवस्था में अनेक भावनाओं, विचारों, इच्छाओं, क्रियाओं आदि के रूप में वशा की अनेकतामयी सृष्टि अथवा वृष्टि कही जाती है ।

     वृषण अश्व के सम्बन्ध से ही दोनों अश्विनौ की कल्पना की गई है। अश्विनौ का साधारण अर्थ अश्वारोही अथवा अश्व वाला होता है । हिरण्ययकोश का ब्रह्म अश्व है जो विज्ञानमय कोश तक इस ब्रह्म चेतना के जो पराक् और अर्वाक् गति से उन्मन तथा समन आदि द्विविध रूप मिलते हैं, उन्हीं को अश्विनौ कहा गया है। वे ही ब्रह्म चेतना रूपी अग्नि का मन्थन करने वाली दो हिरण्ययी अरणी कहे गए हैं। इन्हीं दोनों को कभी-कभी दो वाजी तथा वृषा भी कहा जाता है। ये वस्तुतः अश्विनौ की दो अवस्थाएँ हैं जो वाजी रूप में सुरा से सम्बन्धित हैं और वृषा रूप में मधु से । अन्नमयकोश अश्व का अयस्मय शफ है। इस शफ से जिन शतकुम्भों का मधुसिञ्चन किया जाता है उनमें त्रिविध मस्तिष्क सहित मेरुदण्ड के 33 रूपों के अतिरिक्त इन सबकी समष्टि का महातन्तु भी सम्मिलित किया जाता है । इन शतकुम्भों से वाजी अश्व तथा वृषा अश्व के प्रसंग द्वारा मनुष्य-व्यक्तित्व के व्यक्त एवं अव्यक्त स्तर पर ब्रह्मानन्द रूपी रस के दो भिन्न रूप कल्पित किए गए हैं । काठकसंहिता सोम को इस दृष्टि से अन्न और सुरा अथवा तेज और सुरा मानती है । कर्मकाण्ड में सोमग्रहों और सुराग्रहों को एक साथ ग्रहण किया जाता है तो इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म और आत्मा दोनों के तेज का सहस्रवण होता है । इस दृष्टि से पुरुष रूपी अश्व को सहस्र की प्रतिमा कहा जाता है। 

     यद्यपि अश्विनौ का जिस ब्रह्म रूपी अश्व से सम्बन्ध है, वह श्वेत अश्व एक है; परन्तु 99 वाजों से युक्त होने से वाजी, क्रियाशील, हव्य, मनोभुव तथा अपने सखाओं को गतिशील करने वाला हो जाता है । ये 99 वाज पूर्वोक्त 99 तन्तुओं में प्रवाहित बल है जिनके प्रसंग से ही अश्व की अनेकरूपता कल्पित करके उसे अश्वाः, श्येनाः, अत्याः, वृषणा: आदि बहुवचनान्त नाम दिए जाते हैं । अश्व के 99 रूपों में जब उसका मूल रूप सम्मिलित किया जाता है तब उनकी संख्या सौ बताई जाती है । ये सु नामक ब्रह्म ज्योति से युक्त होने के कारण सुयुज कहे जाते हैं। इन्हीं को विपश्चित् तथा स्वराज् प्राण भी कहते हैं । अतः इन अश्वों को ज्योतिर्मय प्राण कहा जा सकता है जो मनुष्य के सौ में प्रकाश किया करते हैं। दूसरे शब्दों में, जो अश्विनौ के मूल अश्व के रूप में देखा गया है, वह वस्तुतः मूल प्राण है जो अनेकरूपता ग्रहण करके श्येनाः, हयाः, हंसासः, अत्याः आदि बहुवचनान्त नाम ग्रहण करता है । इस बात की पुष्टि में तैत्तिरीय आरण्यक प्राण को ब्रह्म कहता है और अन्यत्र भी ‘प्राणो वै ब्रह्म' की उक्ति प्राप्त होती है। शतपथ ब्राह्मण में ‘प्राणो वै ब्रह्म पूर्व्यम' कहकर यह संकेत दे दिया है कि पूर्व्यम्' से पृथक एक नव्यम्' रूप भी है जिसे ही प्राणो वै सम्राट् परमं ब्रह्म कहा गया है।

