दध्नोपरि पौराणिकसंदर्भाः

दध्नोपरि टिप्पणी

पञ्चम अध्याय

दधिक्रा प्रथमो

पिछले अध्याय में दीर्घतमस् द्वारा वाञ्छित ज्योति रूपी अश्व को हमने वाजी रूप में देखा। वह वाज नामक आध्यात्मिक तत्त्व के उत्तरोत्तर विकास के कारण विभिन्न स्तरों पर पृथक-पृथक नामों से जाना जाता है। इसी बात को ध्यान में रखकर तैत्तिरीय-संहिता ने वाजी के इस निरन्तर होने वाले स्वान्तर को आयमान अश्व कहा है और उसकी महिमा का वर्णन करते हुए उस अश्व को हय, अर्वा, वाजी, अश्व नाम देकर उसे क्रमशः देवों, असुरों, गन्धर्वो तथा मनुष्यों का वाहक बताया –

हयो देवानवहत् अर्वा असुरान्, वाजी गन्धर्वान् अश्वो मनुष्यान् । (तैसं. 7.5.25.2-3)

वेद-चक्षु-ग्रन्थमाला की प्रथम रश्मि1 में ज्ञानशक्ति प्रधान प्राणों को देव, क्रियाशक्ति प्रधान प्राणों को असुर, कामनाप्रधान प्राणों को गन्धर्व तथा मननशीलता प्रधान प्राणों को मनुष्य कहा गया है। इस प्रकार इन चार नामों को मनुष्य-व्यक्तित्व के चार आयामों से सम्बद्ध करके जिस अश्व के चार रूप बताए गए, वह वास्तव में अर्वा है जो वाजी होकर विकासोन्मुख होता चला जा रहा है। अत: कोई आश्चर्य नहीं कि इस विकासक्रम में उसके विभिन्न स्तरों की कल्पना की जाए और उसे प्रत्येक स्तर पर एक अलग नाम दिया जाए। इसके साथ ही विकास के विभिन्न स्तरों पर इस अश्व में जिन गुणों की उत्पत्ति होती है उनके आधार पर भी उसका नाम किया जा सकता है । इसी आधार पर निघण्टु के अश्व नामों में परिगणित विभिन्न नामों की व्याख्या बोधगम्य प्रतीत होती है।

यद्यपि अभी इन सभी नामों की व्याख्या करना अभिप्रेत नहीं हैं; परन्तु इन नामों में परिगणित दधिक्रा अथवा दधिक्रावा नाम से जिस  अश्व रूप की ओर संकेत किया गया है उसको जब एक ऐसा प्रथम वाजी कहा जाता है जो प्रज्ञान पूर्वक रथों की अग्रभूमि पर होता है तो निःसन्देह यह निष्कर्ष निकलता प्रतीत होता है कि दधिक्रा अथवा दधिक्रावा अश्व का सर्वोत्तम विकसित रूप है। साथ ही वही अश्व अग्रभूमि से क्रमशः अवतरित होता हुआ विभिन्न अश्व रूपों में प्रकट हो रहा है । चेतना रूपी अश्व के इस आरोह एवं अवरोह से उनकी दो महिमाएँ कही जाती हैं

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 1 वेदचक्षु ग्रन्थमाला, प्रथम रश्मि ।


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जिनमें एक का पारिभाषिक नाम ‘अहः' है और दूसरे का रात्रि ।1 प्रथम महिमा से वह ज्योतिर्मय रूप ग्रहण करता है और दूसरी द्वारा उस ज्योति को दिया जाता है । अतः उसका नाम रा धातु से निष्पन्न रात्रि (देने वाली) है । इसीलिए ऋग्वेद 7.44 में2 दधिक्रा का आह्वान सर्वप्रथम किया गया है और उसे उषा, समिद्ध, अग्नि, भग, इन्द्र, विष्णु, पूषन्, ब्रह्मणस्पति, आदित्यों, द्यावापृथिवी, आपः और स्वः के रूप में व्यक्त होने वाला समझा गया है। यह दधिक्रा स्वयं ॐ ज्योति है जिसे मन को ऊर्ध्वमुखौ नमः करके आरोहण द्वारा उद्बुद्ध किया जाता है तथा उसी को अवरोहण द्वारा यज्ञरूप में प्रस्तुत करते हुए विप्र लोग 'इडा' नामक दैविक बुद्धि का आह्वान3 करते हैं। इस प्रकार दधिक्रावा को उद्बुद्ध करते हुए अग्नि, उषा, सूर्य, गौ तथा वरुण रूपों के उस ‘उरु बभ्रुं बध्न'4 को समझा जा सकता है जो हमारे सभी दुरितों को दूर कर सकते हैं। अश्व नामों में परिगणित ब्रध्न यही है । यही दधिक्रावा नामक प्रथम वाजी प्रज्ञानवान ब्रध्न होकर उषा, सूर्य, आदित्यों, वसुओं और अंगिराओं से संवित्5 स्थापित करता है। इसी दधिक्रा से प्रार्थना है कि वह ॐ पथ पर गमन करने के लिए ऋत की पथ्या6 (वाक) को हमारे लिए7 चाहे ।।

