नवम अध्याय
अश्व के पर्याय
अश्व के पर्यायों का एकत्व और बहुत्व :
अब तक के विवेचन में वैदिक अश्व के विभिन्न नामों का उल्लेख हुआ है। इन नामों में से 26 नाम निघण्टु की सूची में परिगणित हैं। इन में से अव्यथयः, श्येनासः, सुपर्णाः, पतंगाः, नरः ह्वार्याणाम्, हंसासः तथा अश्वाः का वहाँ बहुवचन रूप ही दिया गया है, यद्यपि इनमें से कइयों का एकवचन रूप भी वेद में प्राप्त होता है । इसी प्रकार निघण्टु ने जिन नामों को एकवचन में रखा है उनके भी बहुवचन रूप वैदिक वाङ्मय में प्राप्त हो जाते हैं। कारण स्पष्ट है, अश्व शब्द का विवेचन करते हुए बताया गया है कि मूलतः प्राण ब्रह्म को ही अश्व अथवा सम्राट् ब्रह्म कहा जाता है । यही मूल प्राण घट-घटवासी ब्रह्म के साथ प्रत्येक व्यष्टिगत देह में भी विद्यमान है । अतः इस दृष्टि से मूल प्राण भी एक से अनेक हो रहा है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यष्टि में वह प्राण अनेक प्रकार के प्राणों में विभक्त होकर नाना रूप धारण करता है। डॉ. श्रद्धा चौहान ने मनुष्यनामानि पर लिखते हुए इन प्राणों को देवों, पितरों, गन्धर्वों, असुरों, पिशाचों आदि अनेक रूपों में व्यक्त होते हुए बताया है। ये सभी प्राण मनुष्य-नामानि के अन्तर्गत पठित हैं जिनमें से कुछ आत्मा के विकास में योग देते हैं जिन्हें देव कोटि में रखा जाता है अथवा मित्र तथा सहायक माना जाता है; परन्तु कुछ ऐसे प्राण भी हैं जो असुर प्राण होते हैं। जो सहायक होने पर दास व विरोधी होने पर दस्यु अथवा पूतना कहे जाते हैं। पालक प्राणों को पितर कहा जाता है जो मनुष्य की सहज वृत्तियों में प्रकट होते हैं।
इसलिए स्पष्ट है कि जिस मूल प्राण को अश्व कहा गया था वही जब अनेकता ग्रहण करता है तब उन्हें अश्वाः, हंसासः, अत्याः, सुपर्णाः, श्येनाः आदि भी कहा जाता है । वैदिक वाङ्मय में इन प्राणों का नामकरण उनके कार्य-व्यापार के आधार पर किया गया है । इसलिए कभीकभी एक या अनेक नाम अश्व के किसी नाम के विशेषण में परिणत होकर प्रयुक्त हो सकते हैं। इस दृष्टि से निघण्टु में परिगणित निम्नलिखित नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं—आशुः सप्तिः1, अश्वाँ अत्याँ2,
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1 मा. 22.22. का 24.8.2 तै.सं. 7.5.18.1; काठ 45.14 मै. 3.12.6
2 ऋ. 2.34.3
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अत्याः अश्वाः1, हंसासः2 इव दिव्यासः अत्याः, सुपर्णः3 वार्जन्यो हंसः, वाजीइव4 अत्याः, अत्य इव5 आशुःवाजी । किसी गुण विशिष्ट प्राण रूपी अश्व का एकत्व और बहुत्व प्राणों का स्तर-भेद सूचित करता हुआ प्रतीत होता है। उदाहण के लिए, यहाँ हंस नामक प्राण रूपी अश्व का विवेचन किया जा रहा है।
हंसासः और हंसः :
निघण्टु के अश्व नामों में हंसासः शब्द आया है। इसका अर्थ है कि निघण्टु के अनुसार, अश्व के बहुवचनान्त रूप का ही हंस पर्याय माना जाता था; परन्तु हंस शब्द का इतिहास देखते हैं तो पता चलता है कि सर्वप्रथम हंस शब्द ऋग्वेद के 4.40.5 सूक्त में दधिक्रावा के अन्य अनेक विशेषणों के साथ इस प्रकार प्रयुक्त हुआ है--
हंसः शुचिषद्वसुरन्तिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।
नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम् ।। (ऋ. 4.40.5) कठोपनिषद्6 में यह पूरा मन्त्र ज्यों का ज्यों विमुक्त आत्मा के प्रसंग में प्राप्त होता है--
पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः ।
अनुष्ठाय न शोचति विमुक्तश्च विमुच्यते । एतद्वै तत् ।।1
हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद् होता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम् बृहत् ।।2
अतः डॉ. फतहसिंह ने अपने वैदिक दर्शन7 में ऋग्वेदीय मन्त्र को भी आत्मापरक माना है और जिस दधिक्रा अश्व के लिए वहाँ हंस शब्द प्रयुक्त हुआ है उसके विषय में लिखा है कि—
उक्त अश्व के वृषन् रूप का नाम दधिक्रा भी है, जिसके लिए ऋग्वेद 4. 38-40 सूक्त लिखे गए हैं । ‘मनोमय' पुरुष से उत्पन्न ‘प्राणमय' तथा ‘अन्नमय' की सारी सृष्टि का सोम यदि ‘पय' माना जाए तो ‘मनोमय' का सोम दधि है और मनोमय पुरुष को दधिक्रा कहा जा सकता है । विज्ञानमय में पहुंच कर मनोमय का दधि शुचि होकर घृत में परिवतित हो जाता है। ‘विज्ञानमय के ‘समुद्र' से इसी घृत की मधुमान् ‘ऊमि' उत्पन्न होती हुई ऋग्वेद 5.58 में दिखलाई गई है। इस ‘घृत' का मूल स्रोत ब्रह्म वृषभ
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1 वही, 1.81.2 ,
2 वही, 1.163.10
3 तै.सं. 5.5.31.1
4 ऋ. 9.96.15
5 वही, 1.135.5
6 कठ. 2.2.1-2
7 डॉ. फतहसिंह : वैदिक दर्शन, पृष्ठ 160
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है । जिसके चार सींग (जागर्ति, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय), तीन पैर (इन्द्र, सोम, अग्नितत्त्व), दो शिर (ब्रह्म, वाक्) तथा सात हाथ (सप्त शीर्षण्य प्राण) हैं और जो तीन बन्धनों (स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर) से बँधा हुआ मर्त्यों में आविष्ट है। इसी गौ में तीन आवरणों (विज्ञानमय का समुद्र व गर्भ और ‘मनोमय') से पणियों द्वारा छिपाया हुआ घृत देवों को मिलता है और तीनों आवरणों में से क्रमश: इन्द्र (अश्व), सूर्य (श्वित) तथा वेन (मनोमय) द्वारा वह निकाला जाता है। निकलते ही वह सुनहरी तथा अरुण ऊर्मियों, सरिताओं तथा धाराओं के रूप में बहने लगता है। मनोमय की यह नानारूपात्मक सृष्टि ही यज्ञ है। ये सारी घृत धाराएँ चारों ओर से फिर उसी में जाकर पवित्र होती हैं, जिसमें सोम तथा यज्ञ का जन्म होता है, यह स्थान वही समुद्र है जिसमें सारा भुवन अधिष्ठित है। (ऋ. 4.58.1-11)
विमुक्त रूप में वह एक आनन्दमय पुरुष 'हंस' है । अत: कठोपनिषद् के अतिरिक्त, अन्य उपनिषदों में भी उसे हंस कहा गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में आत्मा को हंस कहते हुए उसे सर्वजीवों में स्थित एक बृहत् ब्रह्मचक्र में भ्रमण करने वाला बताया गया है। वह तब तक भ्रमण करता रहता है, जब तक अपने को उस प्रेरक ब्रह्म से पृथक् मानता है। परन्तु जब वह उससे अपने को अभिन्न मान कर अद्वैत भाव को प्राप्त होता है तो वह सर्वथा मुक्त होकर अमृतत्व का अधिकारी होता है ।1 हंसोपनिषद् तो पूर्ण रूप से इसी आत्मा रूपी हंस का वर्णन करती है। उस उपनिषद् में इस हंसतत्त्व के स्वरूप तथा विस्तार के वर्णन को अनाख्येय तथा गुह्य माना गया है जिसके ज्ञान से भुक्ति मुक्ति दोनों की प्राप्ति होती है--
अनाख्येयमिदं गुह्यं योगिनां कोशसंनिभम् ।
हंसस्याकृतिविस्तारं भुक्ति-मुक्ति-फल-प्रदम् ।। (हं. 2-3)
हंस के इस विस्तार को ध्यान में रख कर ही उसे एक से अनेक मान कर हंसासः कहा जाता है । वह आत्मा रूपी हंस अपनी वाक्शक्ति से स्वयं को व्यक्त करता हुआ आनन्दमय कोश में से ज्ञानमय कोश के अन्तर्गत पराची तथा सध्रीची अवस्था में क्रमशः अश्व तथा श्वित (गर्भ) कहा जाता है। यह गर्भ प्रारम्भ में पुरुष (आनन्दमय कोशस्थ) में सब अंगों में व्याप्त रेतस् के रूप में होता है, जो वाक् स्त्री में गर्भाधान द्वारा सिंचित होने पर अश्वित होने से अश्व, फिर उसमें श्वित होने पर गर्भ तथा जन्म लेने पर ‘मनोमय’ रूप में नानाविध वर्षण (नानारूपात्मक सृष्टि) करने के कारण ‘वृषन्' या 'वृषभ' कहा जाता है। वाक् द्वारा यह गर्भ धारण, वर्धन तथा
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1 श्वेताश्वर उपनिषद् 1-6
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प्रसार करने को ही जलसृष्टि कहा जाता है तथा इसे जलवृष्टि के रूपक द्वारा भी व्यक्त किया गया है । परम व्योम (आनन्दमय ब्रह्म) की सहस्राक्षरा वाक् वृषन् अश्व के रेतस् सोम से जलों (सलिलानि) की सृष्टि करती हुई एकपदी, द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी तथा नवपदी होती है, और उससे अनेक समुद्र क्षर-क्षर करते हुए प्रवाहित होते हैं, जिनमें चारों दिशाएँ जीवन धारण करती हैं। इसी क्रिया द्वारा अक्षर (आनन्दमयब्रह्म) का क्षरण होता है, जिससे सारा विश्व जीता है। आगम-ग्रन्थों में इसी सहस्राक्षरा वाक् को सहस्राक्षरा वाग्देवी कहा जाता है। जिसके भी निम्नलिखित नौ पद हैं--
1 काल-निमेष से लेकर प्रलय तक, जिसके अन्तर्गत चन्द्र तथा सूर्य भी
आ जाते हैं ।
2 कुल–'रूप' (आकृति) रखने वाली सारी वस्तुएँ ।
3 नाम-नामधारिणी सारी वस्तुएँ ।
4 ज्ञान-दो प्रकार का, सविकल्पक और निर्विकल्पक ।
5 चित्-अहंकार, बुद्धि, चित, मन और उन्मन ।
