प्राक्कथन
वेद में अश्व शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है । पर, उसको सर्वत्र ‘घोड़ा' अर्थ में ग्रहण नहीं किया जा सकता क्योंकि वैदिक अश्व के पङ्ख हैं। इसीलिए निघण्टु में अश्व के पर्यायों में श्येन, सुपर्ण, पतंग भी हैं। वहाँ नर शब्द भी अश्व का पर्याय है और वह नर ही वह ग्राम है जिसमें अश्व के अतिरिक्त पुरुष, गौ, अज और अवि को ‘ग्राम्या पशवः' की उत्पत्ति कहा जाता है । प्रसिद्ध पुरुषसूक्त में जब पुरुष से गौ, अश्व, अज और अवि नामक पशुओं की उत्पत्ति बताई जाती है तो भी कुछ इसी प्रकार की अटपटी बात होती है। एक अन्य दृष्टि से अश्व' को माँ के सम्बन्ध से विभु और पिता के सम्बन्ध से प्रभु कहा गया है जो हय, अत्य, नर, अर्वा, सप्ति, वाजी, वृषा, नृम्णा और हय नाम ग्रहण करता है। इससे सन्देह होता है कि वैदिक अश्व मूलत: कोई ऐसा तत्व है जिसके रूपान्तरों को ही ये अनेक नाम दिए गए हैं। दध्यङ् ऋषि अश्विनौ को मधुविद्या का उपदेश अश्वशिर द्वारा ही करते हैं । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में ऐसी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया गया है।
ब्राह्मणग्रन्थ राष्ट्रं वा अश्वमेधः कह कर राष्ट्र को अश्वमेध बताते हैं। अथवा बृहदारण्यकोपनिषद् जब उषा को ही मेध्य अश्व का शिर कहता है तब नि:संदेह इस कथन से कोई हाड़मांस का अश्व अभिप्रेत नहीं हो सकता। इस दृष्टि से इस विषय के क्षेत्र को केवल संहिताग्रन्थों तक ही सीमित नहीं रखा गया है अपितु ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों पर भी विचार किया गया है। प्रसंगवश पुराणों को भी लिया गया है।
शोध की आवश्यकता :
यद्यपि वैदिक विद्वानों ने अश्व पर कुछ न कुछ लिखा ही है; परन्तु यह स्वीकार करना पड़ेगा कि जो समस्या प्रस्तावित शोध-प्रबन्ध में उठाई गई है वह अभी तक सर्वथा अछूती है। मैक्डानल, मैक्समूलर, कीथ और हिलेब्रां आदि ने भी यत्र-तत्र वैदिक अश्व की विशेषताओं पर कुछ प्रकाश डाला है; परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से अन्वेषण अभी तक नहीं हुआ है।
शोध प्रबन्ध की मौलिकता और आधुनिक ज्ञान को उसकी देन ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रस्तावित शोध प्रबन्ध एक सर्वथा मौलिक प्रयास है । इसमें जिस समस्या का हल ढूंढने का प्रयास किया गया हैं उससे वेद के
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1 तैसं. 7.1.12.1
2 माशब्रा 13.1.6.3, तैब्रा 3.8.9.4
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अनेक ऐसे स्थल स्पष्ट हो सकते हैं जो अभी तक रहस्य बने हुए हैं अथवा जिनको गपोड़ा कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए दधि को बिखेरने वाला दधिक्रा अथवा दधिक्रावा अश्व के प्रतीकवाद को समझने का यहाँ प्रयास किया गया है । इसी प्रकार ऋग्वेद 1.1 63 के उस विचित्र वाजी के रहस्य का भी पता चल सकता है जो समुद्र से जायमान होता हुआ श्येन के पक्ष और हरिण की बाहुओं से युक्त होकर अर्वा कहलाता है तथा द्यौ, आपः और समुद्र में से प्रत्येक स्थान पर जिस के तीन-तीन बन्धन बताए गए हैं। यह हिरण्यशृङ्ग अश्व यम द्वारा प्रदत्त, त्रित द्वारा योजित तथा इन्द्र के द्वारा अधिष्ठित है जिसकी रशना को गन्धर्व पकड़ता है और जिसे वसुगण सूर (सूर्य) से सम्पन्न करता है।