इस वर्णन में दधिक्रा का जो व्यापक स्वरूप दिखलाया गया है, उससे यह भ्रम हो सकता है कि वह कोई बाह्य जगत् की उषा, सूर्य आदि ज्योतियों में प्रकट होने वाला तत्त्व है; परन्तु यदि हम अथर्ववेद 10.2.31 को दृष्टि में रखें तो हमें पता चलेगा कि वहाँ जिस व्यक्तित्व पर एड़ी से लेकर चोटी तक नजर डालते हुए ‘अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या8

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1 अहर्वा अश्वस्य जायमानस्य महिमा पुरस्ताज्जायते रात्रिरेनं महिमा

पश्चादनु जायते......। तैसं 7.5.25.2 सूर्य = अश्व

2 दधिक्रां वः प्रथमश्विनोषसमग्निं समिद्धं भगमूतये हुवे । ।

इन्द्रं विष्णुं ब्रह्मणस्पतिमादित्यान्द्यावापृथिवी अपः स्वः ।। 7.44.1

3 दधिक्रामु नमसा बोधयन्त उदीराणा यज्ञमुपप्रपन्तः ।

इळां देवीं बर्हिषी सादयन्तोऽश्विना विप्रा सुहवा हुवेम ।। ऋ. 7.44.2  

4 दधिक्रावाणं बुबुधानो अग्निमुप ब्रुव उषसं सूर्यं गाम् ।

ब्रध्नं मंश्चतोर्वरुणस्य बभ्रुं ते विश्वास्मद् दुरिता यावयन्तु ।। वही, 3

दधिक्रावा प्रथमो वाज्यर्वाग्रे रथानां भवति प्रजानन् ।

संविदान उषसा सूर्येणादित्येभिर्वसुभिरंगिरोभिः ।। वही, 4

6 वाग्वै पथ्या स्वस्तिः । कौ 7.6; माशब्रा 4.5.1.4 (तु. मैसं 3.7.1, काठ 23.8, माशब्रा 3.2.3.8, 15)

7 आ नो दधिक्राः पथ्यामनक्त्वृतस्य पन्थामन्वेतवा उ । वही, 5 .

8 शौनकीय अथर्ववेदसंहिता 10.2.31


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का वर्णन किया गया है, उसमें यहाँ वर्णित उषा, सूर्य, स्वः, आपः, संवत्सर इत्यादि सभी देवों का समावेश किया हुआ है। इसलिए इस दधिक्रा अश्व की तुलना हम उस मेध्य अश्व से भी कर सकते हैं जिसका वर्णन तैत्तिरीयसंहिता1 में इस प्रकार किया गया है----

उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः सूर्यश्चक्षुर्वातः प्राणश्चन्द्रमाः श्रोत्रं दिशः पादा अवान्तरदिशः पर्शवोऽहोरात्रे निमेषोऽर्धमासः पर्वाणि मासाः संधानान्यसवोऽगांनि संवत्सर आत्मा रश्मयः केशा नक्षत्राणि रूपं तारका अस्थानि नभो मांसान्योषधयो लोमानि वनस्पतयो वाला अग्निर्मुखं वैश्वानरो व्यात्तं समुद्र उदरमन्तरिक्षं पायुर्द्यावापृथिवी अण्डो ग्रावा शेपः सोमो रेतो यज्जंजभ्यते तद्विद्योतते यद्विधूनुते तत् स्तनयति यन्मेहति तद्वर्षति वागेवास्य वाक्....।

मेध्य क्यों ? 

प्रश्न यह होता है कि इस अश्व को मेध्य क्यों कहा जाए। जैसा कि पहले कह चुके हैं, अर्वा रूप में अश्व अमेध्य (अपवित्र) है क्योंकि उसका सम्पर्क असुरों से है । वह जिस क्रम से उत्तरोत्तर वाजी होता चला जाता है, उसी क्रम से मेध्य होता चला जाता है। परन्तु जब हम मेध्य शब्द को 'पवित्र' अर्थ में ग्रहण करते हैं तो यह शंका होती है कि इसका सम्बन्ध कहीं उस मेधा से तो नहीं है जिसकी उपासना देव और पितर3 किया करते हैं । निस्सन्देह यह वही मेधा है जिसको सुरभि, अश्वरूपा, हिरण्यवर्णा तथा सुप्रतीका3 कहा गया है और जिसको तैत्तिरीय4 और मैत्रायणी5 संहिताएँ ‘मनो मेधामग्निं प्रयुजं स्वाहा' कह कर स्मरण करती हैं। मनो अग्निं प्रयुजं कहने से तात्पर्य है कि मेधा उस मानसिक चेतना रूपी अग्नि का नाम है जो अपने बिखराव को समेट कर प्रयुज (प्रकृष्ट रूप से युक्त) है। इस मेधा में कोई मेध नामक तत्त्व भी है जो अज-- परब्रह्म की शक्ति होने के कारण आज्य6 भी कहा जाता है। इस मेध नामक तत्त्व के अवतरण से ही अर्वा मेध्यअश्व बनेगा और यज्ञ के योग्य होगा। दूसरे शब्दों में, जिसे अजाश्व (अज+अश्व) पूषा कहा गया है, वही मनुष्यव्यक्तित्व में उत्तरोत्तर आविर्भूत होता हुआ उसे मेध्य तथा

