द्वितीय अध्याय
पूषा अश्व
पिछले अध्याय में एक ऐसे वृषा अश्व का उल्लेख हुआ है जिसका रेतस् सोम माना गया है । वृषा का अर्थ निःसन्देह वर्षा करने वाला है । अतः वृषा अश्व को पर्जन्य1 (तैसं 2.4.9.4; मैसं 2.4.8; काठसं 8.5) भी कहा गया है । पर्जन्य यद्यपि निघण्टु के मेघनामों में परिगणित नहीं है; परन्तु वेद में जब पर्जन्य को वृष्टिमान् कहा जाता है तो निःसन्देह उसे वर्षा करने वाला मेघ मानना पड़ता है। पर्जन्य का अर्थ मनुष्य के ‘पर व्यक्तित्व में जन्मने वाला माना जाए तो इसकी तुलना योग की धर्म मेघ-समाधि से की जा सकती है। धर्ममेघ-समाधि में सच्चिदानन्दात्मक वृष्टि होती है। इसी वृष्टि के आनन्द पक्ष को वेद में जब सोम रूप में कल्पित किया जाता है तो सोम को भी ‘पर्जन्यो दृष्टिमां इव' कहा जाता है। इसी प्रकार उक्त वृष्टि के सत्पक्ष को इन्द्र रूप में कल्पित मान कर इन्द्र को भी ‘पर्जन्यो वृष्टिमां इव' कहा जाता है । चिदात्मक ज्ञान का वैदिक प्रतीक आदित्य अथवा अग्नि है। इसीलिए आदित्य4 और अग्नि5 को भी वृषा अथवा वृषाश्व कहा जाता है ।
पर्जन्यः
इस बात की पुष्टि ऋग्वेद 10.98 से भलीभाँति होती है। इस सूक्त में बृहस्पति को सम्बोधित करके शान्ति देने वाले वृषा (वर्षक मेघ) के लिए पर्जन्य की माँग6 की गई है। वहीं तीसरे मन्त्र में बृहस्पति से ‘द्युमतीं वाचं' की माँग करते हुए शांति के लिए जिस वृष्टि की माँग की है। उसके लिए चारों ओर से प्रवेश करने वाले ‘मधुमान् दिवो द्रप्सा' को
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1 विश्वेभिर्देवैरनुमद्यमानः प्र पर्जन्यमीरया वृष्टिमन्तम् । ऋ. 10.98.8
तुलना करो ऋ. 8.6.1; 9.2.9
अस्मभ्यमिन्दविन्द्रयुर्मध्वः पवस्व धारया । पर्जन्यो वृष्टिमाँ इव । ऋ. 9.2.9
3 महां इन्द्रो य ओजसा पर्जन्यो वृष्टिमाँ इव । स्तोमैर्वत्सस्य वावृधे । ऋ. 8.6.1 4 असौ वा आदित्यो वृषाश्वः । तैआ 5.3.5
5 वृषा ह्यश्वो वृषाग्निः । मैसं 31.7
6 बृहस्पते प्रति मे देवतामिहि मित्रो वा यद्वरुणो वासि पूषा ।
आदित्यैर्वा यद्वसुभिर्मरुत्वान्त्स पर्जन्यं शन्तनवे वृषाय । ऋ. 10.98.1
7 अस्मे धेहि द्युमतीं वाचमासन्बृहस्पते अनमीवामिषिराम् ।
यथा वृष्टिं शन्तनवे वनाव दिवो द्रप्सो मधुमाँ आ विवेश । ऋ. 10.98.3
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सोम नामक आनन्द तत्त्व ही माना जा सकता है । मन्त्र चार में इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि हमारे भीतर अनेक द्रप्साः मधुमन्तः'1 चारों ओर से प्रवेश करें। ये ही वर्षणशील दिव्य आपः (अपो दिव्या वर्ष्या) हैं जिन्हें देवापि नामक ऋषि ‘उत्तर' समुद्र से अधरं समुद्र2 में अभिसृष्ट करता है । वे देवापि द्वारा सृष्ट होने से पहले उत्तर समुद्र में (समुद्रे उत्तरस्मिन्) ‘निवृत्त3 हुए स्थित थे।
डॉ. फतहसिंह के अनुसार उत्तर समुद्र और अधः समुद्र को क्रमशः विज्ञानमय कोश का महत्समुद्र तथा मनोमयकोश का मनस्समुद्र माना जा सकता है। अतः मन्त्र5 सात में स्पष्ट कहा गया है कि जब देवापि ने शन्तनु के लिए कृपा करते हुए ध्यान किया तो बृहस्पति ने दिव्यज्ञानमयी तथा वर्षा चाहने वाली वाणी प्रदान की। इसी को अगले मन्त्र में वह वृष्टिमान् पर्जन्य6 बताया गया है जो मनुष्य देवापि द्वारा अग्नि के समिद्ध करने पर विश्वेदेवों द्वारा प्रेरित किया जाता है। इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि देवोन्मुख ऊर्ध्वमन रूपी देवापि (देव का सम्बन्धी) जब ज्ञानाग्नि को ध्यान द्वारा समिद्ध करता है तभी यह दिव्यज्ञान की वर्षा होती है जो आनन्दमयी होने पर मधुमान् भी कही जा सकती है। विज्ञानमयकोश की सविकल्प समाधि में इसका निवृत्त रूप माना जा सकता है और मनोमय कोश में उसी को वर्षणशील कहा जा सकता है। मनोमय कोश रूपी बृहत्समुद्र से होने वाली वर्षा के मार्ग में अनेक बाधाएँ हुआ करती हैं; अतः अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि उन सभी बाधाओं का विनाश करके हमारे लिए उस बृहत्समुद्र से दिव्य आप: की प्रचुर मात्रा प्रदान करें7।