     इस दृष्टि से ब्राह्मण ग्रन्थ जहाँ ‘प्राणो वै हरिः' कहकर मूल अश्व की ओर संकेत करते हैं, वहीं उनके अनेक रूपों को हरयः' कहा गया है। यह मूल हरि अथवा अश्व ही वृषा है। इसलिए अथर्ववेद के प्राण सूक्त में वर्षणशील प्राण का वर्णन प्राप्त होता है जहाँ प्राण को मेघ के समान गर्जने वाला तथा सबके लिए आनन्द-वृष्टि करने वाला और वर्षा द्वारा आयु वृद्धि तथा सुगन्धि देने वाला कहा गया है। प्राण के लिए सुपर्ण, हंस, श्येन आदि अश्व नामों का भी प्रयोग हुआ है।

     शोध-प्रबन्ध के तीसरे अध्याय में अश्वों को रथ्याः अथवा रथ्यासः कहे जाने पर विचार किया गया है। ये नाम यह संकेत देते हैं कि वैदिक अश्व का सम्बन्ध लौकिक अश्व के साथ अत्यन्त घनिष्ठ है । अनेक प्रकार के देवरथों को ये अश्व खींचते हैं । विभिन्न देवों के सन्दर्भ में ये अश्व अलग-अलग नाम ग्रहण करते हैं । सूर्य के अश्व का नाम एतश अथवा हरित है । इन्द्र के रथ को दो हरि खींचते हैं; परन्तु कहीं-कहीं अनेक हरियों का भी उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार अग्नि का रोहित, अश्विनौ के रासभौ, पूषा के अज, मरुतों के प्रसत्यः, उषाओं के अरुण्यः, सविता के श्यावाः, बृहस्पति के विश्वरूपा, वायु के नियुत नामक अश्व विशेष बतलाए गए हैं। इन नामों में से एतश ही ऐसा नाम है जो निघण्टु के अश्व नामों में परिगणित है। ‘दधिक्रा' नामक अश्व भी तीव्रगति से रथ को पृथक पंक्ति में ले जाता है। दधिक्रा निघण्टु की सूची में है ।

     अश्व से सम्बन्धित जो रथ है उसकी भी वेद में चर्चा मिलती है । कहीं एक-चक्र में सप्त अश्व भी जोड़े जाते हैं। साथ ही, यह भी कहा जाता है कि एक ही अश्व है जिसके सात नाम हैं । इस रथ के चक्र में तीन नाभियाँ हैं जहाँ विश्वभुवन अधिष्ठित कहे जाते हैं। इस रथ पर कोई सात बैठे हुए हैं। बताया गया है कि वह सप्त चक्र रथ है जिसे सात ही घोड़े खींचते हैं। यह रथ मनुष्य रथ है जिसकी व्याख्या ऋग्वेद के निम्नलिखित मन्त्र के आधार पर की जा सकती है

प्राता रथो नवो योजि सस्निश्चतुर्युगस्त्रिकशः सप्तरश्मिः ।

दशारित्रो मनुष्यः स्वर्षाः स इष्टिभिर्मतिभि रंह्यो भूत् ।। (2.8.1)

     यह सप्तरश्मि रथ वही है जिसको पहले सप्तचक्र कहा गया है जिसे सप्त अश्व वा सप्त नाम वाला एक अश्व वहन करता है । इससे  भिन्न एक पूर्वस्थ का उल्लेख है जिसमें यथार्थ ज्ञान, सम्यक अभिव्यक्ति एवं पूर्ण पोषण के साधन बनाने वाली ऐसी सम्भावनाएँ निहित हैं जिनके प्रकटीकरण द्वारा जीवन को महान् रमणीय बनाने के लिए उस रथ पर सत्य सत्त्व इन्द्र को आसीन होने हेतु आमन्त्रित किया जाता है क्योंकि मरुद्गण सहित इन्द्र ही इस रथ को निर्विघ्न उपायों द्वारा वाञ्छनीय दिशा दे सकता है । यह रथ अपने सहज रूपों में पीछे रहने वाला रथ है  जिसे आगे लाने का काम इन्द्र ही कर सकता है । अत: इन्द्र से प्रार्थना है-'हे इन्द्र ! हमारे पिछड़े हुए रथ को अग्रगामी करो ।' इन्द्र, मित्र, वरुण, मरुत्, अदिति तथा ‘सुदानवः वसवः' से बार-बार यही निवेदन किया जाता है कि वे इस रथ को संकट से बचाएँ और समस्त पापों से दूर रखें ।।