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1 7.52.5.1, 2

2 यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते । मा 32.14

3 आ मां मेधा सुरभिर्विश्वरूपा हिरण्यवर्णा जगती जगम्या । ऊर्जस्वती पयसा

पिन्वमाना सा मां मेधा सुप्रतीका जुषताम् ।। तैआ 10.42.1

4  4.1.9.1

5  2.7.7

6 मेध्यो वै आज्यम् । तैब्रा 3.9.12.1


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यज्ञीय करेगा। इसी बात को ऐतरेय ब्राह्मण दूसरे प्रकार से एक आख्यायिका द्वारा कहता है । देवों ने पुरुष का आलभन किया तो उससे मेध निकल भागा और अश्व में प्रवेश कर गया जिससे अश्व मेध्य हो गया और पुरुष अमेध्य होकर किंपुरुष (कुत्सित पुरुष) बन गया। जब देवों ने अश्व का आलभन किया तो मेध वहाँ से भाग कर गाय में प्रविष्ट हो गया जिससे गाय मेध्य हो गई और अश्व अमेध्य होकर गौरमृग हो गया । जब गाय का आलभन किया गया तो वह भाग कर अवि में प्रविष्ट हो गया जिससे अवि मेध्य हो गया और गाय अमेध्य होकर गवय बन गई । अवि का आलभन किए जाने पर मेध अज में प्रविष्ट हो गया जिससे अज मेध्य बन गया और अवि अमेध्य होकर उष्ट्र बन गया। तब मेध अज में पहुंच कर चिरकाल तक टिका रहा। जब इस अज का भी आलभन किया गया नो मेध वहाँ से भाग कर पृथिवी में प्रविष्ट हो गया जिससे पृथिवी मेध्या हो गई और अज अमेध्य होकर शरभ बन गया। देवता लोग उस मेध के पीछे-पीछे गए तब मेध पृथिवी में व्रीहि बन गया जिससे बना हुआ पुरोडाश समेध होने से यज्ञ के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है।

इन आख्यायिका द्वारा प्रतीकवादी शैली में मनुष्य-व्यक्तित्व के भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् नामक सात चेतना-स्तरों पर क्रमशः उत्क्रान्त होने वाले मेधा तत्त्व का स्वरूप बतलाया गया है । सत्यम् व्याहृति के स्तर पर अंधकार रूपी भूसी से रहित ज्योति रूपी व्रीहि मेधा का सर्वश्रेष्ठ रूप माना गया है। इसीलिए इस ज्योति रूपी व्रीहि से युक्त (व्रीहिमयं) पुरोडाश को जब ‘साम्नां रूपं (माशब्रा 5.5.5.9) कहा जाता है तो तात्पर्य यह होता है कि पुरोडाश रूपी मानवमस्तिष्क सर्वश्रेष्ठ मेधाज्योति से युक्त होकर साममय (शान्त) हो गया, क्योंकि कर्मकाण्ड में पुरोडाश2 मस्तिष्क का ही प्रतीक है। इसी बात की पुष्टि में,

कौषीतकि ब्राह्मण पुरोडाश को प्राणरूप पशुओं3 का मेध4 मानता है ।

आख्यायिका में सर्वप्रथम आलभन का शिकार होने वाला पुरुष मनुष्य का अन्नमय व्यक्तित्व है । मेध की खोज में किसी भी पशु का आलभन मनुष्य अपने स्व की ‘धीति' (ध्यानक्रिया) द्वारा करता है। इसी स्वधिति का प्रतीक वह छुरी है जिसके द्वारा हाड़-मांस के पशु की बलि दी जा सकती थी। अन्नमय पुरुष पर स्वधिति चलाने का अभिप्राय है