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1 आ नो द्रप्सा मधुमन्तो विशन्त्विन्द्र देह्यधिरथं सहस्रम् ।।
नि षीद होत्रमृतुथा यजस्व देवान्देवापे हविषा सपर्य । ऋ. 10.98.4
2 आर्ष्टिषेणो होत्रमृषिर्निषीदन्देवापिर्देव सुमतिं चिकित्वान् ।
स उत्तरस्मादधरं समुद्रसमपो दिव्या असृजद्वर्ष्या अभि ।। ऋ. 10.98.5
3 अस्मिन्त्समुद्रे अध्युत्तरस्मिन्नापो देवेभिर्निवृता अतिष्ठन् । ऋ. 10.98.6
4 वैदिक दर्शन, पृ. 7-8
5 यद् देवापिः शन्तनवे पुरोहितो होत्राय वृतः कृपयन्नदीधेत् ।।
देवश्रुतं वृष्टिवनिं रराणो बृहस्पतिर्वाचमस्मा अयच्छत् ।। ऋ. 10.98.7
6 ......पर्जन्यमीरया वृष्टिमन्तम् । ऋ. 10.98.8
1 अग्ने बाधस्व वि मृधोऽवि दुर्गहापामीवामप रक्षांसि सेध ।
अस्मात्समुद्रात् बृहतो दिवो नोऽपां भूमानमुप नः सृजेह ।। ऋ. 10.98.12
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पर्जन्य में इन्द्र, सोम और अग्नि तीनों का समावेश कल्पित किया गया प्रतीत होता है। इसीलिए एक स्थान पर इन्द्राभिलाषी सोम से जब मधुधारा प्रवाहित करने के लिए कहा जाता है तो उसकी वृष्टिमान् पर्जन्य1 से उपमा दी जाती है और दूसरी जगह पर्जन्यों और अग्नियों2 से सम्बद्ध एक समान उदक की कल्पना की गई है जिससे वे क्रमशः भूमि और द्यौ को प्रेरणा प्रदान करते हैं। विद्वानों ने अन्नमय कोश को भूमि और मनोमयकोश को द्यौ मान कर उन्हें प्रेरित करने वाले इस समान उदक को आनन्दवृष्टि के रूप में स्वीकार किया है । अग्नि, इन्द्र और सोम का इस प्रकार का एकत्रीकरण उस मन्त्र की याद दिलाता है जहाँ एक ऐसे अग्नि का उल्लेख है जिसमें इन्द्र सोम को उदरस्थ3 किए खड़ा है। इस प्रसंग में एक उल्लेखनीय बात यह है कि इस अग्नि को जातवेदस् कहा गया है और सोम की सप्ति4 (अश्वनाम) से तुलना की गई है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उसी स्थान पर आपः को ‘अर्णवो नृचक्षा’5 तथा ‘दिवो अर्णम्'6 कह कर सूर्य के परस्तात् और अवस्तात् स्थित हुआ बताया गया है और उन्हें अग्नयः7 अनमीवाः तथा अद्रुहः भी कहा गया है। इस विवरण से स्पष्ट है कि पर्जन्य से होने वाली वृष्टि अग्नीषोमात्मक वृष्टि कही जा सकती है। इसी बात की पुष्टि एक अथर्ववेदीय मन्त्र से भी होती है जहाँ मानवीय चेतना को वशा गौ के रूप में कल्पित करके उसमें अग्नि और सोम दोनों का ही प्रवेश बता कर पर्जन्य को उसका ऊधस् तथा विद्युतों को उसके स्तन8 कहा गया है।
वशा और पर्जन्य :
वशा और पर्जन्य की घनिष्ठता इस बात से भी स्पष्ट है कि वशा को ब्रह्म द्वारा देवों को वर्धमान करने वाली पर्जन्यपत्नी9 कहा जाता है ।
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1 ऋ.9.2.9
2 समानमेतदुदकमुच्चैत्यव चाहभिः ।
भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः ।। ऋ. 1.164.51
3 अयं सो अग्निर्यस्मिन्त्सोममिन्द्रः सुतं दधे जठरे वावशानः ।। ।
सहस्रिणं वाजमत्यं न सप्तिं ससवान्त्सन्त्स्तूयसे जातवेदाः ।। ऋ. 3.22.1
4 यही उपर्युक्त मन्त्र।
5 ऋ. 3.22.2
6 वही 3.