     मनुष्य-व्यक्तित्व रूपी पूर्वोक्त रथ जब अपनी बहुमूल्य सम्भावनाओं को प्रकट करने लगता है, तभी उसको नव-मनुष्य रथ कहा जाता है जिसके वहन करने वाले रथों को इष्टियाँ तथा मतियाँ बताया गया है । उक्त सम्भावनाओं का प्रकटीकरण ही वह प्रात:काल है जिसमें उसकी यात्रा प्रारम्भ होती है। यह प्रात: साधक की अति मानसिक यात्रा का शुभारम्भ है। इस अवस्था का साधक ‘प्रातरित्वा' कहलाता है। प्रातरित्वा साधक की पूर्वावस्था का नाम ही दीर्घतमा है। प्रातः के लिए दीर्घतमा की इच्छा जब साधनावशात् इष्टि का रूप धारण करती है तभी उक्त ‘प्रातरित्वा' साधक उत्पन्न होता है । अतः ‘प्रातरित्वा' साधक को दीर्घतमा का इष्टि कहते हैं। प्रातरित्वा साधक इष्टि (साधना) द्वारा अनेक सिद्धियों को हस्तगत कर लेता है जिन्हें वेद में गावः, अश्वाः, हिरण्यानि, मयोभुवः हिन्दवाः, घृतस्य धारा आदि वसु कहा जाता है। इन्हीं वसुओं से युक्त वसुमान् रथ द्वारा साधक सोमपान का अधिकारी होता है । ये सभी सिद्धियाँ जन-जन के हिरण्ययकोश रूपी सिन्धु में रहने वाले उस ब्रह्म रूपी राजा द्वारा प्रदत्त होती हैं जो भावगम्य होने से भाव्य अथवा भावयव्य कहा जाता है । इष्टि के पुत्र होने का सौभाग्य साधक को तभी मिलता है जब उक्त भावयव्य, साधक को साधना की दृष्टि से पूर्णतया प्रौढ़ समझता है ।

प्रौढ़ साधना का ही परिणाम है कि वह प्रातः जब नव-मनुष्य-रथ यात्रा के लिए अग्रसर होता है । इस प्रातः से सम्बन्धित वही त्रिचक्र रथ है जिस पर अश्विनौ सूर्या का वहन करते हैं । इस प्रातः का संकेत पदपाठकार प्रातरिति कहकर करते हैं। मनुष्य-व्यक्तित्व रूपी इस रथ को जिन युगों के सन्दर्भ से चतुयुग कहा जाता है, उन्हें अन्यत्र परयुग, उत्तरयुग, पूर्व्ययुग तथा प्रथम युग कहा गया है । इन चारों की संहिता ‘उपरयुग कहलाता है जो वस्तुतः हिरण्ययकोश है जिसके सन्दर्भ में विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय तथा अन्नमय चतुर्विध व्यक्तित्व को ‘संहितान्तं चतुष्टय कहा जाता है। इस संहिता अथवा उपरयुग तक वही मेधिर पहुंचता है  जिसे 'गुह्यविद्या' की शिक्षा मिली है।