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1 ऐब्रा 2.8

2 मस्तिष्को वै पुराडाशः । तैब्रा 3.2.8.7  

3 प्राणाः पशवः । तैसं 5.2.6.3, तै ब्रा 3.2.8.9  

4 मेधो वा एष पशूनां यत्पुरोडाशः । कौब्रा 10.5


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उसके स्थूल प्राणों का नियमन व नियन्त्रण । ऐसा करने से मेध नहीं मिलता; परन्तु उसके प्राप्त करने का मार्ग मिल जाता है। स्थल प्राणों के नियन्त्रण करने पर ज्ञात होता है कि वह मेध तो पुरुष के उस चेतनामय रूप में है जो उसके स्थूल प्राणों में सर्वत्र व्याप्त हो रहा है। इस रूप के नामकरण के लिए अश् व्याप्तौ1 से निष्पन्न अश्व शब्द चुना गया । अश्व का आलभन करने पर पता चला कि उस चेतनामय पुरुष रूप का एक अन्य रूप भी है जिसको ज्ञानगमनप्राप्त्यर्थक गो नाम दिया गया है। गोरूप से सूक्ष्मतर एक अन्य रूप है जो ‘वी'2 धातु के गति, व्याप्ति और प्रजनन अर्थों का निषेध करने वाले अवि नाम से जाना जाता है। उसके आलभन करने पर पता चलता है कि मेध तो उससे परे किसी अन्य सूक्ष्मतर स्तर पर है । उस स्तर को अज नाम दिया गया क्योंकि उस स्तर पर इच्छा, क्रिया, भावना, विचार आदि का प्रजनन सर्वथा बन्द हो जाता है। इससे भी परे जो सूक्ष्मतम स्तर है उसको भूमि कहा गया जिसमें वह मेध व्रीहि नामक ज्योति के रूप में विराजमान पाया गया । यह भूमि वही पृथिवी है अथर्ववेद3 में जिसके सत्य से आवृत हृदय को परम व्योम में स्थित बताया गया है। यही मनुष्य व्यक्तित्व का सत्यलोक है।

मनुष्यव्यक्तित्व के इस सूक्ष्मतम स्तर पर प्राप्त होने वाला मेध ही आत्मा4 रूपी यजमान को मेधपति5 बनाता है ।

एक दूसरी दृष्टि से जिस देवता के लिए पशु का आलभन होता है, वह देवता4 ही मेधपति है। जिस देवता के लिए पुरुष, अश्व आदि उक्त पशुओं का आलभन किया जाता है, वह देवता वस्तुत: परब्रह्म है जो मनुष्य व्यक्तित्व के हिरण्ययकोश में आत्मा से युक्त होकर विराजमान माना जाता है। अतः इस सूक्ष्मतम स्तर पर ब्रह्मात्मसायुज्य के कारण ब्रह्म और आत्मा में से दोनों को ही मेधपति कहा जा सकता है।  

इसका अभिप्राय है कि मेध जिस मेधा का तत्त्व है वह तो मूलतः हिरण्ययकोश की वस्तु है और अन्य स्तरों पर वह यदाकदा अतिथि के रूप में ही पहुंच पाती है। इसलिए इन स्तरों पर जीवात्मा रूपी इन्द्र को मेधातिथि (मेधा जिसकी अतिथि है) कहा जाता है। जिसके द्वारा प्रस्तुत

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1 पाधा 5.18

2 वही, 2.41

3 यस्या हृदयं परमे व्योमन् सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः शौ 12.1.8

4 आत्मा यजमानः । कौ 17.7; गो 2.5.4; तैआ 10.64.1

5 यजमानो मेधपतिः । ऐब्रा 2.6; कौब्रा 10.4

6 अथो खल्वाहुर्यस्यै वाव कस्यै च देवतायै पशुरालभ्यते सैव मेधपतिरिति ।

ऐब्रा 2.6, देवता वै मेधपतिः । कौब्रा 10.4


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भक्तिरस रूपी सोम को परमात्मा रूपी इन्द्र पान करने के लिए चेतना के निमेषोन्मेष से परे मेष रूप को ग्रहण करता है1। इस मेष रूप को ही वरुण का प्रत्यक्ष2 पशु कहा गया है, क्योंकि अन्यत्र तो वह सर्वत्र विद्यमान होते हुए भी परोक्ष ही रहता है ।  

मेष रूप में परब्रह्म जिस सोम का पान करता है उसे दधि3 रूप में भी कल्पित किया जाता है । यह दधि वास्तव में पूर्वोक्त ॐ रूपी दधिक्रा अश्व द्वारा बिखेरा गया दही है जिसको जीवात्मा भक्तिरस रूप में प्रस्तुत करते हुए मानो कहता है--