अतः स्पष्ट है कि वेद के विषय में अभी तक हमारा जो ज्ञान है उसमें प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध अवश्य ही कुछ न कुछ वृद्धि करेगा।
शोध प्रबन्ध का सारांश ।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध 10 अध्यायों में विभाजित है । प्रत्येक अध्याय में अश्व और उसके पर्यायों का प्रतीकार्थ आध्यात्मिक दृष्टि से समझने का प्रयास किया गया है। प्रत्येक अध्याय का सारांश यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है—
प्रथम अध्याय :
इसमें वैदिक अश्व के प्रतीकवाद पर विचार किया गया है । वैदिके अश्व सामान्य घोड़ा नहीं अपितु कोई अलौकिक तत्त्व है जिसके सींग हैं। उसके सींग, केश, कक्ष और अक्ष हिरण्य के हैं, तो पाद और अक्ष अयस् के हैं। यह अश्व देवजात, देवयान तथा देवबन्धु है । इसका समीकरण त्वष्टा, अदिति, यम, आदित्य, त्रित तथा वरुण से किया जाता है । इस अश्व को वायु अथवा मनु युक्त करते हैं। मनुष्य नहीं । इसी प्रकार वैदिक अश्व की लोकोत्तरता उसके विभिन्न कार्यों से भी सिद्ध होती है।
अश्व की इस लोकोत्तरता को समझने के लिए, इसी अध्याय में आध्यात्मिक दृष्टि अपनाने की सम्भात्रना व्यक्त की गई है । दध्यङ् आथर्वण ऋषि का प्रसंग भी इसी अध्याय में उठाया गया है जो कि अश्वशिर द्वारा अश्विनौ को मधुविद्या का उपदेश करता है। वेद में इन्द्र, सोम, अग्नि प्रत्येक को अश्व कहा गया है । अश्व के इस सामान्य परिचय से ही वैदिक अश्व की रहस्यात्मकता स्पष्ट है । अतः आगे के अध्यायों में उसकी अलौकिकता ध्यान में रखते हुए वैदिक अश्व के प्रतीकार्थ को खोजने का प्रयास किया गया है ।
द्वितीय अध्याय :
इसमें वृषा अश्व की चर्चा की गई है। वृषा अश्व मूलतः पर्जन्य है; परन्तु पर्जन्य वेद में कोई साधारण मेघ नहीं है यद्यपि जब पर्जन्य वेद में वृष्टिमान् कहा
जाता है तो ऐसा ही प्रतीत होता है। पर्जन्य वस्तुतः योग की घर्ममेघ समाधि में सच्चिदानन्दात्मक वृष्टि करने वाला रहस्यमय अश्व है । पर्जन्य में इन्द्र, सोम, अग्नि तीनों का समावेश है । वृषा को पर्जन्यपत्नी बताया गया है ।
वृष्ण अश्व के सम्बन्ध से ही दोनों अश्विनौ की कल्पना की गई है। अश्विनों का साधारण अर्थ अश्वारोही अथवा अश्व वाले होता है । हिरण्ययकोश का ब्रह्म अश्व है तो विज्ञानमय कोश से अन्नमय कोश तक इस ब्रह्मचेतना के जो पराक् और अर्वाक् गति से उन्मन तथा समन आदि द्विविध रूप मिलते हैं उन्हीं को अश्विनौ कहा गया है। यहीं अश्विनौ के अश्वों का विवेचन किया गया है। अश्विनौ का जिस ब्रह्म रूपी अश्व से सम्बन्ध है वह श्वेत अश्व एक है। जो कि मूल प्राण है । ब्राह्मणग्रन्थ भी ‘प्राण वै हरि:' कह कर मूल अश्व की ओर संकेत करते हैं। इसके रूपों को हरयः कहा गया है। यह मूल हरि अथवा अश्व ही वृषा है इसलिए अथर्ववेद के प्राण सूक्त में वर्षणशील प्राण का वर्णन प्राप्त होता है। प्राण के लिए सुपर्ण, हंस, श्येन आदि अश्वनामों का भी प्रयोग हुआ है ।
तृतीय अध्याय :