7 वही 4
8 अनु त्वाग्निः प्राविशदनु सोमो वशे त्वा ।
ऊधस्ते भद्रे पर्जन्यो विद्युतस्ते स्तना वशे ।। शौ 10.10.7
9 वशा पर्जन्यपत्नी देवा अप्येति ब्रह्मणा । शौ 10.10.6
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वह अधीरा स्वधाप्राणा यज्ञपदी1 है। वशा का प्रतिग्रहण2 तभी सम्भव है जब यज्ञ के उस शिर का ज्ञान हो जिसको पहले मधुविद्या तथा देववेद भी कहा गया है । वशासूक्त में इस यज्ञशिर3 को स्पष्टत: ‘सोमविचक्षण' कहा गया है । इस प्रकार यज्ञशिर अथवा मधुविद्या को सोम नामक आनन्दतत्त्व के रूप में स्वीकार करने का पूर्वोक्त सुझाव मान्य हो जाता है। सोम के साथ विचक्षण शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि जिस सोम को यज्ञशिर कहा जाता है, वह कोरा आनन्दमय नहीं अपितु ज्ञानमय भी है। यही बात पहले वशा के अन्तर्गत अग्नि और सोम के समावेश द्वारा संकेतित है। वशा का यह सोम वस्तुतः त्रिविध है जिसको वशादेवी मनोमय, प्राणमय और अन्नमयकोश रूपी तीन पात्रों में उँडेलती है और इन तीनों से ऊपर हिरण्यकोश रूपी बर्हि में अथर्वा दीक्षित होकर4 बैठता है। इन तीनों कोशों में क्रमशः ज्ञानशक्ति, भावनाशक्ति और क्रियाशक्ति की प्रधानता होती है; अतः इन तीनों में होने वाली सोमवृष्टि त्रिविध मानी जा सकती है। दूसरे शब्दों में, ज्ञानभावना-क्रियामयी यह सोमधारा ही वे निम्नस्थानीय आपः हैं जिनमें अन्तर्हित होने के कारण अथर्वा5 (अथ+अर्वाक्) का नामकरण हुआ है। यही धारा वह देवज्ञानात्मक वृष्टिमयी वाक् है जिसको बृहस्पति ध्यान करने पर प्रदान करता6 है और जिसको त्रयीविद्या7 अथवा त्रिवेदमयी वाक्8 कहा जा सकता है; परन्तु प्रश्न होता है कि यह दीक्षित अथर्वा कौन है जो हिरण्ययकोश में विराजमान है ? क्या इस अथर्वा की तुलना उस देव से कर सकते हैं। जिसके वेद को पूर्वोक्त यज्ञशिर और मधुविद्या से समीकृत किया गया है ?
हिरण्ययकोश में विराजमान देव वस्तुतः वह आत्मन्वत् पक्ष है
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1 यज्ञपदीराधीरा स्वधाप्राणा महीलुका । शौ 10.10.6
2 शिरो यज्ञस्य यो विद्यात् स वशां प्रतिगृह्णीयात् । शौ 10.10.2
3 शिरो यज्ञस्याहं वेद सोमं चास्यां विचक्षणम् । शौ 10.10.3
4 त्रिषु पात्रेषु तं सोममा देव्यहरद्वशा । अथर्वा यत्र दीक्षितो बर्हिष्यास्त
हिरण्यये ।। शौ 10.10.12 ।
5 तुलना करो-तद्यदब्रवीदथार्वाङेनमेतास्वेवाप्स्वन्विच्छेति तदथर्वाऽभवत् । तदथर्वणोऽथर्वत्वम् । गोब्रा 1.1.4
6 यद्देवापि शन्तनवे पुरोहितो होत्राय वृतः कृपयन्नदीधेत् ।
देवश्रुतं वृष्टिवनिं रराणो बृहस्पतिर्वाचामस्मा अयच्छत् ।। ऋ. 10.98.7
7 तुलना करो, डॉ. फतहसिंह-वैदिक दर्शन ।
8 त्रेधा विहिता हि वाक् । ऋचो यजूँषि सामानि । माशब्रा 6.5.3.4
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जिसे ब्रह्मवेता लोग ब्रह्म1 कहते हैं। इसी ब्रह्म की वाक् को वह वेद माना
जा सकता है जिसको किसी कोश2 से उद्भरण करके पुनः उसी में रख दिया3 जाता है । यही वेद जब बहिर्मुखी होने को होता है तो उसके संदर्भ से ब्रह्म को दीक्षित अथर्वा माना जा सकता है और उसी की अभिव्यक्ति को ब्रह्मवेद अथवा अथर्ववेद भी कह सकते हैं। यह अभिव्यक्ति विज्ञानमयकोश में होती है जो मनोमय से लेकर अन्नमयकोश तक त्रिविध अथवा अनन्तरूपों4 में होती हुई कही जाती है। गीता में इस अनेकतामयी वेदवाक् को ही ‘त्रैगुण्यविषया वेदाः '5 कहा गया है, जबकि मूलवेद हिरण्यय कोश में स्थित निस्त्रैगुण्यमय ‘देववेद' है जिसे ही पहले मधुविद्या और यज्ञशिर भी कहा गया है ।