त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।

जब जीवात्मा को इन्द्र कहा जाता है तो परब्रह्म को महेन्द्र नाम देकर इसी कारण इस दधि को ‘महेन्द्रिय4' नाम दिया जाता है, अन्यथा दधि को इन्द्रियं5' मात्र कहा जाता है। यह ब्रह्मरूपी दधिक्रावा जीवात्मा और उसके दश प्राणों में इस दधि को मस्तिष्क से प्रवाहित होने वाली चेतना के द्वारा ही बिखेरता है। मस्तिष्क ही यज्ञ में पुरोडाश है । अतः दधिक्रावा द्वारा पुरोडाश को ग्यारह कपालों में वपन6 किया गया कहा जाता है। इसी बात को और स्पष्ट करने के लिए दधिद्रव्य को वाजिनं कह कर उसे ऊर्ध्वमनः- सुवर्गम् भी कहा जाता है और उसे नीचे लाने वालों वाजिन'7 कहा जाता है। दूसरे शब्दों में ध्यान में समाधिस्थ हुए ऊर्ध्वमुखी मन को मनुष्यव्यक्तित्व के निचले स्तरों पर लाना ही दधि का बिखेरना है। जिस व्यक्तित्व में यह सोम रूपी दधि बिखेर दिया जाता है, उसे अग्नि की दधिक्रावती प्रिय8 तनू कहा जाता है ।


दधीचि अथवा दध्यङ् का आख्यान :

इसीलिए तैत्तिरीय संहिता9 में अग्नि को दध्यङ कहा गया है । यही दध्यङ् दधीचि अथवा दधीच नाम से भी जाना जाता है। परवर्ती

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1 तेषां ह स्मेन्द्रो मेधातिथेर्मेषस्य रूपं कृत्वा सोमं व्रतयति । जैब्रा 3.234

मेधातिथ्यहं मेषो भूत्वा (इन्द्रः) राजानं (सोमं) पपौ । वही, 2.79 ।

2 स हि प्रत्यक्षं वरुणस्य पशुर्यन्मेषः । माशब्रा 2.5.2.16

3 मेधो वा एष पशूनामूर्ग् दधि । काठसं 20.7; सोमो वे दधि । काठसं 30.6; कौब्रा 8.9

4 काठसं 15.1 

5 ऐब्रा 8.19

6 दधिक्राव्णा एकादशपालं पुरोडाशं निर्वपेत् । मैसं 2.1.3

7 वाजिनं त्वां(दधिक्राव्यं) वाजिनो अवनयामः ऊर्ध्वं मनः सुवर्गम् । तैआ 4.12.1

5 एषा वा अग्नेर्दधिक्रावती प्रिया तनू । मैसं 1.5.6

9 तैसं 5.6.6.3


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साहित्य में इस दध्यङ का एक बड़ा रोचक आख्यान प्राप्त होता है। उसके अनुसार वह एक तपस्वी ऋषि है। उसकी तपःपूत अस्थियों से तीन सुप्रसिद्ध धनुष बनते हैं। एक वृत्र का वध करने के लिए इन्द्र को मिलता है। दूसरा वह शिव-धनुष है जिसे सीता-स्वयंवर में राम के सिवाय कोई भी देव, दैत्य या मनुष्य उठाने में भी समर्थ नहीं हो पाता । तीसरा वह विष्णु-धनुष है जिसे परशुराम राम की शक्ति-परीक्षा के लिए उनसे चढ़ाने को कहते हैं और राम उसे सहज ही में चढ़ा देते हैं । देवहित में धनुषनिर्माण के लिए वह ऋषि अपनी अस्थियों का दान कर मृत्यु का वरण कर लेता है।

बीज रूप में यही आख्यान वैदिक साहित्य में भी जहाँ-तहाँ बिखरा हुआ मिलता है । अथर्वण् के पुत्र दध्यङ् का ऋग्वेद में ही नौ बार उल्लेख हुआ है। वह एक ऋषि है जिसने अग्नि को समिद्ध1 किया था। उसका उल्लेख अथर्वण्, अंगिरस, मनु और अन्य प्राचीन यज्ञकर्ताओं के साथ2 मिलता है। अश्विनौ ने अथर्वण् के पुत्र दध्यञ्च को अश्वशिर दिया, तब दध्यञ्च ने त्वष्टा के8 मधु को प्रकट किया। अश्विनौ के सामने वह अश्वसिर बोला क्योंकि अश्विनौ ने दधीचि का मन पाकर ही उन्हें यह सिर प्रदान किया था। जिससे उसे उस मधु का उपदेश करना था जिसके लिए एक मधुकामा मक्षिका ने4 प्रार्थना की थी । इन्द्र ने दधीचि की अस्थियों द्वारा5 99 वृत्रों का वध किया और पर्वतों में उपश्रित उसके अश्वसिर को ढूँढते हुए उसे शर्यणावत्6 में पाया। इसी अश्वशिर से बृहदारण्यकोपनिषद्7 में दध्यङ को मधु-विद्या का उपदेश करने वाला कहा है। यह मधुविद्या ही सम्भवतः वह अमृत या सोम है जिसके द्वारा नवग्व दध्यङ् गोत्र उद्घाटित8 करता है । ऋग्वेद 10.48.2 में इन्द्र ने त्रित के लिए अहि के यहाँ से गौएँ निकालने के साथ-साथ दध्यञ्च और मातरिश्वा को जो गोत्र प्रदान किए वे भी सम्भवतः यही थे।