6 नाद-राग, इच्छा, कृति, प्रयत्न जो क्रमश: परा, पश्यन्ती, मध्यमा,
तथा वैखरी के समकक्ष हैं ।
7 बिन्दु-(आध्यात्मिक बीज)- षट्चक्र (मूलाधार से आज्ञा तक)
8 कर्म-मूलाधार से आज्ञा तक पचास वर्ण ।
9 जीवन-मायाबद्ध आत्मा।
अतः यहाँ यह कहना ठीक है कि वाक् नानारूपात्मक सृष्टि रूप में व्यक्त होती है, वहाँ यह भी कहा जा सकता है कि आनन्दमय ब्रह्म ही अश्व, श्वित (गर्भ) तथा वृषन् होकर सारे विश्व का कर्ता बनता है। अतः अश्वसूक्तों1 में कारण-ब्रह्म के समान ही अश्व का वर्णन किया गया गया है । वह देवजात वाजी विश्वरूप है, जो इन्द्रपूषण का 'प्रिय' अथवा पूषण का विश्वदेव्य भाग ले जाता है और मित्र, वरुण, अर्यमा, आयु, इन्द्र, ऋभुक्षा तथा मरुत्, जो प्रकाशित होते हैं, वे सब उसी के कृत्य (वीर्याणि) हैं (1.162.1-4) और उसकी सारी क्रिया तथा सारा दानापानी देवों द्वारा ही होता है (1.162,14)। वह समुद्र या पुरीष से सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाला है और वह न कभी मरता है, न क्षीण होता है। (1.162.21,163.1) । दिव (पराची), समुद्र (सध्रीच) तथा आपः (तुलना कीजिए सलिलानि) में से प्रत्येक स्थान पर उसके तीन बन्धन (इन्द्र-तत्त्व,
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1 ऋग्वेद 1.162; 163
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सोम-तत्त्व तथा अग्नि-तत्त्व) हैं अथवा वरुण ही उसे आच्छन्न किए हुए है। इसीलिए वह ‘परम जनित्र' कहलाता है (1.163.4) । इस पर सबसे पहले इन्द्र (पराची ब्रह्म) बैठा; गन्धर्व (सध्रीची ब्रह्म) ने उसकी बागडोर पकड़ी तथा सूर (मार्तण्ड या मनोमय) से वह वसुओं द्वारा नानात्मक सृष्टि के रूप में काटा-छाँटा गया, नाकमयी सृष्टि को एकीभूत या संयमित करने वाले यम (पराची ब्रह्म) से वह युक्त हो गया (1.163.2) । अतः उनको यम (अश्वित), आदित्य(श्वित) तथा त्रित भी कहते हैं । वह सोम से आवृत रहता है (1.163.3)। वह मनोजवा (मनोमय) ब्रह्म ‘अवर' इन्द्र है, जिसकी देवता लोग आहुति दे देते हैं। जिससे अनेक अश्वगण हंसों की भाँति श्रेणिबद्ध होकर निकलते हैं (1.163.9, 10); समुद्र से उत्पन्न होते समय इसके श्येन (अग्नि) के पक्ष तथा हरिण (सोम) के बाहु होते हैं (1.163.1)। यह अश्व वास्तव में आत्मा है, दिव से पतित होता हुआ पतंग है (1.163.6)।
हंसासः, पतंगा और श्येनासः
इससे स्पष्ट है कि ऋग्वेद 1.162 तथा ऋ. 1.163 में जिस अश्व का वर्णन है वह उसी दधिक्रावा अश्व का विस्तार प्रस्तुत करता है जिसे वैदिक वाङ्मय रूप में हंसः शुचिषद् आदि कहा गया1 है। इसी का ज्ञान कराने वाली हंसविद्या कहलाती है जिसकी महिमा का वर्णन ब्रह्मविद्योपनिषद् इस प्रकार करती है—
यो ददाति महाविद्यां हंसाख्यां पावनी पराम् ।
तस्य दास्यं सदा कुर्यात् प्रज्ञया परया सह ।।
शुभं वाऽशुभमन्यद्वा यदुक्तं गुरुणा भुवि ।
तत्कुर्यादविचारेण शिष्यः संतोष-संयुतः ।।
हंसविद्यामिमां लब्ध्वा गुरूशुश्रूषया नरः ।। (ब्र.वि. 3.26-28)
हंसोपनिषद्2 ने जिसे हंस का ‘आकृति-विस्तार' कहा है, उसे ही प्राणरूप जीव का प्रसारण कहा जाता है क्योंकि ब्रह्मोपनिषद् के अनुसार, प्रसंग में जीव को प्राण कहा जाता3 है। मनोमय, प्राणमय तथा अन्नमय कोशों में प्राण अपने अवरोहण क्रम से आत्मविस्तार करता है और वही अपने आरोहण क्रम से विज्ञानमयकोश में अपने सम्पूर्ण अनेकत्व रूपविस्तार को समेटता हुआ एकत्रीकरण करके आनन्दमयकोश के अद्वैत
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1 वही, 40.5 मा. 22-23, का. 24.8.2; तै.सं. 7.5.12.1
काठ. 45.14; मै. सं. 3.12.6 इत्यादि ।
2 हं उ. 2-3
3 स जीवः प्राण इत्युक्तो वालाग्रशतकल्पितः । ब्र. वि. उ. 14
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एकत्व को ग्रहण करता है। यह आरोहण प्राण की समञ्चन-क्रिया का परिणाम है ।
योगोपनिषदों में, प्रायः अद्वैत रूप को ‘सः' मान कर जीव जब ‘सोऽहम्' का जप करता है, तो इसका अर्थ होता है 'मैं वह हूँ' । आरोह क्रम में जो ‘सोऽहम् ध्वनि होती है वही अवरोह क्रम में ‘हंसो' अथवा 'हंस' हो जाती है। इस प्रकार हंस-मन्त्र (सोऽहं) के द्वारा जब साधक ध्यानस्थ होता है तो उसे अपने भीतर ध्वनियुक्त 'हंस' का ज्ञान1 होता है । यह ज्ञान प्राप्त करने के लिए, हंस-मन्त्र के जप के साथ कुम्भक का उत्तरोत्तर अभ्यास करना पड़ता2 है। प्राणापान को सम करके, साधक अपने मस्तकस्थ 'अमृत' का पान करता है; इस आस्वादपूर्वक दीपाकार ज्योति का दर्शन ही उसका ‘अमृताभिषेक' है जिसके निरन्तर अभ्यास से जरामरणरोगादि से मुक्ति तथा अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति सम्भव मानी
गई है--
नाभिकन्दे समौ कृत्वा प्राणापानौ समाहितः ।
मस्तकस्यामृतस्वादं पीत्वा ध्यानेन सादरम् ।।
दीपाकारं महादेवं ज्वलन्तं नाभिमध्यमे ।
अभिषिच्यामृतेनैव हंस हंसेति यो जपेत् ।।
जरामरणरोगादि न तस्य भुवि विद्यते ।
एवं दिने दिने कुर्याणिमादिविभूतये ।। (ब्र.वि.उ. 22-24)
हंस की कल्पना के आधारभूत समञ्चन-प्रसारण की दृष्टि से कुछ अन्य अश्व नामों को भी समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए, पतंगाः और श्येनासः को ले सकते हैं। पतंग की व्युत्पत्ति 'पतन् गच्छतीति पतंगः की जाती है। सायण ने पतंग का अर्थ पतनशील अथवा पतनसमर्थ भी किया है । अश्वाः पतंगाः (ऋ. 1.118.5) तथा श्येनासः आसवः पतंगाः (ऋ. 1.163.6) में पतंग श्येन शब्द स्वयं साथ-साथ अश्व के विशेषण होकर प्रयुक्त हुए हैं।
एकवचन में पतंग शब्द :
आत्मा रूपी सूर्य को पतंग कहा गया है। वह पतंग जिस वाक् को मन के द्वारा धारण करता है उसी को विज्ञानमय आत्मारूपी गन्धर्व गर्भ
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1 नभस्थं निष्कलं ध्यात्वा मुच्यते भवबन्धनात् ।
अनाहतध्वनियुतं हंसं दो वेद हृद्गतम् । ब्र. वि. उप. 20
2 स्वप्रकाशचिदानन्दं स हंस इति गीयते ।
रेचकं पूरकं मुक्त्वा कुम्भकेन स्थितः सुधी ।। वही, 21
2
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में धारण करता है और उसी को स्वयं ज्योतमाना मनीषा के रूप में आनन्दमयकोश रूपी 'ऋतस्य पद में योगी लोग पूर्ण रूप से प्राप्त1 करते हैं। यह आत्मा रूपी पतंग वही है जिसे विपश्चित् लोग हार्दिक मन द्वारा असुर की माया से प्रभावित हुआ देखते हैं तथा आनन्दमयकोश रूपी समुद्र के भीतर उसी मरीचि पद को देखना2 चाहते हैं । इसी जीवात्मा रूपी पतंग को ऋग्वेद (162) और (163) में अश्व के रूप में कल्पित किया गया है और ‘पतयन्तं पतंगम्' कहकर वहीं पर व्युत्पत्ति की ओर संकेत किया गया है। यह पतनशील पतंग ही वह ‘पतत्रि' है जिसे साधक अपने भीतर सुगम तथा अरुण पथों द्वारा गतिशील होता हुआ3 देखता है । ये अनेक मार्ग वस्तुतः आत्मा रूपी पतंग की वाक् की विभिन्न धाराएँ हैं जो अहङ्कार, बुद्धि, मन तथा विभिन्न इन्द्रियों की चेतनधाराओं के रूप में गतिशील होती हुई आत्मा को भी गतिशील करती हैं। आत्मा और वाक् का वही नित्य सम्बन्ध है जो किसी भी शक्तिमान् और उसकी शक्ति के बीच होता है। इसलिए वाक् के अनेक रूपों के सन्दर्भ में पतंग को भी अनेक रूप धारण करके पतंगाः अथवा ‘आसवाः पतंगाः श्येनासः दिव्यासः आदि कहा जाता4 है।
इसी प्रकार समञ्चन क्रिया द्वारा जो आत्मा अपनी अनेकता समेटता हुआ पतंग है वही अपनी प्रसारण क्रिया द्वारा अनेक पतंगों के रूप में कल्पित किया जाता है। यही बात श्येन शब्द के प्रसंग में भी चरितार्थ होती है। इसीलिए अभी कई स्थानों पर पतंगाः के साथ श्येनासः अथवा अश्वासः शब्द का प्रयोग देखा गया है । इस गतिशीलता के कारण जिस प्रकार हंस तथा पतंग नाम से आत्मा को एक पक्षी के रूप में कल्पित किया जा सकता है, उसी तरह से उसे श्येन नाम से भी अनेक रूपों में कल्पित किया जाता है। श्येन रूप में उक्त आत्मारूपी अश्व वैदिक वाङ्मय में अमृत अथवा सोम लाने वाला भी कहा जाता है । तब उसका प्रयोग केवल एकवचन में ही होता है क्योंकि सोम अथवा अमृत आत्मा का वह आनन्दरस है जो उसे ब्रह्मात्म सायुज्य द्वारा आनन्दमय कोश में प्राप्त हो सकता है । वह तभी सम्भव है जब उसकी वाक् विविधचित्तवृत्तियों में अपने बिखरे हुए रूपों को समेटती हुई अन्तर्मुखी होकर ‘श्येनाः' से 'श्येनः' हो जाती है । आनन्दमय कोश में आत्मा की वाक् आत्मा में लीन होकर मानो अमृत के सागर में डुबकी लगा कर अमृत घट
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1 ऋ. 10.177.2, तु. तै. ब्रा. 3.12.9.1
2 ऋ. 10.117.1 तु. आश्व. श्रौ. 3.8
3 वही, 1.163.6
4 वही, 1.118.4
135.