     ये युग योग के सोपान हैं। इनके संदर्भ में सदा युज का प्रयोग होता है । अन्नमय से लेकर विज्ञानमय तक चार में से प्रत्येक युग में साधक युक्त होता चलता है। युग-युग में प्रजायमान इन्द्र (जीव) योग-योग में बलवत्तर (तवस्तर) होता हुआ कहा जाता है। इस क्रमिक प्रक्रिया को गीता में अभ्यास-योग नाम दिया गया है । इस योग का आधार है इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति एवं क्रियाशक्ति का नियमन और नियन्त्रण । इन्हीं तीन शक्तियों के सम्बन्ध में नव-मनुष्य-रथ को त्रिकश कहा जाता है। इन तीनों का पर्यवसान पराशक्ति में होता है जिसको वेद में मधुकशा भी कहा जाता है क्योंकि इसके द्वारा जो सप्तविध अनुभूति होती है उसी की सप्तमधु संज्ञा है। सामान्य भाषा में ये सात ब्रह्मबल, क्षत्रबल, अर्थबल, शरीरबल, निर्मलता, सहानुभूति एवं आनन्दबोध के सूचक हैं। इन सातों में प्रजापति की ही अभिव्यक्ति आत्मा में होती है । अतः इस प्रसंग में ‘प्रजापते अनु मा बुध्यस्व' की अर्थभावना करने का विधान है। पूर्वोक्त सप्त मधुओं को एक दूसरी दृष्टि से सप्तरश्मियाँ मान कर मनुष्यरथ को सप्तरश्मि कहा जाता है । इन सप्तरश्मियों की अभिव्यक्ति पुनः अहं, बुद्धि, मन और पञ्चज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से होती है। ये सातों इन्द्र की शक्तियाँ होने से, सप्तरश्मि रथ को इन्द्र की उपयोगी वस्तु माना जाता है और स्वयं इन्द्र को भी सप्तरश्मि कहा जाता है। इन सातों में जब हिरण्ययकोश का चेतना सिन्धु प्रवाहित होता है तो इन्हीं को सप्तसिन्धवः कहा जाता है। यह घटना तब होती है जब परमात्मा रूपी इन्द्र, जिसे महेन्द्र कहा जाता है, उक्त अव्याकृत सिन्धु के साथ मनुष्य-व्यक्तित्व के व्यक्त स्तर पर जन्म लेता है । इन्द्र जन्म के अभाव में मनुष्य का व्यक्तित्व त्रिशीर्षा, सप्तरश्मि दैत्य कहा जाता है । परमात्मा रूपी इन्द्र के जन्मते ही उस दैत्य को मारने वाला त्रिमूर्द्धा, सप्तरश्मि अग्नि उत्पन्न होता है जो अपने पूर्ण (अनून) रूप में आत्मा रूपी मघवा इंद्र से भिन्न नहीं है । उसको अपने ‘अजरपद पर प्रतिष्ठित' करके ही 'धीरासः कवयः' उस महान् सिन्धु का साक्षात् कर पाते हैं जो उक्त सप्तसिन्धवः होकर प्रकट होता है। तभी वह अग्नि इन सात आयामों में सप्तसूर्य होकर आविर्भूत होने वाला तथा संपूर्ण अंधकार को नष्ट करने वाला कहा जाता है।

मनुष्य रथ को कभी-कभी एक नौका के रूप में कल्पित किया गया है। नौका में अरित्र (पतवार) होते हैं। अतः मनुष्य रथ को भी दशारित्र रथ कहा गया है। अरित्र का शाब्दिक अर्थ शत्रु से रक्षा करने वाला कहा जाता है। अहंकार रूपी अरि (वृत्र) तथा उससे प्रादुर्भूत काम-क्रोधादि ही वे अरि हैं जिनसे जीव को त्राण अपेक्षित है । इनसे विपरीत उनकी नारकीय गति है जो अरियों के पोषक हैं । जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण के अनुसार पुरुष के भीतर दस ऐसी शक्तियाँ हैं जो स्वर्गोन्मुख होने से स्वर्ग और नरकोन्मुख होने से नरक कही जाती हैं। मन, वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, त्वक्-हस्त, गुदा, जननेन्द्रिय तथा पाद की इंद्रिय शक्तियाँ ही स्वर्गोन्मुख होकर मनुष्य रथ को दशारित्र रूप देती हैं। नव-मनुष्य-रथ का स्वः नामक ज्योति का प्रदाता होने से स्वर्षाः भी कहा जाता है और सोम-स्नात होने से इसका नाम सस्नि रथ होता है। रथ शब्द स्वयं रंह धातु से निष्पन्न है; परन्तु नव-मनुष्य-रथ कोई गतिशील स्थूल पदार्थ नहीं । वैदिक रथ की पृष्ठभूमि में जो रथ्य तत्त्व है उसके लिए प्रेमानन्द रूपी सोम का बोधक मद शब्द का भी प्रयोग होता है । नवमनुष्य-रथ पूर्वोक्त पूर्व रथ से इस दृष्टि से भिन्न है जहाँ पूर्वरथ रूपी मनुष्य-व्यक्तित्व सहज वृत्तियों, दुष्ट प्रवृत्तियों से संचालित होकर पापपङ्क में फंसा रहता है, वहाँ यह नव-मनुष्य-रथ इष्टियों और मतियों से गतिशील होकर ऊर्ध्वमुखी अति मानसिक रथ होता है।