  यह दध्यङ् निश्चित ही पूर्वोक्त दधिक्रा अथवा दधिक्रावा का रूपान्तरमात्र है। दध्यङ का व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ है ‘दधि की ओर जाने वाला, दधिवाला अथवा दधि का इच्छुक' जबकि दधिक्रा और दधिक्रावा का तात्पर्य दधि को बिखेरने वाला हो सकता है। जैसा कि पहले कहा जा

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1 ऋ. 6.16.14

2 वही, 1.80.16: 139.9

3 वही, 1.117.22

4 ऋ. 1.119.9; 116.12

5 वही, 1,84.13

6 वही, 14

7 बृहदारण्यकोपनिषद्-1.1.1.23, 24, 25

8 ऋ. 9.108.3, 4


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है, सोम ही दधि है अत: दधि को बिखेरना अथवा सोमरूपी मधु अथवा मधुविद्या का उपदेश करना एक ही तथ्य की ओर संकेत करते प्रतीत होते हैं। यही तथ्य प्रकारान्तर से ‘देववेद' अथवा 'यज्ञशिर' भी है जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है और जिसे हिरण्यय कोश में स्थित आनन्दमय ब्रह्म का गुह्यज्ञान कहा जा सकता है ।


अथर्वा आपः और अश्व :  

दध्यङ् को आथर्वण कहा जाना एक अन्य रहस्य की ओर संकेत करता है । आथर्वण का अर्थ है अथर्वा का पुत्र अथवा अथर्वा का रूपांतर । अथर्वा की व्युत्पत्ति देते हुए ब्राह्मणग्रन्थ प्रायः एक आख्यान का उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार सृष्टिकाम ब्रह्म ने आपः का सर्जन किया। जब उससे पूछा गया कि ब्रह्म कहाँ है तो उत्तर मिला कि उसे इन्हीं आपः के बीच अथ-अर्वाक् में देखो। ब्रह्म ने अथ-अर्वाक् कहा इसलिए उसका अथर्वा1 नाम हो गया। यह परोक्ष रूप से ब्रह्म का नाम है क्योंकि देवता लोग परोक्ष से प्रेम करते हैं और प्रत्यक्ष से द्वेष । यही अथर्वा वह प्रजापति है जो सभी लोकों में प्रकाशित हो रहा है और जिसे जानने वाला भी उसी तरह प्रकाशित2 होता है। तात्पर्य यह है कि हिरण्ययकोश का जो चेतना रूपी सलिल विज्ञानमय कोश में शुद्ध आपः के रूप में प्रवाहित होता है, उसके भीतर स्वयं ब्रह्म अन्तर्हित है। यह अन्तर्हित ब्रह्म हिरण्ययकोश के

ब्रह्म का अथर्वा रूप है क्योंकि इसकी अर्वाक् (अधोमुखी) गति हो चली है। इन्हीं आपः को पाकर व्यष्टिगत जीवात्मा रूपी दध्यङ् आथर्वण बन जाता है क्योंकि यह आप:3 ही तो सोम है अथवा सोम का लोक4 है । सोम ही अमृत5 तथा मधु6 भी कहा जाता है और उसी का समीकरण पहले दधि के साथ भी किया जा चुका है। इसी दधि के प्रसंग से पुरुष दध्यङ् अथवा दधिक्रावा बनता है।

जब अश्व को आपः7 अथवा समुद्र8 से उद्भूत कहा जाता है तो

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1 गोब्रा 1.1.1- 4

2 वही, 1.1.4

3 आप: सोमः सुतः । माशब्रा 7.1.1.22

4 आपो हि एतस्य सोमस्य लोकः । वही, 4.4.5.21

5 काशब्रा 4.3.4.12, माशब्रा 9.5.1.8

6 काठसं 11.2

7 तुलनीय -  अप्सुयोनिर्वा अश्वः । तैसं 2.3.12.2, 5.3.12.2, माश 13.2.2.19, 7.10, 3.1.3, अप्सुजा वा अश्वा । मै 1.11.6, काठ 14.6-अप्सुजा उ वा अश्वः । माशब्रा 7.5.2.18