है
भर कर पुन: विज्ञानमय, मनोमय आदि कोशों में लौट आती है। इसीलिए अनेक आख्यानों में वाक् को ही श्येन होकर अमृत लाने वाला कहा गया है क्योंकि वास्तव में वाक् आत्मा का ही एक सक्रिय रूप है जिसे उसकी शक्ति कहा जाता है। अतः जहाँ एक दृष्टि से अनेकता को समेटने वाली और आत्मा में लीन होने वाली वाक् को सोम का आहरण करने वाला श्येन कहा जा सकता है, वहीं दूसरी दृष्टि से आत्मा को भी अंतर्मुखी होकर श्येन रूप धारण करके सोम अथवा अमृत को लाने वाला कहा जा सकता है । इसी विषय का विस्तृत विवेचन करते हुए डॉ. फतहसिंह ने वैदिक वाङ्मय से सङ्कलित अनेकों आख्यानों को अपने वैदिक दर्शन में लिपिबद्ध2 किया है।
सुपर्णाः तथा अश्वाः
इनमें से कइयों में वाक् को सुपर्णी तथा उसके छन्दरूपी पुत्रों को सुपर्ण कहा जाता है । आत्मा की वाक् शक्ति के दो रूप हैं-एक को कद्रू तथा दूसरी को सुपर्णी कहा जाता हैं। दोनों में आत्मा के स्वरूप-ज्ञान को लेकर स्पर्धा हुई। कद्रू की जीत हुई और सुपर्णी को उसकी दासी होना पड़ा। दासत्व से छुटकारा पाने के लिए सुपर्णी को सोम लाने के लिए कहा गया। सुपर्णी के छन्दरूपी पुत्रों में से केवल गायत्री छन्द ही श्येन होकर सोम ला सका । गायत्री सुपर्णी का पुत्र होने से सौपर्ण अथवा सुपर्ण कहा गया ।
इस आख्यान को शतपथ, ऐतरेयादि ब्राह्मणों तथा मैत्रायणी, तैत्तिरीय एवं काठकादि यजुर्वेदीय संहिताओं में कुछ हेर-फेर के साथ दिया गया है । सबका निचोड़ यही है कि छन्द सुपर्ण है जो सोम लाकर अपनी माता को मुक्त कराता है। उसके साथ ही यह भी कहा जाता है। कि वह एक सुपर्ण जब सोम या अमृत लेकर लौटता है तो वह सोम अनेक सवनों या यज्ञों में परिणत हो जाता है। प्रकारान्तर से यही एक सुपर्ण का अनेकत्व हो सकता है जिसके सन्दर्भ में सुपर्णाः (बहुवचन) शब्द को अश्वनामों में परिगणित किया गया। इसका विस्तृत विवेचन डॉ. फतह सिंह ने वैदिक दर्शन2 में इस प्रकार दिया है
‘उपर्युक्त सुपर्णी तथा उसकी सन्तानों का वर्णन ऋग्वेद 1.164.18 से 25 में एक दूसरे रूपक द्वारा किया गया है जिसमें ‘मनोमय' पुरुषः (देवं मनः) के जन्म का उल्लेख करने के पश्चात् उससे विकसित सृष्टि
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1 देखिए : वैदिक दर्शन पृ. 142-154 तक।
2 पृ. 162-164
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का उल्लेख है। इस सृष्टि के नानारूप पर-अवर, पराच-अर्वाच अथवा ब्रह्मवाक् तत्त्वों से इस प्रकार मिल कर बने हैं कि पराच को अर्वाच और अर्वाच को पराच कहा जाता है । ये सब रूप इन्द्र तथा सोम ने बनाए हैं जो रजः (अग्नि तत्त्व या क्रियाशक्ति) के धुर से युक्त होने के समान प्रगतिशील है (वहन्ति) । यह सारी सृष्टि एक वृक्ष है, जिस एक ही वृक्ष (समानवृक्ष) पर दो संयुक्त सखा, सुपर्ण आलिंगनबद्ध हैं, इन दोनों में से एक तो वृक्ष के स्वादिष्ट ‘पिप्पल' खाता है और दूसरा बिना खाए ही देखता रहता है। यह ‘स्वादु' पिप्पल तो पहले (अग्रे) उसका है जो विश्वभुवन का स्वामी तथा गोपा है और जो धीरे-धीरे यहाँ (मनोमय जनित सृष्टि में) आकर 'पाक' (पूर्ण विकास) को प्राप्त हुआ है। यही वह वृक्ष है जिससे सारे मधु-भक्षी सुपर्ण उत्पन्न होते हैं और जिसमें वे निविष्ट होते हैं और जहाँ सुपर्ण लोग निर्निमेष अमृत को भोगते हैं; परंतु जो 'पिता' को नहीं जानता, वह इसको नहीं खा पाता (तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद) । गायत्र में जो गायत्र अध्याहित है, त्रैष्टुभ से जो त्रैष्टुभ निर्मित हुआ तथा जगत् में जो जगत् पद अध्याहित हैं, उसको जो जानते हैं वे ही अमृतत्व का भोग करते हैं। गायत्र से अर्क (त्रैष्टुभ) सोम, त्रैष्टुभ अर्क से वाक् सोम तथा वाक से वाक्, द्विपदा चतुष्पदा होकर अक्षर से सात वाणियों का निर्माण हुआ। जगत् साम से दिव में सिन्धु स्तब्ध हुआ, रथन्तर में सूर्य देखा गया है तथा गायत्र की तीन समिधाएँ कही जाती हैं । इसी प्रकार (वह) अपनी महामहिमा द्वारा प्रकृष्ट रूप से प्रकाशित हुआ। इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि ‘मनोमय उद्भूत प्राणमय तथा अन्नमय तक जितनी नाना सृष्टि है, वह सब इन्द्र, सोम तथा अग्नि द्वारा निर्मित हैं और इन तीनों तत्त्वों से निर्मित सृष्टि-वृक्ष पर ब्रह्म तथा वाक् ही सुपर्ण-सुपर्णी हैं, जो संयुक्त रूप से इस पर विहार कर रहे हैं; परन्तु इस मनोमय का पिता वास्तव में विज्ञानमय है, जिसमें भी अग्नि, सोम तथा इन्द्र अथवा गायत्र, त्रैष्टुभ तथा जगत् पद थे, उसी के इन तीनों पदों से ‘मनोमय के भी गायत्र, त्रैष्टुभ तथा जगत् पद का अस्तित्व है । मनोमय के इन तीनों पदों की उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है-गायत्र से त्रैष्टुभ अर्क, त्रैष्टुभ अर्क से वाक् (जगत् ) । अतः वाक् (जगत्) में अग्नि और सोम या गायत्र तथा त्रैष्टुभ दोनों तत्त्व विद्यमान हैं और यही वाक् गायत्र-त्रैष्टुभमय वाक् (जगत् ) अक्षर (ब्रह्म) के साथ-साथ एक से द्विपद तथा चतुष्पद होकर वह सात वाणियों के रूप में प्रकट हुई । (अथर्ववेद 8.9.14 में भी गायत्री, त्रिष्टुभ, जगती आदि में अग्नि, सोम के तत्त्वों की ही उपस्थिति बतलाई गई है, और अन्यत्र सारी सृष्टि अग्निसोमात्मक ही
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कही गई है। अतः सप्त वाणियों (पिण्डाण्ड में सप्त शीर्षण्य प्राण, ब्रह्मांड में सप्तरश्मि) या सारे विश्व में अग्नि, सोम तथा इन्द्र अथवा गायत्र, त्रिष्टुभ तथा जगती तत्त्व पाए जाते हैं, जो वास्तव में अग्नि, सोम (गायत्र त्रैष्टुभ) नामक दो तत्वों के अन्तर्गत अथवा इन्द्र नामक एक तत्त्व के अन्तर्गत आ सकते हैं। इसीलिए उक्त 1.164 के प्रारम्भ ही में सृष्टि के इन तीन तत्त्वों को तीन भाई कहा है और फिर इन तीनों में एक ही सप्तपुत्री विश्वपति की उपस्थिति देखी गई है। इसी को दूसरे प्रकार से व्यक्त करते हुए, सारे सृष्टि चक्र को सारे भुवनों का अधिष्ठान-स्वरूप त्रिनाभिचक्र अथवा सप्त नामधारी एक ही अश्व के द्वारा एक चक्री रथ कहा गया है।
अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः । १
तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ।।1
सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा।
त्रिनाभि-चक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः ।।2 ।।
इमं रथमधि ये सप्ततस्थुः सप्तचक्रं सप्त वहन्त्यश्वाः।
सप्त स्वसारो अभि सं नवन्ते यत्र गवां निहिता सप्त नाम ।।3।।
हम ऊपर देख चुके हैं कि प्रगतिमय होने से (मनोमय) की सृष्टि के अन्तर्गत इन्द्र को वायु भी कहा जा सकता है, अतः इन तीनों तत्त्वों को अग्नि, सोम तथा वायु भी कहा जा सकता है; परन्तु मनुष्य (मनु अर्थात् ‘मनोमय से उत्पन्न) सृष्टि के ये तीन व्यक्त और व्याकृत तत्त्व तो वाक के तुरीय पद के अन्तर्गत हैं, इसके तीन पद और भी हैं, जो गुहा (विज्ञानमय गर्भावस्था) में छिपे हैं और जिनको केवल मनीषी ही जान सकते हैं--
त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम् ।
विश्वमेको अभि चष्टे शचीभिर्ध्राजिरेकस्य ददृशे न रूपम् ।
चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः ।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ।।(ऋ. 1.164.44; 45)
अतएव वाक ही सुपर्णी है, जिसकी सन्तानें गायत्री, त्रिष्टुभ् तथा जगती हैं। ये ही तीन तत्त्व अग्नि, सोम तथा इन्द्र वायु हैं, जिससे सारी मनोमयी सृष्टि निमित है। इन तीनों में से अग्नि (गायत्री) ही क्रियाशक्ति होने के कारण श्येन कही जा सकती है और गायत्री से (अग्नि से) त्रैष्टुभ (सोम) तथा त्रैष्टुभ से जगत् की उत्पत्ति होने से गायत्री-अग्नि श्येन ही सोम लाने वाला कहा जा सकता है । ‘मनोमय' सृष्टि के तीनों तत्त्वों की माँ सुपर्णी ‘विज्ञानमय' की गायत्री है। यह वही गायत्र है जिसकी
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समिधाएँ वे तीनों तत्त्व हैं, जिनके द्वारा वह ब्रह्म अपनी महा महिमा को प्रकृष्ट रूप से प्रकाशित करता है—
‘गायत्रस्य समिधास्तिस्र आहुस्ततो मह्ना प्र-रिरिचे महित्वा' ।।(वही, 25);