यह मूल वेद अथवा वाग्धारा ही वह वशा नामक गौ प्रतीत होती है जिसके आयमान और जात6 दो रूप बतलाए जाते हैं और ब्रह्म को जिसका वशी7 अथवा बन्धु8 कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, वशा ब्रह्म की वह सच्चिदानन्दमयी शक्ति है जो अपने जायमान रूप में वर्षणशील ब्रह्म रूपी पर्जन्य की पत्नी बन जाती है और अपनी जातावस्था में अनेकरूपा वृष्टि कर देती है। इसी वृष्टि को अनेक इच्छाओं, भावनाओं, विचारों, संकल्पों और क्रियाओं आदि के रूप में ‘अनन्ता व वेदा:' के रूप में स्मरण किया जाता है। यही वह अनेकतामयी सृष्टि9 है जो वशा से होती हुई मानी जाती है। यह सृष्टि तब प्रारम्भ होती है जब ब्रह्मरूपी अश्व विज्ञानमय कोश रूपी समुद्र में होकर वशा को सिंचित करता है एवं वशा हिरण्यकोश से उत्पन्न होने वाले हिरण्य से अभीवृता'10 होती है। इससे
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तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते ।
तस्मिन् यद् यक्षमात्मन्वत् तद् वै ब्रह्मविदो विदुः ।। शौ 10.2.32
2 यह कोश वस्तुतः हिरण्ययकोश है । तुलना करें डॉ. फतहसिंह : दयानन्द
स्वप्नांक, वेद-सविता अक्टूबर, 1983, पृ. 16
यस्मात् कोशादुदभराम वेदं तस्मिन्नन्तरव दध्म एनम् ।
कृतमिष्टं ब्रह्मणो वीर्येण तेन मा देवास्तपसावतेह ।। शौ 19.72.1
4 अनन्ता वै वेदाः । तैब्रा 3.10.11.3
5 गीता; 2.45
6 नमस्ते जायमानायै जाताया उत ते नमः । शौ. 10.10.1
7 युधः एकः सं सृजति यो अस्या एक इद् वशी । शौ. 10.10.24
8 ससूव हि तामाहुर्वशेति ब्रह्मभिः क्लृप्तः स ह्यस्या बन्धुः । वही, 23
9 वशेदं सर्वमभवत्। वही, 10.10.25
10 अभीवृता हिरण्येन यदतिष्ठ ऋतावरि ।
अश्वः समुद्रो भूत्वाध्यस्कन्दद् वशे त्वा ।। वही, 16
15
पूर्व वशा भद्र ज्योतियों को धारण करती हुई उक्त समुद्र का अतिक्रमण करके ब्रह्मरूपी सूर्य से सम्बद्ध होकर ओंकाररूपी सर्वचक्षु से देखती1 है। यह वशा की अजातावस्था है। जबकि जातावस्था में प्राणरूपी वाक् से सगत होकर और सभी प्राणों रूपी पतत्त्रियों (पक्षियों) के द्वारा उक्त समुद्र में ऋचाओं और सामों को धारण करती हुई नृत्य करती हुई बताई जाती हैं।2 यहाँ नर्तन व्यापार को क्रियावेद कहे जाने वाले यजुस् का प्रतीक माना जा सकता है। मनः के इस त्रिवेदात्मक वर्णन की तुलना मनोमय पुरुष से की जा सकती है जिसमें ऋक को उसका दक्षिण पक्ष, साम को उसका वामपथ तथा यजु को उसका सिर बताया जाता है तथा अथर्वाङ्गिरस को उसकी पुच्छ-प्रतिष्ठा कहा जाता है ।3
वृषा अश्व अथवा पर्जन्य की आध्यात्मिकता :
अब तक के विवेचन से यह संकेत दृढ़ होता हुआ प्रतीत होता है। कि वृषा अश्व कोई आध्यात्मिक तत्त्व ही है । यह बात अथर्ववेद 10.2 से पूरी तरह पुष्ट हो जाती है। वहाँ व्यष्टिगत पुरुष का वर्णन करते हुए जहाँ उस पुरुष में सत्य, ऋत, यज्ञ, अमृत, मेधा आदि की स्थिति मानी गई4 है, वहीं यह भी प्रश्न किया गया है कि उसमें पर्जन्य, सोमविचक्षण श्रद्धा तथा मनः की स्थापना किसने की है5 ? इसके उत्तर में बताया गया है कि व्यष्टिगत पुरुष के भीतर यह स्थापना करने वाला ब्रह्म6 ही है। यह ब्रह्म व्यक्ति के विज्ञानमय कोश में अथर्वा है जो उसके मूर्धा तथा हृदय का संसीवन करके मस्तिष्क से ऊपर हिरण्यमयकोश रूपी शीर्ष स्थान से पवमान सोम होकर प्रेरित7 करता है । विज्ञानमय कोश को ही अथर्वा का शिर अथवा देवकोश कहा जाता है जिसको रक्षा मनोमय, प्राणमय
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1 सं हि सूर्येणागत समु सर्वेण चक्षुषा ।
वशा समुद्रमत्यख्यद् भद्रा ज्योतींषि बिभ्रती ।। शौ, वही, 15
2 सं हि वातेनागत तमु सर्वैः पतत्रिभिः ।
वशा समुद्रे प्रानृत्यदृचः सामानि बिभ्रती ।। शौ 10.10.14