8 अश्वो वा सामुद्रि। वही, 13.2.2.14, जैब्रा 3.14

समुद्रो वा अश्वस्य योनिः समुद्रो बन्धुः । तैसं 7.5.25.2


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तात्पर्य इसी दधिक्रावा अश्व से होता है । यह अश्व मूलतः वही ओंकार रूपी अज-अश्व है जो आपः के माध्यम से प्रकट हो रहा है। इसी अज को अयोनिरश्वो अप्सुजा कह कर मैत्रायणीसंहिता और काठकसंहिता1 स्पष्ट करती हैं कि जो ओंकार ब्रह्म अजन्मा है वही प्राणरूपी आपः2 के माध्यम से जन्म लेने वाला अप्सुजा कहा जाता है। ये ही आपः क्षीररसाः3 कहे जाते हैं जिनके प्रसंग से ही हिरण्ययकोश रूपी स्वर्ग को वही क्षीरसागर का नाम दिया जाता है जिसमें पौराणिक विष्णु प्रायः सोते हुए बताए जाते हैं। यह विष्णु ही वह अज-अश्व है जो हिरण्ययकोश रूपी समुद्र के भीतर अन्तर्हित रहता है। वही जब विज्ञानमय कोश में प्रकट होता है तो उच्चैःश्रवा कहलाता है क्योंकि उसके प्रकट होने पर ही साधक के भीतर अनाहतनाद सुनाई पड़ता है । निघण्टु के अश्व-नामों में परिगणित औच्चैः श्रवस इसी ओर संकेत करता हुआ प्रतीत होता है । हमारे चेतना-समुद्र से जो 14 रत्न निकले हुए बताए जाते हैं उनमें भी इसी उच्चैःश्रवस् की गणना हुई है। वेद में भी दो स्थानों पर उच्चैःश्रवस् का उल्लेख है । इनमें से खिलसूक्त4 में जहाँ उसे उच्चैःश्रवस् कहा जाता है, वहाँ उसे शौनक-अथर्ववेद5 में औच्चैःश्रवस् कहा गया है। वहीं यह भी कहा गया है कि इन्द्र के दो हरियों में से एक को श्वेत लोग ‘दक्षिण' से युक्त करते हैं और जो देवों में मूर्धन्य इन्द्र को धारण करता है। इससे संकेत मिलता है कि इन्द्र का दूसरा हरि उत्तरपक्ष से जुड़ने वाला है। ये दोनों हरि वस्तुतः विज्ञानमय की चेतना शक्ति की द्विविधगति के द्योतक हैं। पराक् गति से वह उन्मनी शक्ति बन कर हिरण्ययकोश से जुड़ता है और अर्वाक् गति से वही मनोमय से लेकर अन्नमय कोश तक जाता है। आरोह और अवरोह क्रम से प्रवाहित होने वाली ये चेतनाशक्तियाँ--एक उत्तर(उच्चतर)पक्ष से सम्बन्ध रखती है और दूसरी उस अधोगामी शक्ति-प्रवाह का रूप लेती है जो मनोमय से लेकर अन्नमय तक दक्षता प्राप्त करती हुई दक्षिण पक्ष से युक्त कही जाती है।

     मनुष्यचेतना की यही द्विविध गति वैदिक साहित्य में भिन्न-भिन्न

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1 मै 2.3.3, तु. काठ 12.6

2 आपो वे प्राणा। 4.8.2.2, माशब्रा. 3.8.2.4

3 आपो वै क्षीररता आसन् । तांब्रा 13.4.8

4 यत्वा श्वेता उच्चैश्रवसं हर्योर्युञ्जन्ति दक्षिणम् ।

मूर्धानमश्वं देवानां बिभ्रदिन्द्रं महीयते ।। खि 5.14.5

5 पृष्ठं धावन्तं हर्योरौच्चैःश्रवसमनुब्रवन् ।

स्वस्त्यश्व जैत्रायेन्द्रमा वह सुस्रजम् ।। शौ 20.128.15, तु. खि 5.14.4


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रूपकों द्वारा वर्णित है । ऊर्ध्वमुखी गति जहाँ अनेकता में समन्वय स्थापित करने वाली साम कही जाती है, वहीं दूसरी गति ज्ञानात्मक शक्ति-प्रवाह होकर ऋक् कही जा सकती है। इसीलिए ब्राह्मणग्रन्थों के अनुसार ऋक्, साम1 इन्द्र के दो हरी हैं । चेतना के इन्हीं दो पक्षों को पूर्व और अपर अथवा पराक् और अर्वाक् पक्ष कहा जा सकता है जिनमें से एक के द्वारा पुरुष (आत्मा) अपने हिरण्यय कोशीय अजात (अज) रूप को प्राप्त करता है और दूसरे के द्वारा वही जात होकर यज्ञरूप2 ग्रहण करता है। इसी बात को मैत्रायणीसंहिता3 पुनः कहती है-अजातो वै पुरुष स वै यज्ञेन जायते । इसका अभिप्राय है पुरुष (आत्मा) का जन्म लेना ही उसका यज्ञरूप है, इसीलिए ब्राह्मणग्रन्थ आत्मा वै यज्ञः4 अथवा पुरुषो वै यज्ञः5 की रट लगाते हैं।