परन्तु विज्ञानमय' के अन्य दो तत्व निष्क्रिय से हैं । जगत् में ‘सिन्धु' स्तब्ध था और रथंतर (त्रैष्टुभ) में सूर्य दिखाई पड़ा। अत: ‘विज्ञानमय' के तीनों तत्वों को ऋग्वेद (10.72) में वर्णित क्रमशः सलिल समुद्र में प्रगूढ़ सूर्य, व्यक्त सूर्य तथा सप्त आदित्यों का आदि और अन्त्य स्वरूप मार्ताण्ड सूर्य कहा जा सकता है। इनमें मध्यवर्ती को अवान्तर दशा मान कर ‘विज्ञानमय' को पराची और सध्रीची अथवा उन्मनी तथा समनी शक्तियों में भी विभक्त किया गया है। इनमें पहली स्तब्ध या निष्क्रिय है और दूसरी क्षुब्ध या सक्रिय, पहली में जगत् या इन्द्र तत्व की प्रधानता है और दूसरी में गायत्र या अग्नि तत्त्व की । अतः पहली कद्रू स्थिर पृथिवी तत्त्व है, दूसरी सुपर्णी नानारूप से प्रकाश करने वाला द्यौ तत्त्व है । पहली में सृष्टि का गर्भाधान मात्र है। अत: इसमें ‘रेतस्’ अश्वित (अविकसित) होने से वह अश्व है, दूसरी 'गर्भ' है जिसमें ‘रेतस्’ पूर्ण रूप से श्वित (विकसित) हो चुका है। यह माता सुपर्णी में श्वित होने के कारण ‘मातरिश्वा' कहलाता है। गायत्री अग्नि होने के कारण उसे ठीक ही सोम लाने वाला कहा जा सकता है । कद्रू तो अश्व के साथ ही है और स्वयं अत्यन्त स्थिर है । अतः अवान्तर दशा की ओर उसकी पुच्छ में होने वाली गति को जान सकती है; परन्तु मनोमय की ओर तीव्र गति से सक्रिय सुपर्णी को अश्व शान्त ही दिखाई पड़ता है । यह स्थिर ‘अश्व' ही अपदहस्ता कृशानु है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद 4.26 तथा 4.27 और अन्यत्र श्येन कथाओं में बराबर मिलता है । इसी स्थिर अवस्था से वाक् (शक्ति) की लहर निरन्तर जलती हुई सक्रिय अवस्था में होती हुई ‘मनोमय' सृष्टि में पहुंचती है। अत: अश्व की हिलती हुई पूँछ के ही समान यह गायत्री-श्येन पर छोड़ा हुआ तीर है । श्येन अथवा सोम का नख या पर्ण कटकर जो लाल पलाश (वृक्ष) हो जाता है, वह उपर्युक्त सोम का अरुण वृक्ष ही है जिसके अन्तर्गत ‘मनोमय' से लेकर अन्नमय तक सारी सृष्टि आ जाती है।
तार्क्ष्य और अश्व :
तार्क्ष्योपरि पौराणिकसंदर्भाः(दर्पणं)
श्येन और सुपर्ण के साथ ही तार्क्ष्य पर भी विचार करना समीचीन प्रतीत होता है क्योंकि तार्क्ष्य शब्द सामान्यतः सुपर्ण का पर्याय माना जाता है ।
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ऋग्वेद 10.178.1 में तार्क्ष्य के लिए कहा गया है कि तार्क्ष्य वाजी है, देवजूत सहावान है, रथों का तरुतार है, अरिष्ट नेमि है, पृतनाज है, आशु है, ऐसे तार्क्ष्य को हम स्वस्ति के लिए यहाँ बुलाते हैं--
त्यमू षु वाजिनं देवजूतं, सहावानं तरुतारं रथानाम् ।
अरिष्टनेमिं पृतनाजमाशुं स्वस्तये तार्क्ष्यमिहा हुवेम ।।
यद्यपि वाजी तथा आशु नाम स्वयं अश्व के हैं; किन्तु वे यहाँ तार्क्ष्य के विशेषण के रूप में आए हैं। तार्क्ष्य अश्व है, यह इस मन्त्र के ‘रथानां तरुतारं' और 'पृतनाजं विशेषणों से ज्ञात होता है। खिल. 2.4.1 का तार्क्ष्य भी अश्व है । यद्यपि उसे देवताओं का वायस कहा गया है, तथापि उसे युद्धों में इन्द्र का सखा बताया गया है और कहा गया है कि बृहद् यश उस पर हम उसी प्रकार चढ़ते हैं जिस प्रकार नाव पर चढ़ा जाता है--
स्वस्त्ययनं तार्क्ष्यमरिष्टनेमिं महद्भूतं वायसं देवतानाम् ।
असुरघ्नमिन्द्रसखं समत्सु, बृहद्यशो नावमिवा रुहेम ।।
तार्क्ष्य भी अश्व के समान मनसा प्राप्य है—
अंहोमुचमाङ्गिरसं मयं च स्वस्त्यात्रेयं मनसा च तार्क्ष्यम् ।
प्रयतपाणिः शरणं प्रपद्ये स्वस्ति संबाद्येष्वभयं नो अस्तु ।।(खिल. 2.4.2)
इसका तात्पर्य यह है कि तार्क्ष्य भी अश्व के उस उच्चतम रूप का वाचक है जिसे उच्चैःश्रवा अथवा सोमवाहक श्येन कहा गया है । ऋग्वेद 1.89.6, माध्यन्दिन संहिता 25.19 और कौथुमसंहिता 2.1225 में वृद्धश्रवा इन्द्र, विश्ववेदा, पूषा और बृहस्पति के साथ अरिष्टनेमि तार्क्ष्य से भी मंगल प्राप्ति की कामना की गई है --
स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
यहाँ सायण तार्क्ष्य का अर्थ करते हैं तृक्षस्य पुत्रो गरुत्मान् ।
माध्यन्दिन संहिता (15.18), कठसंहिता (26.8) में तार्क्ष्य और अरिष्टनेमि को भिन्न-भिन्न बता कर उन्हें उत्तर के संयद्वसु का सेनानी और ग्रामणी बताया गया है तो तैत्तिरीयसंहिता (4.4.3.2) में ऊपर के अर्वाग्वसु का -- अयमुत्तरात्संयद्वसुस्तस्य तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च सेनानीग्रामण्यौ... (मा. क) अयमुक्षर्यवाग्वसुस्तस्य तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च सेनानीग्रामण्यौ... (तै)
शांखायन ब्राह्मण के अनुसार तार्क्ष्य वायु है और वायु प्राण है। वहाँ आता है
'तार्क्ष्यं दुरोहणं रोहति वायुर्वै तार्क्ष्यः प्राणो वै वायुः...(30.5)
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माध्यन्दिन शतपथब्राह्मण 'अयमुत्तरात् संयद्वसु' की व्याख्या करते हुए कहता है कि तार्क्ष्य और अरिष्टनेमि जो उसके सेनानी ग्रामणी हैं वे शरद् की ऋतुएँ हैं--
अथोत्तरतः ‘अयमुत्तरात्संयद्वसुरिति यज्ञो वा.....। तस्य
तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च सेनानीग्रामण्याविति शारदौ तावृतू ।।
नरः अश्वा :
सुपर्णाः, श्येनासः तथा हंसासः के समान नरः1 (बहुवचन) भी अश्वाः के विशेषण रूप में प्रयुक्त हुआ है अथवा स्वतन्त्र रूप से उन तत्त्वों के लिए आया2 है जिन्हें अन्यत्र अश्वाः कहा जाता है। इस विषय का सुन्दर और सविस्तर विवेचन डॉ. श्रद्धा चौहान ने मनुष्यनामों की व्याख्या में प्रस्तुत किया है । डॉ. प्रतिभा शुक्ला ने उसी सरणी पर चलते हुए अपने पीएच-डी. शोध-प्रबन्ध में मरुत नामक हिरण्य नाम के प्रसंग में भी एक पूरा अध्याय लिखा है। दोनों विदुषियों ने वेदों के उन सभी प्रसंगों का विश्लेषण प्रस्तुत किया है जहाँ नर: शब्द प्रयुक्त हुआ है। दोनों का मत है कि नरः शब्द नृ का बहुवचन है जिसका प्रयोग प्रायः मरुतः के लिए हुआ है और मरुतः उन विशः नामक पाँच देवगणों में हैं जिनको वसवः, रुद्राः, आदित्याः, विश्वदेवाः तथा मरुतः कहा जाता है। साथ ही, प्राणा वै वसवः (तो. 3.2.3.3), प्राणा वै रुद्राः (जै. उ. 4.2.1.6), प्राणा वै विश्वेदेवाः (मै.सं. 1.5.11), प्राणा वा आदित्याः (जै. उ. 4.2.1.9) तथा प्राणाः वै मारुताः (मा. श. 2.3.1.7) इत्यादि अनेक ब्राह्मण समीकरणों के आधार पर इन सबको प्राण माना जा सकता है। अतः मरुतों के लिए प्रयुक्त नरः शब्द निःसन्देह प्राणवाचक ही है ।
साथ ही हम पहले ही देख चुके हैं कि अश्व को मूलतः प्राणसम्राट् कह कर ब्रह्माण्ड में परमात्मा को तथा पिण्डाण्ड में प्राणरूपा आत्मा को अश्व माना गया है। यही एक से अनेक होकर प्राणाः, नरः आदि कहा जा सकता है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि नरः शब्द न केवल मरुत के लिए प्रयुक्त हुआ है, अपितु उसका प्रयोग विभिन्न अश्वनामों के साथ देखा जाता है यथा हंसासः नरः (ऋ. 7.59.7), नरः स्वश्वाः (ऋ. 6.56.1), अरुषासः नराः (ऋ. 5.59.5) (ऋ. 7.166.3) इत्यादि ।
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1 तुलनीय ‘नरः स्वश्वा:' (ऋ. 4.42.5), ये अश्वा.....ये विम्ब: नरः (वही, 4.34.9) इत्यादि ।
2 अश्वपर्णाः नरः (वही, 6.47.31) ।
3 स विशमसृजत मान्येतानि देवजातानि गणश आख्यायन्ते वसवो, रुद्रा,
अदित्या विश्वेदेवा मरुत इति (मा. श. 14.9.2.24)
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अव्यथयः अश्वा :
निघण्टु 1.4 में अश्व नामों में एक नाम अव्यथयः भी बताया गया है । ऋग्वेद में अश्विनौ के विषय में कहा गया है कि आप दोनों ने समुद्र में फेंके हुए भुज्यु को गमनशील, श्रमरहित, अव्यथियों अर्थात् अश्वों द्वारा निकाला--
युवं भुज्युमवविद्धं समुद्र उदूहथुरर्णसो अस्रिधानैः । पतत्रिभिरश्वमैरव्यथिभिर्दंसनाभिरश्विना पारयन्ता ।।।
(ऋ. 7.69.7, मैसं. 4.14.10, तैब्रा 2.8.7.9)
ऋग्वेद 1.112 6 में भी अश्विनौ द्वारा भुज्यु को अव्यथियों द्वारा निकाले जाने का वर्णन है--
याभिरन्तकं असमानमारणे भुज्युं याभिरव्यथिभिर्जिजिन्वथुः ।।
याभिः कर्कन्धुं वय्यं च जिन्वतस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ।।
ऋग्वेद 7.69.7 में अव्यथिभिः का अर्थ सायण अश्व करते हैं; लेकिन वे यहाँ इसका अर्थ करते हैं अव्यथिभिः = व्यथारहिताभिर्नौभिः । ।
यहीं 1.117.15 में किसी तुग्रपुत्र के विषय में कहा गया है कि समुद्र में गिरे हुए भी अव्यथि उस तौग्ग्र्य ने अश्विनौ को स्तुतियों द्वारा बुलाया--
अजोहवीदश्विना तौग्र्यौ वां प्रोह्ळः समुद्रमव्यथिर्जगन्वान् ।
यहाँ भी सायण अव्यथिः का अर्थ अश्वः न करके व्यथां पीडाम् अप्राप्त एव सन्’ करते हैं । ।
यहीं अन्यत्र 8.2.24 में इन्द्र को अव्यथियों में वेदिष्ठ कहा गया है—
यो वेदिष्ठो अव्यथिषु......।
यहाँ अव्यथियों का अर्थ सायण करते हैं अव्यथिषु = अव्यथयितृषु सुखकरेषु स्तोतृषु ।
इन्द्र के अतिरिक्त सुपर्ण को भी अव्यथि बताया गया है । वस्तुतः सुपर्ण और अव्यथि दोनों ही अश्व के पर्याय हैं। सुपर्ण के सन्दर्भ में कहा गता है कि रयि रूप राजा सोम को द्यु से अव्यथि सुपर्ण लाता है--
अतस्त्वा रयिमभि, राजानं सुक्रतो दिवः ।
सुपर्णो अव्यथिर्भरत् ।। (ऋ. 9.48.3, कौ. 2.188, जै. 3.17.9)
काठ 35 10, क. 48.12 में इन्द्रग्रह के प्रसंग में अव्यथि के लिए स्वाहा का वर्णन है--
अरिष्ट्या (अव्यथ्यै) संवेशायोपवेशाय गायत्र्यै छन्दसेऽभिभुवे स्वाहा ।।(क. 35.10) अरिष्ट्या अव्यथ्यै संवेशायोपवेशाय त्रिष्टुभे जगत्या अनुष्टुभे छन्दसेऽभिभुवे स्वाहा ।। (क. 48.12)