3 अन्वयं पुरुषविधं । तस्य यजुरेव शिरः । ऋग्दक्षिणः पक्षः सामोत्तरः पक्षः । आदेश आत्मा । अथर्वाङ्गिरसः पुच्छं प्रतिष्ठा । तै आ 8.2.3
4 शौ 10.2.14-17
5 केन पर्जन्यमन्येति केन सोमं विचक्षणम् ।
केन यज्ञं च श्रद्धां च केनास्मिन् निहितं मनः ।। शौ 10.2.19
6 वही, 21-25
7 मूर्धानमस्य संसीव्याथर्वा हृदयं च यत् ।
मस्तिष्कादूर्ध्वः प्रेरयत् पवमानोऽधि शीर्षतः ।। शौ 10.2.26
16
तथा अन्नमयकोश1 करते हैं । हिरण्यपुरुष को यदि रेतोधा अश्व कहा जाए तो सोम विचक्षण उसका रेतस् हो जाता है जो अनेक धाराओं में बरसता हुआ अनेक ‘अश्वाः', ‘अत्याः' अथवा 'वृषणाः' कहा जाता है । यह वस्तुतः आन्तरिक ज्योति की रश्मियाँ हैं, यह बात कभी-कभी तो स्पष्ट रूप से बताई जाती है ।2
अश्व और अश्विनौ :
वृषण अश्व की आध्यात्मिकता को हृदयंगम करने के लिए अश्विनौ की परिकल्पना भी सहायक हो सकती है। अश्विनौ शब्द नि:सन्देह अश्व से निष्पन्न हुआ है। उसका साधारण अर्थ दो अश्वारोही अथवा अश्व वाले किया जा सकता है। यदि हिरण्यकोश का ब्रह्म अश्व है तो विज्ञानमय कोश से अन्नमय कोश तक इस ब्रह्म-चेतना की जो पराक् और अर्वाक् गति है, उसी को अश्विनौ3 कहा जा सकता है। इसी को पूर्वापरपक्षौ, प्राणापानौ, द्यावापृथिवी, इन्द्राग्नी और मित्रावरुणौ जैसे देवमिथुन में भी देखा जाता है। ब्रह्मचेतना को जब अठिन के रूप में कल्पित किया जाता है तो उनको मन्थन करने वाले अश्विनौ के रूप में दो हिरण्यमयी अरणी कहा जाता है । यही चेतना स्तरभेद से जब मधु अथवा सुरा के रूप में कल्पित होती है तो अश्व को क्रमशः वाजी6 तथा वृषा7 नाम दिया जाता है और दोनों अवस्थाओं में शत कुम्भों को अश्व के शफ से सिञ्चित किया जाता है । अश्व का शफ अयस्मय है जो वस्तुतः अन्नमयकोश का प्रतीक है। अतः स्थूल शरीर की त्रिविध मस्तिष्क सहित मेरुदण्ड के 33 केन्द्रों से फैलने वाले इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्ति के त्रिविध तन्तुओं से जो 99 तन्तु बनते हैं, उनमें यदि इन सबकी समष्टि के रूप में कल्पित एक महातन्तु मिला दिया जाए तो सम्भवतः
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1 तद् वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुब्जितः ।
तत् प्राणो अभि रक्षति शिरो अन्नमथो मनः ।। शौ 10.2.27
2 आ रश्मयो गभस्त्योः स्थूरयोराध्वन्नश्वासो वृषणो युजानाः ।। ऋ. 6.29.2
1 दयानन्द स्वप्नांक; वेदसविता : अक्टूबर, 1983, पृ. 54
2 तावेवैतो स्तोमाभवतां पराङ् च पूर्वाङ् च ।
तौ प्राणापानौ ते ऽहोरात्रे तौ पूर्वपक्षापरपक्षौ ताविमौ लोकौ । (द्यावापृथिव्यौ)
3 ताविन्द्राग्नीं तौ मित्रावरुणौ तावाश्विनौ तद् दैव्यं मिथुनं यदिदं कि च द्वन्द्वं तदभवताम् । जैब्रा 3.334
4 हिरण्ययी अरणी यं निर्मन्थतो अश्विना । ऋ. 10.184.3
4 अश्वस्य वाजिनः शफाद् जनाय शतं कुम्भाँ असिञ्चतं मधूनाम् । ऋ. 1.117.6 5 कारोतरात् शफात् अश्वस्य वृषणः शतं कुम्भाँ असिञ्चतं सुरायाः । ऋ.1.116.7
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इन्हीं को शत कुम्भ कहा जा सकता है। इन शतकुम्भों को वाजी अश्व और वृषा अश्व के प्रसंग में द्विविध रूप में कल्पित करने से यह संकेत मिलता है कि मनुष्य व्यक्तित्व के व्यक्त और अव्यक्त स्तरों पर ब्रह्मानन्द रूप रस दो भिन्न रूप धारण कर लेता है।