यज्ञ-रूप पुरुष को ही पुरुष-यज्ञ कहा जाता है । वेद-सविता के 18 अंकों में प्रकाशित पुरुष-सूक्त की व्याख्या करते हुए डॉ. फतहसिंह ने विस्तारपूर्वक बतलाया कि यम-नियम-संयम द्वारा चित्तवृत्तियों और प्राणों को एकाग्र करना ही पशु-बन्ध है और इस एकाग्रता से होने वाली समाधि से प्राप्त शक्ति-प्रवाह को विज्ञानमयकोश के माध्यम से मनोमय से लेकर अन्नमय तक नानारूपात्मक सृष्टि के रूप में प्रकट करना ही उस पुरुष का यज्ञ-रूप है। इसीलिए पुरुष-सूक्त में विभिन्न प्रतीकों द्वारा यज्ञरूप पुरुष से होने वाली सृष्टि का वर्णन किया गया है। यह सृष्टि व्यष्टिगत इच्छाओं, भावनाओं तथा क्रियाओं के प्रादुर्भाव से जहाँ आत्मा को पुरुष, अश्व, गो, अवि और अज रूप प्रदान करती है वहाँ यही उसके उस सामाजिक आयाम को भी प्रकट करती है जिसे हम ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य, शूद्र भेद से चातुर्वर्ण्य7 व्यवस्था में देखते हैं।

अश्वमेधात्पुरुषमेधः

पुरुषमेध का अस्तित्व में आना अश्वमेध पर अवलम्बित8 है क्योंकि जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जब तक आत्मा रूपी अर्वा-अश्व असुरों

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1 ऋक्सामे वै हरी । माशब्रा 4.4.3.6

2 अजातो वै तावत्पुरुषो यावदग्निं नाधत्ते स वै तर्हि एव जायते यर्हि अग्निमाधत्ते । मैसं 1.6.4

3 वही, 3.6.7

4 माशब्रा 6.2.1.7

5 वही, 10.2.1.2

६ वेद-सविता, अगस्त 1980 से अगस्त 1982 के अंकों में प्रकाशित

7 देखिए : डॉ. फतहसिंह, भारतीय समाजशास्त्र : मूलाधार

8 अश्वमेधात्पुरुषमेधः  । गोब्रा 1.5.7


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के प्रभाव में रह कर अमेध्य रहता है, तब तक वह यज्ञार्ह नहीं माना जाता। उसे यज्ञीय बनाने के लिए मेध्य बनाना होगा और मेध्य बनाने का तात्पर्य है मेधतत्त्व की खोज करते-करते हिरण्ययकोश की ज्योतिर्मय व्रीहिरूप मेध का साक्षात्कार करना तथा उसे पुनः विज्ञानमय कोश के माध्यम से मनोमय से लेकर अन्नमय कोश तक बिखेरना। यही तो अश्वमेध यज्ञ है। हिरण्ययकोशीय समुद्र में जो ब्रह्मरूपी सूर्य छिपा हुआ था वही सहस्रकिरण होकर इस यज्ञरूप पुरुष के रूप में प्रकट होकर अश्वमेध का रूप धारण करता है। यही स्वराट् पुरुष का विराट् होना है। इसी अश्वमेध का व्यष्टिगत राष्ट्र में जो विराट रूप प्रकट होता है उसी का बृहत् रूप हमें उस ब्रह्माण्ड यज्ञ में दिखाई देता है जिसके विषय में ऋग्वेद कहता है कि वह यज्ञ एकशतं देवकर्मों द्वारा सर्वत्र विस्तारित और आयत1 हो रहा है। यह प्राजापत्य सृष्टि है जिसमें देव, पितर आदि सभी शक्तियाँ सहयोग करती हैं और नाना प्रकार की ऐसी सृष्टि करती हैं जो हिरण्ययी मेधा के मेधतत्त्व से परिपूर्ण होती हैं। इसीलिए इस नानात्मक सृष्टि को अश्वमेध कहा जाता है।

अश्वमेध एक प्रकार का सोमयज्ञ ही माना गया है जिसका वर्णन यजुर्वेदीय संहिताओं और ब्राह्मणों में विस्तार के साथ दिया गया है। उन सबका सांगोपांग वर्णन करना यहाँ असंभव है। अत: उसका केवल संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करते हुए, यहाँ केवल यह संकेत किया जाएगा कि अश्वमेध यज्ञ में मूलतः किसी हाड़-मांस के घोड़े की बलि नहीं दी जाती थी अपितु यह शुद्धरूपेण अध्यात्मिक यज्ञ था जिसे हम पिण्डाण्ड और ब्रह्मांड दोनों में ही होता हुआ देख सकते हैं।

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1  ऋग्वेद 10.130.1



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