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अतः अव्यथय: उन प्राणों का नाम प्रतीत होता है जो सर्वथा व्यथारहित होने से शान्त कहे जा सकते हैं । शान्त प्राण मानसिक शान्ति देकरे आत्मारूपी इन्द्र को ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुंचाने में समर्थ हैं। इसीलिए इन्द्र को अव्यथियों में वेदिष्ठ कहा गया है।
ह्वार्याणाम् :
बहुवचनान्त अश्व नामों में निघण्टु ह्वार्याणाम् को भी परिगणित करता है । यह शब्द ऋग्वेद में निम्नलिखित मन्त्र में प्रयुक्त हुआ है--
उत स्म दुर्गृभीयसे, पुत्रो न ह्वार्याणाम् ।।
पुरू यो दग्धासि वनाग्ने पशुर्न यवसे ।। (ऋ. 5.9.4)
सायण ह्वार्याणां का अर्थ ‘कुटिलं गच्छतां सर्पाणां करते हैं, विकल्प में ‘आस्कन्दितादिगतिविशेषेण वक्रगमनानाम् अश्वानाम्' करते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ‘देवाः वै सर्पाः' (2.2.6.2) कहकर सर्पो का देवत्व स्वीकार करता है। पूर्वोक्त ‘प्राणा: वे देवाः' (माशब्रा 7.1.1.24, 8.2.2.8) तथा प्राणाः वे देवाः मनुजाताः (तैसं 6.1.4.5) आदि उक्तियों के आधार पर देवों की प्राणरूपता सिद्ध है । अतः ह्वार्याणाम् शब्द का प्रयोग सर्प रूपी अश्वों तथा अश्व रूपी प्राणों के लिए प्रयुक्त माना जा सकता है । इस दृष्टि से ऋग्वेद के उक्त मन्त्र का तात्पर्य यह है कि कुटिल गति वाले प्राण (जिन्हें तिर्यक् प्राण भी कहा जा सकता हैं) प्राणायाम, ध्यान के माध्यम से मनुष्य के भीतर ज्ञानाग्नि का उत्पादन करने में समर्थ हैं इसलिए उक्त मन्त्र में अग्नि को ‘ह्वार्याणां पुत्र' कहा गया है। इस निष्कर्ष की पुष्टि निम्नलिखित मन्त्र से होती है जहाँ अग्नि के लिए वाजी, गय और अत्य शब्द भी प्रयुक्त हुआ है और उसकी तुलना ह्वार्य शिशु से की गई है--
क्रत्वा हि द्रोणे अज्यसे, अग्ने वाजी न कृत्ब्यः ।
परिज्मेव स्वधा गयो, अत्यो न ह्वार्यः शिशुः ।। (ऋ. 6.2.8)
पैद्व अश्व :
वेदों में प्रयुक्त अश्व नामों की परिगणना करते हुए निघण्टु ने ‘पैद्व नाम का भी उल्लेख किया है । ऋग्वेद 9.88.4 में1 सोम को पैद्व के समान अहियों का हन्ता तथा विश्व दस्यु का हन्ता कहा गया है। अथर्ववेद की शौनकीय संहिता के 10.4.5 में2 पेद्व को कसलर्णील, श्वित्र और असित का हन्ता तथा पृदाकु के शिर का भेदन करने वाला बताया गया है। ये
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1 पैद्वो न हि त्वमहिनाम्नां हन्ता विश्वस्यासि सोम दस्योः ।
2 पैद्वो हन्ति कसर्णीलं पैद्वः श्वित्रमुतासितम् । ।
पैद्वो रथर्व्याः शिरः सं बिभेद पृदाक्वाः ।।
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कसर्णील, पृदाकू आदि सर्पो के नाम हैं। इससे स्पष्ट है कि पैद्व जिन अहियों अथवा सर्पों का विनाशक है, वही सर्प अथवा अहि वे शत्रु प्रतीत होते हैं जिनको उसी सूक्त के अगले मन्त्र1 में वध करने हेतु प्रथम पैद्व को बुलाया गया है और कहा गया है कि हम तुम्हारा अनुसरण करेंगे, जिससे हमारा पथ शत्रुओं का नाश कर दे। अगले मन्त्र2 के अनुसार मानों वह पैद्व उत्पन्न होकर आ गया और प्रकट हो गया, जिससे ऋषि कहता है कि यह पैद्व पैदा हो गया है, यह पैद्व का परायण है । ये वाजिनीवान् और अहिघ्न अर्वा के पद हैं। यहीं2 19.4.10 में पैद्व को अघायु और स्वज का भेषज बताया गया है और कहा गया है कि उसने अहि को नष्ट कर दिया । निम्नलिखित मन्त्र में पैद्व के स्थिर और स्थिरधाम वाला होने का उल्लेख मिलता है--
पैद्वस्य मन्महे वयं स्थिरस्य स्थिरधाम्नः ।
इमे वा पश्चा पृदाकवः प्रदीध्यत आसते ।। (शौ 10.4.11; वै 16.16.1)
इस मन्त्र में स्थिर पैद्व का मनन-चिन्तन करने की बात कही गई है क्योंकि अनेक पृदाकु नामक सर्प ध्यान करने वाले के पीछे बैठे हुए हैं। इसका तात्पर्य है कि जिन पृदाकु आदि सर्पों का विनाश पैद्व करता है वे ध्यान के मार्ग में बाधक तत्त्व हैं और उनको नाश करने वाला पैद्व कोई स्थिर तत्त्व है जो प्रार्थना सुनकर गतिशील होकर उद्भूत होने पर उक्त बाधक तत्त्वों (सर्पों) को दूर करता है । पैद्व की स्थिर अवस्था ही उसका पूर्वोक्त परायण है और उदभूत होकर अवतीर्ण होना ही उसका ‘अवयाम' (नीचे आना) है ।
यह पैद्व वस्तुतः वह श्वेत अश्व है जिसे अश्विनौ4 पेद्रु नामक राजा को देते हैं। इस अश्व को ‘आशुम् अश्वं सहस्रसां वाजिनम् अप्रतीतम् अहिहनम्'5 कहा गया है। अन्यत्र अश्विनौ अघाश्व को पैद्व अश्व देते हैं। वह भी श्वेत6 है । सायण वहाँ पैद्व का अर्थ ‘पतनशील7 करते हैं; परन्तु इसी अश्व का पूर्वोक्त पेद्रु से जो सम्बन्ध है, उसको देखते हुए उसे पेद्रु
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1 पैद्व प्रेहि प्रथमोऽनु वा वयमेमसि ।।
अहीन् व्यस्यतात् पथो येन स्मा वयमेमसि ।। 10.4.6
2 इदं पैद्वो अजायतेदमस्य परायणम् ।
इमान्यर्वतः पदाहिघ्न्यो वाजिनीवतः ।। 10.4.7
3 अघाश्वस्येदं भेषजमुभयोः च ।
इन्द्रो मेऽहिमघायन्तमहिं पैद्वो अरंधयत् ।।
4 ऋ. 1.118.9
5 वही, 1.117.9
6 वही, 1.116.6
7 सायणभाष्य वही, 1.116.6
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प्रदत्त अश्व कहना अधिक समीचीन होगा। यह निःसन्देह वही मूल ‘प्राणसम्राट्' रूपी अश्व है जिसके सन्दर्भ में अश्विनौ का नामकरण हुआ है । सहस्रारचक्र ही इसका स्थिर धाम है जिससे गतिशील होकर नीचे के चक्रों में आकर वह अनेक प्रकार की जिन आसुरी शक्तियों को नष्ट करता है, वे ही अहि या सर्प हैं जिनका यह हनन करता है । सहस्रार को प्राणशक्ति देने के कारण वह सहस्रसा1 कहलाता है । सहस्रार से लेकर मूलाधार तक इच्छा, ज्ञान तथा क्रियाशक्तियों के 33 केन्द्रों पर जो कुल 99 रूपान्तर होते हैं, वही वे 99 वाज हैं जिनसे इस श्वेत अश्व को युक्त2 कहा जाता है ।
इस दृष्टि से जिस पेद्रु को यह अश्व अश्विनौ द्वारा प्रदत्त किया जाता है, वह पतनशील जीव हो सकता है। अन्धकार में पड़ा हुआ वह जीव अत्रि है जिसका उद्धार अश्विनौ3 करते हैं । यह पतनशील पेदु(जीव) जब साधना प्रारम्भ करता है तो उसके मार्ग में काम, क्रोध, आलस्य आदि अनेक विघ्न आते हैं । ये ही अहि अथवा सर्प हैं जिन्हें यह अश्व नष्ट करता है । यह पूर्ण ज्योति है । अत: इसे श्वेत कहा जाता है।
एतशः ।।
एतश अश्व का पर्याय है। अधिकतर इसे सूर्य का अश्व बताया गया है । ऋग्वेद4 के अनुसार एतश सूर्य का वाहक है । तैत्तिरीय संहिता5 में अग्नि का रोहित द्वारा, इन्द्र का हरियों द्वारा तो सूर्य का एतश द्वारा देवता तक पहुंचने का कथन है । ऋग्वेद6 में आता है कि एतश आदित्य अथवा सूर्यरूपमण्डल को सबके दर्शनार्थ वहन करता है। वेद में जहाँ एक सत्ता का वर्णन है, वहीं अनेक एतश भी बताए गए हैं। जैसे कि सूर्य से प्रार्थना की गई है कि ‘हे सूर्य ! तू इन स्तुत्य एतशों द्वारा हमारे सामने उदित हो7 जा। यहीं अन्यत्र8 सूर्य का एतशों द्वारा रथ को युक्त करने का
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1 वही, 1.117-9; 118.9
2 वही, 10.39.10
3 वही, 10.39.10
4 उद्वेति प्रसवीता जनानां महान् केतुरर्णवः सूर्यस्य ।
समानं चक्रं पर्याविवृत्सन् यदेतशो वहति धूर्षु युक्तः ।। 7.63.2
5 रोहितेन त्वाग्निदेवता गमयतु हरिभ्यां त्वेन्द्रो देवतां गमयत्वेतशेन त्वां
सूर्यो देवतां गमयतु ।। 1.6.4.3
6 यदीमाशुर्वहति देव एतशो विश्वस्मै चक्षसे अरम् ।। 7.66.14
7 स सूर्यं प्रति पुरो न उद् गा, एभिः स्तोमेभिरेतशेभिरेवैः । ऋ. 7.62.2
8 न ते अदेवः प्रदिवो नि वासते यदेतशेभिः पतरै रथर्यसि । वही, 10.37.3
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वर्णन है । माध्यन्दिन, तैत्तिरीय और कपिष्ठल कठ संहिताओं से भी ज्ञात होता है कि सूर्य एतशों द्वारा गति करता है। अन्यत्र भी भिन्न-भिन्न देवताओं की व्याप्ति के जो भिन्न-भिन्न माध्यम बताए गए हैं, उनमें सूर्य को एतश अथवा एतशों द्वारा व्यापक2 बताया गया है । तैत्तिरीय संहिता (5.6.4.1) में जहाँ यह कहा गया है कि सूर्य एतश से व्यापक है, वहीं आगे दोनों में एकत्व स्थापित करते हुए बताया गया है कि सूर्य ही एतश3 है । कठसंहिता4 में सूर्य के स्थान पर ‘सूर एतश' कहा गया है । सविता और एतश का यह एकात्म्य ऋग्वेद ‘यः पार्थिवानि विममे स एतशो रजांसि देवः सविता महित्वना'5 कहते हुए बताया है । एतश को जो सूर्य का अश्व बताया गया, उसके लिए ऋग्वेद6 कहता है कि मनु में अन्तरिक्ष मार्ग से जाने के लिए एतश को सूर पवमान (सोम)युक्त करता है। यहीं अन्यत्र बताया गया है कि मन्त्रद्रष्टा ऋषि सूर्य के आशुगामी एतशों द्वारा ले जाया जाता हुआ सब ओर गमन7 करता है। ।
न केवल सूर्य का अश्व एतश है अपितु ऋग्वेद में इन्द्र के हरी अश्वों को भी एतग्वौ और एतशौ कहा8 गया है।
ऊपर बताया गया है कि सूर्य एतश है तो ब्रह्मणस्पति9 को भी एतश बताते हुए कहा गया है कि जब अग्नि हरि-वहन को स्वीकार कर
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1 सूर्यस्य चक्षुरारोहाग्नेरक्ष्णः कनीनकम् ।
यत्रैतशेभिरीयसे भ्राजमानो विपश्चिता ।। मा. 4.32