इसी भेद को प्रकारान्तर से ब्राह्मणग्रन्थों ने द्विविध समीकरणों द्वारा बतलाने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिए, काठकसंहिता1 में सोम को देवों का अन्न और सुरा को मनुष्यों का अन्नाद्य बताया है। या सोम को ब्रह्म का तेज एवं सुरा को अन्न का शमल2 कहा गया है। कर्मकाण्ड में जब सोमग्रहों और सुराग्रहों को एक साथ ग्रहण किया जाता है, तो इसका अर्थ होता है कि ब्रह्म और आत्मा दोनों का तेज एक साथ जोड़ा3 जाता है। इसका अभिप्राय है कि मनुष्य व्यक्तित्व में ब्रह्म और आत्मा दोनों का तेज परस्पर संयुक्त रहता है । यह स्वाभाविक ही है क्योंकि, पूर्व में अथर्ववेदीय मन्त्र के आधार पर कहा जा चुका है कि मनुष्य व्यक्तित्व के हिरण्ययकोश में आत्मा से युक्त होकर ब्रह्म रूपी यक्ष विराजमान् है। इस प्रकार व्यष्टिपुरुष और समष्टि पुरुष का तेज सहस्रवण करता है, इसीलिए जब पुरुष को सहस्र की4 प्रतिमा कहा जाता है, तो सहस्रशब्द5 का आधार यह सह-स्रवण ही माना गया प्रतीत होता है।
अश्विनौ के अश्व की अनेकरूपता :
यद्यपि अश्विनौ जिस ब्रह्मरूपी अश्व से सम्बद्ध हैं, वह श्वेत अश्व एक है; परन्तु वह 99 वाजों से युक्त होने पर वाजी, क्रियाशील, हव्य, मयोभुव तथा अपने सखाओं को गतिशील करने वाला हो जाता है6 । 99 वाजों से अभिप्राय पूर्वोक्त 99 तन्तुओं में प्रवाहित बल से ही हो सकता है। इन्हीं 99 वाजों के प्रसंग से एक अश्व की अनेकरूपता कल्पित की गई प्रतीत होती है और उनके साथ प्रयुक्त विशेषणों से उनकी अनेकरूपता वैविध्य प्राप्त कर लेती है। उदाहरण के लिए, निम्नलिखित वर्णन द्रष्टव्य है--
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1 परं वा एतद्देवानामन्नं यत्सोमः परममेतन्मनुष्याणामन्नाद्यं यत् सुरा। 14.6
2 ब्रह्मणो वा एतत् तेजो यत् सोमोऽन्नस्य शमलं सुरा। 14.6
3 यत् सोमग्रहाश्च सुराग्रहाश्च सह गृह्यन्ते ब्रह्मण एव तेजसा तेज आत्मन्
धत्ते......। काठ 14.6
4 पुरुषो वै सहस्रस्य प्रतिमा । माशब्रा 7.4.1.15
5 यत् (प्रजापतिः) सहेत्यब्रीत् तत्सहस्रस्य सहस्रत्वम् । जैब्रा 2.254
6 श्वेतं अश्वं नवभिर्वाजैर्नवती च वाजिनं ।।
चर्कृत्य द्रावयत्सं हव्यं मयोभुवम । ऋ. 10. 39.10
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1 स्थविरासः अश्वाः वां आवहन्तु । ऋ. 7.67.4
2 अ नूनं यातम् अश्विना अश्वेभिः प्रुषितप्सुभिः । ऋ. 8.87.5
3 शुचयः पयस्याः वातरंहसो दिव्यासो अत्याः मनोजुवः ।
वृषणः वीतपृष्ठाः स्वराजः अश्विना वां आ एह वहन्तु ।। ऋ.1.181.2
4 आ वां वहिष्ठाः इह ते वहन्तु रथा अश्वासः उषसो व्युष्टौ । ऋ. 4.14.4
5 उद् वां पृक्षासः मधुमन्तः ईरते रथा अश्वासः उषसो व्युष्टिषु ।
अपोर्णुवन्तस् तम अ परीवृतं स्वर्ण शुक्रं तन्वन्त आ रजः ।। ऋ. 4.45.2
6 अश्वासो ये वामुप दाशुषो गृहं युवां दीयन्ति बिभ्रतः ।
मक्षूयुभिर्नरा हयेभिरश्विना देवा यातमस्मयू ।। ऋ. 7.74.4
7 युवं भुज्युम् अर्णसो निः समुद्रात् विभिरूहथुः ऋज्रेभिः अश्वैः ।। ऋ. 1.117.14
इन कतिपय उदाहरणों में रेखाङ्कित अंशों से अश्विनौ के अश्वों की अनेकरूपता की एक साधारण झलक मिल रही है। वे अश्व स्थविर, आशु, आशु श्येन, मधुयुहय, ऋज्र अश्व, शुचि, पयस्य, वातरंहस, दिव्य अत्य तथा मनोजवा वृषणः कहे गए हैं। साथ ही वे मधुमन्तः रथाः अश्वातः भी हैं जो ‘शुक्र' का विस्तार करते हैं। वे आशु श्येन हैं और उन्हें अत्य और हय भी कहा गया है। एक खिल सूक्त में (1.7.4)1 अश्विनौ के सुखदायक रथ को वहन करने वाले अश्वों को हरित बताया गया है और उनकी संख्या सौ अथवा सात बताई गई है। एक दूसरे खिल सूक्त (1.3.3)2 में अश्विनौ के अश्वों को विपश्चित्, वातध्राजिष्, सुयुजः तथा घृतश्चुत् कहा गया है । ये वही घोड़े हैं जिनके द्वारा अश्विनौ सूर्या के पास पहुंचे थे। यहाँ प्रयुक्त विपश्चित् विशेषण पूर्वोक्त मनोजवा विशेषण से भी आगे जाता है। सुयुजः कहने से अभिप्राय यह है कि वे सु नामक ब्रह्मज्योति से जुड़ने वाले हैं। विपश्चित् और सुयुज विशेषणों को ध्यान में रख कर यदि पूर्वोक्त ‘स्वराजः' (ऋ. 1.181.2) विशेषण का अर्थ समझा