इस में अश्वों को रथ्याः अथवा रथ्यासः कहे जाने पर विचार किया गया है। ये नाम यह संकेत देते हैं कि वैदिक अश्व का सम्बन्ध लौकिक अश्व के साथ अत्यन्त घनिष्ठ है । अनेक प्रकार के देवरथों को ये अश्व खींचते हैं । विभिन्न देवों के सन्दर्भ में ये अश्व अलग-अलग नाम ग्रहण करते हैं। सूर्य के अश्व का नाम एतश अथवा हरित है । इन्द्र के रथ को दो हरि खींचते हैं; परन्तु कहीं-कहीं अनेक हरियों का भी उल्लेख मिलता है । इसी प्रकार अग्नि का रोहित, अश्विनौ के रासभौ, पूषा का अज, मरुतों के प्रसत्यः, उषाओं के अरुण्यः, सविता के श्यावाः, बृहस्पति के विश्वरूपा तथा वायु के नियुत नामक अश्वविशेष बतलाए गए हैं। इन नामों में से एतश ही ऐसा नाम है जो निघण्टु के अश्वनामों में परिगणित है । निघण्टु-सूची में आने वाला दधिक्रा नामक अश्व भी तीव्र गति से रथ को पृथक पंक्ति में ले जाता है ।
अश्व से सम्बन्धित रथ की चर्चा भी वेद में मिलती है। कहीं एकचक्र रथ में सप्त अश्व जोड़े जाते हैं। साथ ही, यह भी कहा जाता है कि एक ही अश्व है जिसके सात नाम हैं । इस रथ के चक्र में तीन नाभियाँ हैं जहाँ विश्वभुवन अधिष्ठित कहे जाते हैं। बताया जाता है कि वह सप्तचक्र रथ है जिसे सात ही घोड़े खींचते हैं । यह रथ मनुष्यरथ है । इस मनुष्यरथ की विस्तृत व्याख्या इस अध्याय में की गई है।
चतुर्थ अध्याय :
इसमें वैदिक अश्व का उत्तरोत्तर विकास दिखाया गया है। वेद में मनुष्य व्यक्तित्व का निकृष्टतम रूप अहंकार अथवा वृत्ररूपी दीर्घतमः' के रूप में प्रस्तु
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किया गया है । इस व्यक्तित्व में जब 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की इष्टि (इच्छा) उत्पन्न होती है तो वह दीर्घतमा ऋषि बन जाता है । तथा शनैः शनै तमोहन अग्नि रूपी अश्व की खोज करता हुआ आगे बढ़ता है । इस खोज के फलस्वरूप जो प्राण अथवा जीवरूपी अश्व पहले अहङ्कार तथा उससे प्रसूत कामक्रोधादि कल्मषों के प्रभाव से अमेध्य (अपवित्र) हो गया था वह धीरे-धीरे मेध्य होने लगता है। प्राण अथवा जीव की जो यात्रा मेध्यता प्राप्त करने के लिए होती है, उसी को आध्यात्मिक अश्वमेध कहा जाता है। मनुष्य व्यक्तित्व अश्वमेध होने पर ही अपने अरातियों को नष्ट करके रातिप्रदत्त प्राणों का त्राण करने वाला राष्ट्र बनता है। इसलिए ब्राह्मणग्रन्थों में राष्ट्रं वै अश्वमेधः' की उक्ति प्रचलित हुई।
इसी अध्याय में ऋग्वेद में प्रथम मण्डल के 140 से लेकर 164 सूक्त तक दीर्घतमा ऋषि की पूर्वोक्त खोज का विस्तृत विवेचन हुआ है। इसी प्रसंग में ऋभु, विभ्वा और वाज नामक तीन बन्धुओं की भी चर्चा की गई है।
पञ्चम अध्याय ।
इस में दधिक्रा अश्व पर 'दधिक्रा प्रथमो वाजी' की दृष्टि से विचार किया गया है। ऋग्वेद के 4.38-40 में उस अश्व की चर्चा की गई है । ब्राह्मण-ग्रन्थों में