-सूर्यस्य चक्षुराऽरुहमग्नेरक्ष्णः कनीनिकाम् यदेतशेभिरीयसे भ्राजमानो विपश्चिता...."। तैसं. 1.2.4.15; क. 1.19
2 सजूरब्दो अयवोभिः सजूरुषा अरुणीभिः ।
सजोषसावश्विना दंसोभिः सजूः सूर एतशेन ।
सजूर्वैश्वानर इडया घृतेन स्वाहा ।। मा. 12.74; तु. तैसं. 5.6.4.1
--सजूरुषा अरुषेभिः । सजू: सूर्य एतशेभिः ।। खि. 5.7.4.18
3 सजूरब्दोऽयावभिः सजूरुषा अरुणीभिः सजूः सूर्य एतशेन सजोषावश्विना
दंसोभिः सजूरग्निर्वैश्वानर इडाभिर्घृतेन स्वाहा संवत्सरो वा अब्दो मासा अयावा उषा अरुणी: सूर्य एतश इमे अश्विना संवत्सरोऽग्निर्वैश्वानरः पशवः इडा पशवो घृतम्....। तैसं. 5.6.4.1
4 उषा अरुणीः । सूर एतशः..... क. 34.1
5 ऋ. 5.81.3
6 अयुक्त सूर एतशं पवमानो मनावधि । अन्तरिक्षेण यातवे ।। वही, 9.63.8
7 अहं सूर्यस्य परि याम्याशुभिः प्रैतशेभिर्वहमान ओजसा । वही, 10.49.7
8 एतग्वा चिद्य एतशा युयोजते हरी इन्द्रो युयोजते । वही, 8.70.7
9 त्वष्टा माया वेदपसामपस्तमो, बिभ्रत् पात्रा देवपानानि शंतमा ।
शिशीते नूनं परशुं स्वायसं येन वृश्चादेतशो ब्रह्मणस्पतिः ।। वही, 10.53.9
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लेता है, तब यह त्वष्टा सुन्दर अयस् युक्त परशु को तीक्ष्ण करता है, जिस परशु से ब्रह्मणस्पति एतश काँट-छाँट करता है। अन्यत्र एतश वह्नि का वर्णन भी मिलता है। वर्णन आता है कि जब वह्नि एतश1 शब्द करता है, स्तवन करने वाले ऋत्विजों द्वारा पद में युक्त हुआ, तब समुद्र में प्र-आहित होता है।
एतश के कार्यों का वर्णन भी प्राप्त होता है । ऋग्वेद के अनुसार एतश ने गोपनीय और अवद्य रयि को इन्द्र के लिए दिया था, जिस प्रकार पिता पुत्र को उसका अंग (भाग) देता है। इस कारण स्तुति किया जाता हुआ वह इन्द्र-सवन करने वाले मर्त्य के लिए सूर्य को फैलाता2 है । ऋग्वेद के अनुसार एतश सूर्य का भरण करता हुआ चक्र को भली प्रकार ले जाता3 है।
इस वर्णन को देखते हुए एतश को सूर्य-प्रकाश अथवा सूर्य-किरणें माना जा सकता है। वही सूर्य का प्रसार करने वाला, भरण करने वाला तथा किसी गुह्य रयि को धारण करने वाला कहा जा सकता है । आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा ही सूर्य है। उसकी ज्योतिर्मय शक्ति ही पिण्डाण्ड में एतश अथवा एतग्व है।
वेद में कुछ स्थलों पर एतश को उपमान बताया गया है । ऋग्वेद (1.168.5) के4 अनुसार अहन् में होने वाला एतश जिस प्रकार शिक्षक द्वारा बहुत प्रकार से सिखाया जाता है, उसी प्रकार अन्नादि की प्राप्ति के लिए बहुविध फल की इच्छा करता हुआ यजमान मरुतों को स्तोत्रों द्वारा बहुत प्रकार से बुलाता है। अन्यत्र5 कहा गया है कि सोम एतश के समान गमनकर्ता है । इन्द्र6 के विषय में कहा गया है कि जिस प्रकार एतश युद्ध को जाता है, उसी प्रकार इन्द्र सोम को पीकर वृष के समान वह आचरण
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1 मिमाति वह्निरेतशः पदं युजान ऋक्वभिः ।
प्र यत् समुद्र आहितः ।। ऋ. 9.64.19
2 स सुन्वत इन्द्रः सूर्यमा, देवो रिणङ् मर्त्याय स्तवान् ।
आ यद् रयिं गुहदवद्यमस्मै भरदंशं नैतशो दशस्यन् ।। वही, 2.19.5
3 भरच्चक्रमेतशः सं रिणाति पुरो दधत् सनिष्यति क्रतुं नः । वही, 5.31.11
4 को वो अन्तर्मरुत ऋष्टिविद्युतो रेजति त्मना हन्वेव जिह्वया ।
धन्वच्युत इषां न यामनि पुरुप्रैषा अहन्यो नैतशः ।।
5 प्र ते सोतार ओण्यो रसं मदाय घृष्वये ।
सर्गो न तक्त्येतशः ।। ऋ. 9.16.1
6 यस्य ते पीत्वा वृषभो वृषायतेऽस्य पीता स्वर्विदः ।
स सुप्रकेतो अभ्यक्रमीदिषोऽच्छा वाजं नैतशः ।।
(वही, 9.108.2; कौ. 2.43; जै. 3.59.2)
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करने लगता है और भी, जिस प्रकार एतश का अनुसरण चक्र करता है उस प्रकार इन्द्र का अनुसरण रोदसी1 करते हैं।
एतग्वः :
ऋग्वेद में एतग्वौ दो सुयुज् अर्थात् अच्छी प्रकार से युक्त अश्व हैं, उनके साथ अश्विनौ की तुलना की गई है। वहाँ कहा गया है कि जिस प्रकार सुयुज् एतग्वौ होते हैं, उसी प्रकार अश्विनौ को सुयुज् करता हुआ घर्म समुद्रों को, नदियों को पूर्ण2 करता है । ऋग्वेद और मैत्रायणी संहिता में सूर्य के हरित अश्वों को एतग्वाः कहा गया है। इनके अनुसार सूर्य के भद्र, हरित, चित्र, अनुक्रमेण मादनीय जो एतग्व अश्व हैं वे हमारे द्वारा नमस्कार किए जाते हुए द्यु की पृष्ठ पर आकर स्थित हो जाते हैं और शीघ्र ही द्यावापृथिवी के चारों ओर व्याप्त हो जाते3 हैं। मांश्चत्व और ब्रध्न :
निघण्टु के अश्व नामों में मांश्चत्व का प्रयोग भी अत्यन्त विरल है । ऋग्वेद के सोमसूक्त4 में दो बार प्रयुक्त यह शब्द जैमिनीय ब्राह्मण5 में शाम्मदम् साम के प्रसंग में विवियुक्त ऋग्वेद के मन्त्रों का उद्धरण देते हुए किया गया है। वहाँ एक आख्यान दिया गया है। तदनुसार विजयोन्मुख देवों से भयभीत होकर ये लोक भागने लगे तो देवों ने कामना की कि वे उनसे दूर न हों, अपितु उन्हीं के पास लौट आएँ । तब देवों ने शाम्मदम् साम देखा और बोले कि ये हमारे लोक शम् का मादन करें। शम् में मादन कराने वाला होने से यह साम शाम्मदम् कहलाया। यह साम ऊर्ध्वेळम् अर्थात् ऊर्ध्वमुखी इडा वाला बताया गया है ।
इसका तात्पर्य है कि शाम्मदम् साम ऊर्ध्वमुखी चेतना (इडा) द्वारा सम्पादित उस अति मानसिक अवस्था का नाम है जिसमें आध्यात्मिक देवासुर-संग्राम-जनित संघर्ष एवं कर्षण के स्थान पर शम् का प्रसार हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप होने वाली भाव-समाधि को ही डॉ. फतहसिंह ने ‘मांश्चत्व' नामक अश्व का आधार माना है। यह भावसमाधि ही वह ‘सर' (तालाब) है जिसमें आने के लिए उक्त ऋग्वेदीय
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1 अनु त्वा रोदसी उभे चक्रं न वर्त्येतशम् । अनु सुवानास इन्दवः।। वही, 8.6.38 2 यो वां समुद्रान्सरितः पिपर्त्येतग्वा चिन्न सुयुजा युजानः । वही, 7.70.2
3 भद्रा अश्वा हरित: सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः । ।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः ।।
(वही, 1.115.3; मैसं. 4.10.2। तुलनीय—सायणभाष्य-एतग्वाः एतं
गन्तव्यं मार्गं गन्तारो अश्वाः । एतं शबलवर्णं वा प्राप्नुवन्तोऽश्वाः ।।
4 9.97.52; 54
5 3.164
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मन्त्र का ऋषि इन्दु का आह्वान करता है । यह सर निरन्तर वर्धमान होने से ब्रध्न1 तथा मेधा की पुरुता (आधिक्य) के कारण पुरुमेध2 भी कहा जाता है । भाव-समाधि का सर अत्यन्त व्यापनशील होता है। अतः ‘अश्-व्याप्तौ' से निष्पन्न अश्व नाम उसके लिए सर्वथा सार्थक है ।
ऋग्वेद3 में उसी के वर्षणशील वृष नाम को महान् कहा गया है । वही मांश्चत्व है जिसमें देवासुर-संग्राम में होने वाले देवों और असुरों के द्विविध बल (शूषे), पृश्नीत्व अथवा वर्धका प्रसुप्त तथा स्निग्ध हो जाते हैं। एवं मनुष्य-व्यक्तित्व से (इतः) चेतना-विरोधी शत्रु दूर भगा दिए जाते हैं। डॉ. फतहसिंह मांश्चत्व शब्द की व्युत्पत्ति ‘माङ शब्दे' तथा निघण्टु की चतति गतिकर्मा के योग से करते हैं। अत: उसका अर्थ है निश्शब्दता अथवा शान्ति । पूर्वोक्त शाम्मदम् साम की व्युत्पत्ति तथा उसका मांश्चत्व सर के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध इस निर्वचन की पुष्टि करता है। मांश्चत्व नामक भाव-समाधि की चेतना वस्तुतः मूलाधार से निरन्तर प्रवहमान एवं वर्धमान चेतनाप्रवाह की पराकाष्ठा है। इसलिए इसे पूर्वोक्त ब्रध्न नाम दिया गया। जैसा कि आगे बताया गया है, ब्रध्न भी मांश्चत्व के समान एक अश्व नाम है।
ब्रध्न :
: निघण्टु के अश्व4 तथा महन्नामों में ब्रध्न शब्द परिगणित है। यह शब्द संहिताओं में कम से कम 71 बार प्रयुक्त हुआ है। भाष्यकारों ने इस शब्द को प्रायः बन्ध् धातु6 से निष्पन्न किया है। उणादिकोश7 में भी यही व्युत्पत्ति दी गई है; परन्तु वेद में ब्राधन्त, ब्राधतः, व्राधन्तं और व्राधन्तमः जैसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं जिनके मूल में भाष्यकारों ने यदा-कदा वृध8 धातु भी स्वीकार की है। प्राकृतों के समान यदि वेद में भी ब एवं व का अभेद स्वीकार किया जाए तो वृही धातु सम्भवतः वृध रूप में ब्रध्नः के लिए उत्तरदायी हो । ऐसी अवस्था में ब्रध्न को निरन्तर वर्धमान तत्त्व माना जा सकता है और इस दृष्टि से उसका महन्नामों में समावेश होना समीचीन हो जाता है; परन्तु यही ब्रध्न अश्व का नाम कैसे हो
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1 वही, 9.97.52
2 वही
3 9.97.54
4 नि. 1.14
5 नि. 3.3
6 सायण-शौ 7.22.2, 11.5.9
7 उणादिकोश 3.5 बन्धेर्ब्रधिवृधि च ।
8 व्राधतः ऋ. 10.49.8, व्राधन्त वही, 5.6.7, व्राधन्त: वही, 1.135.9 व्राधन्तम् वही, 10.69.11, व्राधन्तमः (प्रवद्धतमः) वही, 1.150.3 (सायणभाष्य)
149
गया? भाष्यकारों ने कहीं भी ब्रध्न का अर्थ अश्व नहीं किया, ऐसी स्थिति में अश्व को ब्रध्न कैसे माना जाए ?