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1 सुखं नासत्या रथम्.....यं वां वहन्ति हरितो वहिष्ठा शतमश्वा यदि वा सप्त
देवा।
2 ये वामश्वासः रथिरा विपश्चितो वातध्राजिषः सुयुजो घृतश्चुतः ।
येभिर्याथ उप सूर्यां वरेयं तेभिर्नो दस्रा वर्धतं समत्सु ।।
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जाए तो इन अश्वों को ऐसे ज्योतिर्मय प्राण कह सकते हैं जो मनुष्य के स्व में प्रकाश किया करते हैं (स्वस्मिन् राजन्ते) । इस दृष्टि से अश्विन् के अनेकता प्राप्त अश्व को हम प्राणरश्मियों के रूप में कल्पित कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, जो ब्रह्म अश्विनौ के मूल अश्व के रूप में देखा गया, वह वस्तुतः मूल प्राण है जो अनेकरूपता ग्रहण करके अनेक अश्वों के रूप में श्येनाः, हयाः, हंसासः, वयः आदि कहा जाता है ।
इसलिए तैत्तिरीय आरण्यक का कहना है कि प्राण ब्रह्म1 का एक रूप है । माध्यन्दिन शतपथब्राह्मण और जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण ‘प्राणो वै ब्रह्म'2 कह कर इसी बात की पुष्टि करते हैं। एक स्थान पर ‘प्राणो वै ब्रह्म पूर्व्यं'3 कह कर यह संकेत दिया है कि ब्रह्म का एक नव्य रूप भी हो सकता है । सम्भवतः ब्रह्म के इसी नव्य रूप की ओर संकेत करते हुए अन्यत्र ‘प्राणो वे सम्राट् परमं ब्रह्म'4 भी कहा गया है।
प्राण और अश्व :
इस प्रकार यह परमं ब्रह्म कहलाने वाला प्राण ही वह मूल अश्व है जिसके सम्बन्ध से अश्विनौ की कल्पना की गई प्रतीत होती है । प्राण की द्विविध गति को समंचन एवं प्रसारण5 कहा गया है। समञ्चन द्वारा प्राण का अन्तर्मुखी संकोच होता है तथा प्रसारण द्वारा बहिर्मुखी फैलाव होता है । यही द्विविध गति पराक् और अर्वाक् नाम से अश्विनौ की परिकल्पना की पृष्ठभूमि में स्थित है। मनुष्य व्यक्तित्व के विभिन्न स्तरों पर यह द्विविध गति जिन विभिन्न रूपों को धारण करती है, उनका पहले उल्लेख हो चुका है। मनुष्य व्यक्तित्व के इन्हीं स्तरों को ध्यान में रख कर अश्विनौ के अश्व की भी कल्पना की गई प्रतीत होती है। जब हम इस अश्व को प्राण कहते हैं तो उस अश्व के विभिन्न रूपों को प्राण के सन्दर्भ में भी खोज सकते हैं।
इस दृष्टि से 'प्राणो वै हरिः' कह कर कौषीतकि ब्राह्मण (17.1) अनेक हरयः रूप में प्रकट होने वाले अश्व की कल्पना प्राणरूप में प्रस्तुत करता है । वृषा अश्व की कल्पना का आधार भी हमें प्राण में मिल जाता
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1 प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात् । तै 9.3.1; तैउ 3.3.1
2 माशब्रा 14.6,10.2; जैउब्रा. 3.7.1.21
३ माशब्रा 6.3.1.17
4 माशब्रा 14.6.10.3
5 प्राणो वै समञ्चनप्रसारणं यस्मिन्वा अंगे प्राणो भवति तत्सं चाञ्चति प्र च
सारयति । माशब्रा 8.1.4.10
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है । अथर्ववेद के प्राणसूक्त में वर्षणशील प्राण का स्पष्ट वर्णन प्राप्त होता है-वहाँ प्राण को मेघ के समान गर्जन-तर्जन करने वाला, सबके लिए आनन्दवृष्टि करने वाला और वर्षा द्वारा आयुवृद्धि और सुगन्धि देने वाला कहा गया है--
यत् प्राण स्तनयित्नुनाभिक्रन्दत्योषधीः ।।
प्र वीयन्ते गर्भान् दधतेऽथो बह्वीर्वि जायन्ते ।।3 ।
यत् प्राण ऋतावागतेऽभिक्रन्दत्योषधीः ।
सर्वं तदा प्र मोदते यत् किं च भूम्यामधि ।।4
यदा प्राणो अभ्यवर्षीद् वर्षेण पृथिवीं महीम् ।।