 यही अति मानसिक रथ अश्विनौ का वह अहं पूर्व रथ है जिसे मन से भी अधिक वेगवान् कहा जाता है । इसे चित्तवृत्ति निरोधपूर्वक की जाने वाली वह योगसमाधि भी कह सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप साधक आत्मविस्तार करके अति वैयक्तिकता के उस स्तर को प्राप्त करता है  जिसे अथर्ववेद में ‘अहमुत्तरोत्व' कहा गया है । इस अहं उत्तर पर ही भेद नामक दैत्य का नाश करके उस वशा को प्राप्त किया जा सकता है जो समस्त नवनिर्माण एवं दैवीसृष्टि करने वाली एक विलक्षण गाय के रूप में बहुचर्चित हुई है । अथर्ववेद के अनुसार अहमुत्तरीय प्रयासों में ही प्रजाजन की वह एकता और क्षत्रिय-शक्ति का वर्धन निहित है जो बृहत् राष्ट्र को सम्भव बनाता है।

नव-मनुष्य-रथ के इस विवेचन से स्पष्ट है कि यहाँ मनुष्य के आदर्श व्यक्तित्व को ही रथ कहा गया है। यह व्यक्तित्व रूपी रथ उसी   प्राण का विस्तार वा विकास कहा जा सकता है जिसको पहले ‘प्राणो वै सम्राट् परम ब्रह्म' कहा गया है और जिसको रथ के साथ-साथ अश्व भी कहा जा सकता है। उसी के अनेक रूपान्तर ज्योतिर्मय प्राणरश्मियों में तन-मन को प्लावित करते रहते हैं और उन्हें अरुष, हरित, श्वेत, कृष्ण, श्याव, अरुण, चित्र, अरुणपिशंग, शोण, बभ्रु, पृषती, सारंग, हिरण्य आदि विभिन्न रंग वाले कहा जाता है । इन अश्वों की ज्योतिर्मयता का स्रोत पूर्वोक्त ज्योतिर्मय रथरूपी व्यक्तित्व ही है क्योंकि इसके योग से वह चित्रामघा उत्पन्न होती है जो अपनी विभिन्नता के कारण चित्रा तथा म नामक विष का हनन करने से मघा नामक ब्रह्मज्योति कहलाती है तथा जिसे एक रथ से अनेक होने वाले अग्नि, सूर्य अथवा उषा के रूप में वर्णित किया जाता है । डॉ फतहसिंह के अनुसार इस ब्रह्मज्योति को वेद में 'ॐ' कहा जाता है जो इंद्र आदि देवों के रूप में मनोमय कोश में मनोजवा अश्वों का रूप धारण करती है । ॐ ही वेद में ॐ लोक, उरु लोक अथवा उरु ॐ लोक का रूप ग्रहण करता है ।

यह सब लिखने का तात्पर्य यह है कि जिस मनुष्यव्यक्तित्व को मूलतः एकरथ अथवा अश्व के रूप में कल्पित किया गया है, वह वस्तुतः ज्योतिर्मय आन्तरिक चेतना का प्रतीक है और उसकी रश्मियों को ही अनेक अश्वों के रूप में माना गया है ।  