ब्रध्न का समस्त वैदिक साहित्य में केवल एक ही स्थान पर अश्व से कुछ सम्बन्ध दिखाई पड़ता है। वहाँ ‘अश्वस्य ब्रध्ने'' कह कर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ब्रध्न अश्व का ही एक रूप, स्तर या अन्य कुछ होगा ।
ब्रध्न शब्द का प्रयोग सोम2, अग्नि3 और इन्द्र4 के लिए प्रायः हुआ, जिनमें से प्रत्येक को अश्व भी कहा गया है। अतः अश्वस्य ब्रध्नं' से अभिप्राय इनमें से किसी अश्व का निरन्तर वर्धमान रूप अभिप्रेत हो सकता है। एक स्थान पर अग्नि के याम को ब्रध्न5 कहा गया है । याम का अर्थ भाष्यकारों ने वाहन या यान किया है। अतः ब्रघ्न याम से अभिप्राय निरन्तर वर्धमान मार्ग से हो सकता है। ऋग्वेद में वरुण के किसी ब्रध्न बभ्रु6 का उल्लेख है जिसका तात्पर्य वरुण का निरन्तर वर्धमान बभ्रु रूप हो सकता है ।
एक स्थान पर शतब्रध्न7 शब्द का प्रयोग भी मिलता है । शतब्रध्न विशेषण का प्रयोग इन्द्र के इषु याने बाण के लिए हुआ है । शतब्रध्न के साथ सहस्रपण विशेषण भी है। इससे प्रतीत होता है कि यहाँ ऐसे बाण का उल्लेख है जिसमें हजार पंख हैं । अतः इस सन्दर्भ में अर्थ यह भी हो सकता है कि वे सौ जगह बँधे हुए हैं। ऐसा अर्थ करने पर उणादिकोश द्वारा की गई व्युत्पत्ति का विकल्प भी स्वीकार किया जा सकता है। यह कोई अनहोनी बात नहीं कि एक ही शब्द को बन्ध और वृध दोनों ही धातुओं से निष्पन्न किया जाए क्योंकि वेद में ऐसे अनेक शब्द हैं जिनको भिन्न अर्थों में ग्रहण करने के लिए अलग-अलग व्युत्पत्तियाँ गढ़ी गई हैं। आधुनिक विद्वान् प्रायः इस प्रकार की व्युत्पत्तियों को अवैज्ञानिक तथा मूर्खतापूर्ण कहते हैं। परन्तु, डॉ. फतहसिंह ने अपनी वैदिक एटिमालॉजी में वैदिक वाङ्मय के ऐसे अनेक निर्वचनों को सर्वथा वैज्ञानिक और सार्थक सिद्ध किया है जिसका उत्तर इन व्युत्पत्तियों को अवैज्ञानिक मानने वाले किसी विद्वान् ने आज तक नहीं दिया।
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1 अश्वस्य ब्रध्नं पुरुषस्य मायुं पुरु रूपाणि कृणुषे विभाती । शौ. 19.49.4
2 ऋ. 9.97.52
3 वही, 3.7.5
4 वही, 1.6.1, 8.4.13, 14
5 कृष्ण: श्वेतोऽरुषो यामो अस्य ब्रध्न ऋज्र उत शोणो यशस्वान् ।
हिरण्यरूपं जनिता जजान ।। ऋ. 10.20.9
6 ब्रध्नं मंश्चतोर्वरुणस्य बभ्रुं ते विश्वास्मद् दुरिता यावयन्तु । वही, 7.44 3
7 शतब्रध्न इषुस्तव सहस्रपर्ण एक इत् । यमिन्द्र चकृषे युजम् । वही, 8.77.7
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अतः गवेषणीय यह है कि क्या कोई ब्रध्न नामक निरन्तर वर्धमान ऐसा तत्त्व भी हो सकता है जिसके किसी स्वरूप पर वृध वर्धने के साथसाथ बन्ध बन्धने का भी समावेश किया जा सके।
इस गवेषणा में शौनक विशेष सहायक हो सकता है। वहाँ पर ओदन को ब्रध्न का विष्टप1 कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण2 के अनुसार ओदन शब्द उसी उद् अन से निष्पन्न है जिससे उदान शब्द बना । साथ ही ‘प्रजापतिर्वा ओदनः' 3 कहकर यह संकेत भी दे दिया गया है कि ओदन जन-जन के भीतर स्थित प्रजापति नामक रचनात्मक शक्ति है। यह रचनात्मक शक्ति योगी की पकड़ में उदान प्राण के निरन्तर वर्धमान होने से आती है, ऐसा कुछ विद्वान योगियों का कथन है। इसलिए जब ओदन को ब्रध्न का विष्टप कहा गया तो इसका अभिप्राय यह हो सकता है कि मनुष्य की निरन्तर वर्धमान आत्मचेतना का विष्टप ही यह रचनात्मक शक्ति होती है क्योंकि ओदन को सर्वांगः, सर्वपरूः, सर्वतनू:4 कहा गया है क्योंकि ये सभी विशेषण मनुष्य-व्यक्तित्व की व्यापक चेतना के लिए ही उपयुक्त हो सकते हैं।
ब्रध्न शब्द की इस व्याख्या का समर्थन इस बात से भी होता है कि इन्द्र, अग्नि और सोम रूपी अश्व के लिए ब्रध्न शब्द का प्रयोग हुआ है । इन सबको वेद में प्रमति5 कहा गया है और ब्रध्नलोक रूपी ओदन से 33 लोकों के निर्माण6 की बात कही गई है, जिनके प्रज्ञान के लिए यज्ञ की सृष्टि7 हुई बताई जाती है। यह नि:सन्देह आध्यात्मिक यज्ञ है जिसको आत्मा रूपी यजमान और श्रद्धा रूपी यजमान-पत्नी8 करते हैं । इसलिए ब्रध्न को ध्यानयोग द्वारा उपार्जित वह आध्यात्मिक शक्ति माना जा सकता है जो मूलाधार चक्र से उठती हुई सहस्रार चक्र की ओर निरन्तर
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1 एतद् वै ब्रघ्नस्य विष्टपं यदोदनः । शौ. 11.3.50
2 ताभ्यो (प्रजाभ्यः) ऽवर्षत् । तत ओदनोऽजायत । तमशित्वोदानन् त उदनोऽभवत् । तदुदनस्योदनत्वम् । उदनो ह वै नामैष तमोदन इति
परोक्षमाचक्षते । 3.346
3 तै. 3 8.2.3; 9.18.2; माश. 13.3.6.7
4 शौ. 11.3 32; 49
5 कुमारी प्रतिभा शुक्ला ने 'वेदों में हिरण्य का प्रतीकवाद' नामक अपने शोधप्रबन्ध में इन्द्र को क्रियापरक प्रमति, अग्नि को ज्ञानपरक प्रमति तथा सोम को
अनन्दपरक प्रमति माना हैं ।
6 एतस्माद् वा ओदनात् त्रयस्त्रिंशतं लोकान् निरमिमीत प्रजापतिः ।
शो. 11.3.52
7 तेषां प्रज्ञानाय यज्ञमसृजत । शौ. 11.3.53
8 यज्ञस्याऽऽत्मा यजमानः श्रद्धा पत्नी । तै आ. 10.64.1 ।
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वर्धमान होती है। पूरे मेरुदण्ड के 31 और शीर्षकपाल के दो केन्द्रों का समावेश करने से जो 33 केन्द्र बनते हैं वे ही ब्रह्मलोक रूपी ओदन के 33 लोक कहे जा सकते हैं ।
अब विचारणीय यह है कि क्या प्रतीकवाद के साथ किसी प्रकार \/बन्ध धातु से निष्पन्न ‘ब्रध्नं' का भी समावेश किया जा सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने चलते हैं तो हमारे सामने शतब्रध्न और सहस्रपर्ण इषु आ जाता है । मूलाधार से सहस्रार की ओर उठने वाला उपर्युक्त शक्तिप्रवाह सचमुच एक तीर के समान बड़े वेग से उठता है; परन्तु इसके 33 केन्द्रों में से प्रत्येक केन्द्र पर इच्छा, ज्ञान और क्रिया के तन्तुओं का बन्धन प्राप्त होता है, इसलिए कुल मिलाकर 99 बन्ध हो जाते हैं और सौवाँ बन्ध सहस्रार चक्र है जिसमें उक्त सभी 99 तन्तुओं का केन्द्र माना जा सकता है। इस प्रकार यह तीर शतब्रध्न (सौ बन्धनों वाला) कहा जा सकता है।
यही इषु (तीर) सहस्रपर्ण भी है । वेद में शरीर रूपी वृक्ष पर आत्मा और परमात्मा रूपी ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया'2 बैठे हुए हैं। इन दोनों सुपर्णो के पर्ण उक्त चेतना-प्रवाह रूपी इषु को सहस्रपर्ण कहा जा सकता हैं। डॉ फतहसिंह ने ‘सिन्धुलिपि में उपनिषदों एवं ब्राह्मणों के प्रतीक' नामक ग्रन्थ में एक सिन्धु-मुद्रा का चित्र दिया है जिसमें पद्मासन लगाए हुए एक योगी को दिखाया गया है। उसके मूलाधार से प्रारम्भ होकर सहस्रार चक्र को वेधता हुआ एक तीर भी दिखाया गया है । अतः इसके साथ वेद के शतब्रध्न सहस्रपर्ण इषु से तुलना करने की प्रेरणा सहज ही हो जाती है ।
अश्व नाम वह्नि :
निघण्टु अश्व नामों में वह्नि शब्द भी परिगणित होता है । वह्नि शब्द 'वह' धातु से निष्पन्न है। अतः इसका अर्थ ‘वोढा' (वहन करने वाला) होता है। वेद में प्राय: यह शब्द अग्नि का1 विशेषण है । ऋग्वेद2 ‘स वह्निः पुत्रः पित्रोः पवित्रवान्' कहकर सम्भवतः3 आदित्य की ओर संकेत किया गया गया है। यहीं4 इन्द्र को अपनी ज्योति द्वारा रोदसी का विस्तार करने वाला कहा गया है। इसी प्रकार सविता5, अग्नि6, इन्द्र7
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1 ऋ. 1.164 20