पशवस्तत् प्र मोदन्ते महो वै नो भविष्यति ।।5
अभिवृष्टा ओषधयः प्राणेन समवादिरन् ।
आयुर्वो नः प्रातीतरः सर्वा नः सुरभीरकः ।।6 ।।
यदा प्राणो अभ्यवर्षीद् वर्षेण पृथिवीं महीम् ।
ओषधयः प्र जायन्तेऽथो याः काश्च वीरुधः ।। 17 शौ 11.4.3-6, 17
अश्व के कुछ अन्य नाम भी प्राण के लिए प्रयुक्त होते हैं । उदाहरण के लिए, शांखायनब्राह्मण1 प्राण को सुपर्ण कहता है और अथर्ववेद उसके लिए हंस नाम का प्रयोग करता हुआ कहता है कि यह हंस अपने एक पैर को ही सलिल से ऊपर उठाता है; परन्तु दूसरा पैर नहीं उठाता। यदि उस पैर को भी उठा ले तो न तो ‘अद्य' न ‘श्वः' होगा, न रात्रि होगी और न उषा का ही उदय होगा
यदंग स तमुत्खिदेन्नैवाद्य न श्वः स्यान्न रात्री नाहः स्यान्न व्युच्छेत् कदाचन ।। (शौ 11.4.21)
अद्य और श्वः, रात्रि और दिन के द्वन्द्व से परे रहने वाला यह प्राण ही पूर्वोक्त सम्राट् प्राण नामक परमं ब्रह्म है। यही अश्विनौ का मूल अश्व है। इसी का संकेत हमें ऋग्वेद के एक ऐसे मन्त्र में प्राप्त होता है जहाँ किसी ऐसे अज्ञेय अद्भुत तत्त्व का वर्णन है जिसका न वर्तमान है न श्वः--
न नूनमस्ति नो श्वः कस्तद्वेद यदद्भुतम् । (1.170.1)
इस प्रकार श्वः शब्द के अभाव के आधार पर यहाँ अश्व शब्द की व्युत्पत्ति भी अभिप्रेत प्रतीत होती है । यही द्वन्द्वातीत अश्व रूपी प्राण उस द्वन्द्वात्मक और अनेकतामय काल रूपी अश्व का रूप धारण कर लेता है जो सप्तरश्मि सहस्राक्ष, अजर तथा भूरिरेता है जिस पर विपश्चित कविगण ही आरोहण कर सकते हैं और सभी भवन जिसके चक्रस्वरूप हैं--
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1 प्राणो वै सुपर्णः (शां. आ. 1.8) ...
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कालो अश्वो वहति सप्तरश्मिः सहस्राक्षो अजरो भूरि रेताः ।।
तमा रोहन्ति कवयो विपश्चितस्तस्य चक्रा भुवनानि विश्वा ।। (शौ 19.53.1)
यह भूरिरेता होने के कारण अनेकता की सृष्टि अथवा वृष्टि करने वाला सहज ही हो जाता है, इसीलिए वृषाअश्व को रेतोधा1 भी कहा जाता है । इसी वृषा अश्व का रेतस् परिवृद्ध होकर अधोमुखी नाना रूपात्मक सृष्टि में प्रकट होता2 है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, यह रेतस् आनन्दमय तत्त्व के रूप में सोम है और ज्ञानमय तत्त्व के रूप में आदित्य है। इसीलिए जहाँ वृषा अश्व का रेतस् अनेकत्र सोम3 को बताया गया, वहीं काठकसंहिता में वृषा अश्व का रेतस् आदित्य4 भी कहा गया है।
आत्मा का विशुद्ध ज्ञानमय पक्ष आदित्य5 है, अग्नि6 है । वही जब सोम की वर्षा करता है तब वृषा पर्जन्य7 कहलाता है, क्योंकि आनन्द की वर्षा ज्ञान द्वारा सम्भव है, अज्ञान से नहीं । ध्यान की अवस्था में जब आनन्द की वर्षा होने का अनुभव होता है, उसे ही धर्ममेघसमाधि कहते हैं। वह वृषा पर्जन्य का वीर्य या रेतस् ही होता है जो ध्यान में बरसता है। उसी वर्षा से वास्तविक आनन्द की प्राप्ति होती है। वृषा अश्व की ये ही धाराएँ बरसें, ऐसी प्रार्थना मरुतः से की गई है--
वृष्णो अश्वस्य धाराः प्रपिन्वत मरुतः । (ऋ. 5.83.6)
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1 वृषा वाम् अश्वो रेतोधा रेतो दधातु । मैसं 3.12.20
2 प्र प्यायतां वृष्णो अश्वस्य रेतोऽर्वाहतेन स्तनयित्नुनेहि । शौ 4.15.11; वै 5.7.10
3 अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतः.....। ऋ. 1.164.35, मा 23.63,
का 25.10.10, तैसं 7.4.18.2, काठसं 44.4, शौ 9.14.10
4 काठसं 37.13, 14
5 असौ वा आदित्यो वृषाश्वः तै आ 5.3.5
6 वृषा ह्यश्वो वृषाग्निः । मैसं 3.1.7
7 नृषा वा अश्वो वृषा पर्जन्यः । तैसं. 2.4.9.4, मैसं 2.4.8, काठसं 8.5