चतुर्थ अध्याय में वैदिक अश्व का उत्तरोत्तर विकास दिखाया गया है । वेद में मनुष्य-व्यक्तित्व का निकृष्टतम रूप अहङ्कार अथवा वृत्ररूपी ‘दीर्घ तमः' के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस व्यक्तित्व में जब 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की इष्टि (इच्छा) उत्पन्न होती है तो वह दीर्घतमा ऋषि बन जाता है तथा शनैः शनैः तमोहन अग्निरूपी अश्व की खोज करता हुआ आगे बढ़ता है । इस खोज के फलस्वरूप जो प्राण अथवा जीव रूपी अश्व पहले अहङ्कार तथा उससे प्रसूत कामक्रोधादि कल्मषों के प्रभाव से अमेध्य (अपवित्र) हो गया था, वह धीरे-धीरे मेध्य होने लगता है। प्राण अथवा जीव की खोज यात्रा मेध्यता प्राप्त करने के लिए होती है। उसी को आध्यात्मिक अश्वमेध कहा जाता है। मनुष्यव्यक्तित्व अश्वमेध होने पर ही अपने अरातियों को नष्ट करके राति प्रदत्त प्राणों का त्राण करने वाला राष्ट्र बनता है । इसलिए ब्राह्मण ग्रन्थों में राष्ट्रं वै अश्वमेधः' की उक्ति प्रचलित हुई।

ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में 140 से लेकर 164 सूक्त तक दीर्घतमा ऋषि की पूर्वोक्त खोज को देखा जा सकता है । तमोहन, शुक्रवर्ण और सूची ज्योतिरथ अथवा अग्नि की कामना करते हुए दीर्घतमा अग्नि के उन तीन रूपों को देखते हैं, जिनमें से तृतीय रूप को दशप्रमति कहा गया है । इसकी चेतनारश्मियों को ‘सूरयः' कहा जाता है, जो महद्बुद्धि रूपी महिषी से उस समय उद्भूत होते हैं जब मातरिश्वा गुहाहित अग्नि को मन्थन करके प्रकट करता है । ऋग्वेद 1.141 में कुछ ‘कृष्णवर्णाः सूरयः' का उल्लेख हुआ है जो उस मनुष्थ-रथ से सम्बन्धित हैं जो अपने अरुष अंग द्वारा द्यौ लोक में गति करता है; परन्तु दीर्घतमस् अग्नि के उस नव्य रूप का ध्यान कर रहा है जिसे वह मही रत्न कह कर सम्बोधित करता है और जो परमव्योम में जायमान होता हुआ मातरिश्वा के लिए आविर्भूत होता है। दीर्घतमा जिस अग्नि को जानना चाहता है, उसी में गतिशीलता, ज्ञानशक्ति और इच्छाशक्ति है तथा वही वाज अथवा श्रवस् का वह पति है जिसमें अनेक आशाएँ और इच्छाएँ प्रादुर्भूत होती हैं ।

इससे स्पष्ट है कि दीर्घतमा जिस ज्योति अथवा अग्नि को खोज रहा है, वह हमारी आन्तरिक ज्योति है जिसमें स्थित इष्टयः और मतयः, मनुष्यरथ नामक चेतनारथ को ले जाने में समर्थ हैं। इस चेतना को दीर्घतमा ‘त्रिमूर्धानं सप्तरश्मि मनूनमग्निम्' अथवा सिन्धु से आविर्भूत सूर्य कहता है और प्रार्थना करता है- 'हे अग्ने! तेरी जिन पालक किरणों ने मुझे अँधेरे से बचाया उन विश्ववेत्ता सुकृत किरणों की तुम रक्षा करते रहो जिससे शत्रु उन्हें नष्ट न कर दें ।' यही सूर्य रूप में कल्पित किया जाने वाला ‘अनभीषुः अर्वा' है जिसे ‘अचित्त ब्रह्म' भी कहा गया है ।।

दीर्घतमस् इस आन्तरिक ज्योति को विष्णु कहता है जो ऊँ रूप में अकेला ही सारे नानात्व को धारण करता है। वही नानात्वमयी सृष्टि की वर्षा करने वाला वृषा तथा बृहत् शरीर वाला ‘युवा अकुमारः' होता हुआ भी महाविष्णु (बृहच्छरीर) रूप में चित्रित किया गया है। वह अपने


On the true meaning of Ashva in Rigveda -- A.A. Semenenko (2019)

I BUILT MY SITE FOR FREE USING