2 वही, 1.76.4; 113.17; 128.4
3 वही, 1.160.3
4 तु. सायण वही, 1.160.3
5 वही, 2.17.4
6 वही, 2.38.1
7 वही, 3.5.1
8 वही, 3.31.1; 4.21.6
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तथा मरुत-माता गौ1 को भी वह्नि कहा गया है। अनेक मन्त्रों2 में सोम के लिए भी वह्नि कहा गया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इन सभी देवों को अश्व भी कहा गया है । इस दृष्टि से ही सम्भवतः वह्नि शब्द को अश्व नामों में लिया गया है। परन्तु यजुर्वेदीय संहिताओं3 में स्वयं अश्वमेधीय अश्व के लिए सप्ति, आशु, वाजी आदि के साथ वह्नि भी कहा गया है । अश्व तथा अश्वमेध की पूर्वोक्त आध्यात्मिक व्याख्या के आलोक में अश्व को वह्नि कहना सर्वथा उपयुक्त भी है क्योंकि वह अपना अमेध्यत्व वहन करते हुए मेध्य होने के लिए सर्वत्र भ्रमण करता है । इसी दृष्टि से ऊपर एतश को भी वह्नि कहा गया है ।
अरुषः :
अरुष शब्द की भी गिनती निघण्टु के अश्व नामों में है। यह शब्द प्रायः अग्नि का विशेषण है । जब अग्नि4 अरुष वाजी के समान वनों में अरोचमान होता हुआ कहा जाता है तो वह वाजी अश्व का भी विशेषण हो जाता है। एक विश्वेदेवा सूक्त5 में एक ‘उक्षा समुद्रो अरुषः सुपर्णः का उल्लेख है जहाँ अरुष एक अन्य अश्व नाम सुपर्ण का विशेषण है । ऋग्वेद6 में जहाँ ‘अरुषासो अश्वाः' बृहस्पति के वाहक कहे गए हैं वहीं उन्हें नभ के समान अरुष रूप धारण करने वाला भी कहा गया है। इस का अर्थ है कि बृहती बुद्धि के पति को वहन करने वाले जो ‘अरुषासः अश्वाः ' हैं उनका अरुषत्व नभ के समान होता है। डॉ. फतहसिंह के अनुसार, अरुष शब्द हिंसार्थक अथवा रोषार्थक /रुष धातु से निष्पन्न है। अतः अरुष शब्द ऐसे मानस रूपी नभ का द्योतक है जिसमें रोषादि हिंसक भावनाएँ नहीं होतीं । बृहती बुद्धि विशाल-हृदयता की सूचक होने से उसका पति (आत्मा) निःसन्देह इस प्रकार की हिंसक वृत्तियों से रहित हो जाता है ।
अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऊपर अरुष सुपर्ण रूपी आत्मा को समुद्र कहा गया । यही अन्यत्र ‘नभो अर्णः'7 कहा गया है और इसी को वह ‘आत्मन्वत् नभः'8 कहा गया है । जो आनन्द रूपी घृत, पयः तथा अमृत के कारण ‘ऋतस्य नाभिः' हो जाता है । ऋग्वेद8 (4.58) में इसी को ‘हृदि समुद्रे अन्तः आयुषि' कहते हुए इसे10 एक ऐसा समुद्र बताया गया है
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1 ऋ.8.94.1
2 वही, 9.64.19; 89.1; 97.34 इत्यादि ।
3 मा. 29.2; का. 31.13; तै सं. 5.1.11.2; काठ 46.20
4 ऋ. 3.29.6
5 वही, 5.47.3
6 वही, 7.97.6
7 वही, 9.97.21
8 वही, 9.74.4
9 वही, 4.58.11
10 वही, 4.58.1
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है
जो ‘अमृतस्य नाभिः' तथा 'घृतस्य गुह्यं नाम' है और जिससे एक ‘मधुमान् ऊर्मि' (आनन्दलहरी) उत्पन्न होती है।
इस समस्त विवरण को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्यतः हमारा रोषादि मनोवेगों से रहित मानस ही अरुष अश्व है । उसी के सन्दर्भ से ज्ञानपरक प्रमति (अग्नि), भावनापरक प्रमति (सोम) तथा क्रियापरक (इन्द्र) आदि भी अरुष कहे जा सकते हैं । निःसन्देह ये सभी अश्व कहे गए हैं। इसी कारण अरुष शब्द को निघण्टु के अश्व नामों में लिया गया है।
दौर्गह :
निघण्टु-सूची में दौर्गह भी अश्व नाम बताया गया है । ऋग्वेद1 के प्रस्तुत मन्त्र में दौर्गह शब्द का प्रयोग हुआ है--
अस्माकमत्र पितरस्त आसन् सप्त ऋषयो दौर्गहे बध्यमाने ।
त आयजन्त त्रसदस्युमस्या इन्द्रं न वृत्रतुरमर्धदेवम् ।।
ऋग्वेदानुक्रमणी के अनुसार इस मन्त्र का ऋषि दौर्ग्रह है। शतपथ ब्राह्मण2 के अनुसार दौर्ग्रह एक अश्व है जिसके द्वारा इक्ष्वाकुवंशी पुरुकुत्स यजन करता है। अतः मन्त्र में कहा गया है कि 'दौर्ग्रह के बाँधे जाने पर हमारे पितर यहाँ सप्त ऋषयः थे जिन्होंने अर्धदेव त्रसदस्यु इन्द्र का यजन किया। यहाँ ‘दुर्ग्रह' मन रूपी अश्व के संयमित रूपान्तर को दौर्ग्रह माना गया प्रतीत होता है। इसी के द्वारा जीवात्मा रूपी पुरुकुत्स दस्युओं को त्रस्त करने वाले इन्द्र का यजन करता है।
आशु, सप्ति तथा अत्य :
सप्तिः, आशुः तथा अत्यः तीनों ही मूलतः अश्व के विशेषण प्रतीत होते हैं और कभी-कभी ये तीनों एक दूसरे के विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त हुए हैं। यथा--
1 आशुः सप्तिः .....। मा. 22.22, का. 24.8.2, तैसं. 7.5.18.1, मैसं. 3.12.6, काठ. 45.14, तुलनीय माशब्रा 13.1.9.5
2 अत्याः अश्वासः......। ऋ. 1.182.2, 163.10 इत्यादि ।
3 आशुम् अश्वं'........ऋ. 1.117.9
4 वाजी अत्यः.......। ऋ. 3.38.1, 5.30.14, 9.6.5
5 अत्यो न सप्तिः । ऋ. 10.6.2, मैसं. 4.14-15
6 आशुमत्यं न वाजिनम् । ऋ. 1.135.5 (2)
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1 4.42.8
2 13.5.4.5
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अन्यत्र1 सप्ति को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि ‘हे सप्ते ! तू आशु है, मेध्य है।
इनमें से जहाँ अत्य को ‘अत सातत्यगमने' से निष्पन्न करके सतत गमन करने वाला माना गया है वहाँ ‘अत्यो न सप्तिः' कहकर यह संकेत दिया गया है कि सप्ति कोई ऐसा अश्व है जो सतत् गमनशील है। इस प्रसंग में ऋग्वेद 1.164.2 विशेष रूप से विचारणीय है जो अथर्ववेदी एवं यजुर्वेदीय संहिताओं में भी प्राप्त होता है--
सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा ।
त्रिनाभि चक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः ।।
यहाँ जो एक सप्तनामा अश्व है उसे सप्ति कहा जा सकता है और इस प्रकार सप्ति की व्युत्पत्ति संख्यावाचक सप्त से सिद्ध होती है। यह वस्तुत: वही ‘विश्पतिं सप्तपुत्रम' है जिसका उल्लेख पूर्व मन्त्र2 में है। विशः से अभिप्राय, जैसा पहले बताया जा चुका है, वसवः, रुद्राः, आदित्याः, विश्वेदेवाः तथा मरुतः नामक प्राणों से है। अतः विश्पति अर्थात् इन्हीं प्राणों का स्वामी जीवात्मा ही सप्ति होगा । परन्तु, साथ ही अन्य सप्त वस्तुओं से युक्त जीवात्मा का पूरा व्यक्तित्व भी जब रथ रूप में कल्पित होता है तो उसे भी सप्ति माना जा सकता है जैसा कि ऋग्वेद के निम्न मन्त्र से स्पष्ट है--
इमं रथमधि ये सप्त तस्थुः सप्तचक्रे सप्त वहन्त्यश्वाः ।
सप्त स्वसारो अभि सं नवन्ते यत्र गवां निहिता सप्तनाम ।।3
पूरे व्यक्तित्व से तात्पर्य आत्मा के व्यक्त तथा अव्यक्त रूप से हैं। अत: जब ‘अत्य' शब्द सप्ति का विशेषण होता है तो उसका अर्थ होगा सततगामी होने योग्य सप्तविध आत्मा । आत्मा शब्द भी अत्य के समान ही ‘अत सात्यगमने' से निष्पन्न है । सप्तविध आत्मा (सप्ति) जीवात्मा का केवल वह रूप होगा जिसमें अहंकार, मन तथा पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ आती हैं। यह रूप सततगामी नहीं है; परन्तु अत्य अर्थात् सततगामी हो सकता है । निःग्रन्देह, वह मनोजवा (मन की गति वाला) होने से आशु है। इसी दृष्टि से जीवात्मा रूपी अश्व को आशु कहा गया प्रतीत होता है।
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1 मा. 29.2; तैसं. 5.1.11.1
2 अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः ।।
तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ।। ऋ. 1.164.1
3 वही, 1.164.3