आई मेधतत्व की आख्यायिका का प्रतीकवाद भी यहाँ बताया गया है । दधिक्रा के वर्णन में बताया गया है कि मेषरूप में परब्रह्म जिस सोम का पान करता है उसे दधि रूप में भी कल्पित किया गया है । यह दधि वास्तव में पूर्वोक्त ॐ रूपी दधिक्रा द्वारा बिखेरा गया दधि है जिसे जीवात्मा भक्तिरस रूपी सोम के रूप में प्रस्तुत करता है। इसी सोम रूपी दधि की ओर जाने वाला अथवा दधि का इच्छुक दध्यङ् है जो पुराणों में दधीचि ऋषि के रूप में प्राप्त होता है । उस दधि का मनुष्य-व्यक्तित्व में बिखरना ही प्रकारान्तर से सोमरूपी मधु का प्रसार अथवा दान है। इस दधि के सर्वत्र प्रसारित ‘अस्तित्व को दध्यङः की अस्थियाँ मानकर उसे दध्यङ या दधीचि की अस्थियों से निमित उस वज्र के रूप में कल्पित किया गया है जिससे अहङ्कार रूपी वृत्र मारा जाता है ।
षष्टम अध्याय :
इसमें उपर्युक्त तथ्य को एक दूसरे रूप में रखा गया हैं । असुरवाहक अर्वा का अमेध्य से मेध्य होना उक्त दधि के, दधिसोम के प्रसार से सम्भव है । अतः मनुष्य-व्यक्तित्व में उक्त दधि का प्रसार वस्तुत: मेध का प्रसार है अथवा अर्वा को अमेध्य से मेध्य बनाना है । दूसरी दृष्टि से उसको अश्वमेध कहा जाता है जिसमें मनुष्य-व्यक्तित्व के सभी प्राणरूपी देवों का भाग माना जाता है । इस अश्वमेध का सामान्य विवेचन विभिन्न ब्राह्मण-कथाओं के माध्यम से इस अध्याय में किया गया हैं। कर्मकाण्ड में अश्वमेध अथवा उसके अन्तर्गत आने वाले सौत्रामणी आदि का जो
परम्परागत रूप प्राप्त होता है वह अत्यन्त भ्रामक है । अश्वमेध सोमयाग माना जाता है और सोम अध्यात्मिक दृष्टि से नि:सन्देह ब्रह्मानन्द रस है । अत: अश्वमेध के कर्मकाण्ड का जो विवेचन वेदमन्त्रों अथवा ब्राह्मणों में प्राप्त होता है उस में ऐसे कुछ संकेत भी मिल जाते हैं कि उस यज्ञ में होने वाले विभिन्न कार्यकलाप किसी अप्रत्यक्ष आध्यात्मिक रहस्य के द्योतक हैं । अश्वमेध का अश्व पिण्डाण्ड में आत्मा और ब्रह्माण्ड में परब्रह्म है ।
सप्तम अध्याय ।
इसमें अश्व के पर्याय उच्चैःश्रवा अथवा औच्चैःश्रवा का विवेचन किया गया है। यह इन्द्र का अश्व माना गया है। इसी के प्रसंग से हरी और हरयः की भी व्याख्या की गई है। पुराणों के अनुसार भी इन्द्र उच्चैःश्रवा अश्व पर आरूढ़ होता है । वैदिक साहित्य में अश्व के चार रूपों का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि हय देबों का, अर्वा असुरों का, वाजी गन्धर्वो का और अश्व मनुष्यों का वाहक हुआ। ये हय आदि चतुविध रूप उच्चैःश्रवा के ही रूपान्तर प्रतीत होते हैं । यहीं हय का विवेचन करते हुए बताया गया है कि आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य-चेतना का विज्ञानमूलक भावपक्ष हय है। वाजी को समझने के लिए गन्धर्वाप्सरस की कुछ विस्तार से विवेचना की गई है।
अष्टम अध्याय :
इसमें वाजी पर विचार किया गया है । वाज शब्द में इन प्रत्यय के योग से वाजी शब्द निष्पन्न हुआ है । वाज शब्द निघण्टु में अन्ननामानि तथा बलनामानि में परिगणित है । वस्तुत: वाज उस शक्ति का वाहक है जो मनुष्य-व्यक्तित्व के परिपोषण, परिवर्धन के लिए अन्न का काम करती है । वाज के प्रसंग से यहाँ पुन: ऋभ, विभ्वा और वाज पर भी चिन्तन किया गया है । वेदों में विभिन्न देवों को वाजयुक्त बतलाया गया है। वहाँ उषा और सरस्वती को वाजिनी और वाजिनीवती कहा गया है। अश्विनौ वाजिनीवसू हैं तो अग्नि, इन्द्र और सोम प्रत्येक को वाजी बताया गया है ।
नवम अध्याय :
इसमें अश्व-पर्यायों के एकत्व और बहुत्व पर विचार किया गया है। साथ ही अवशिष्ट समस्त अश्व-पर्यायों हंसासः, श्येनासः, सुपर्याः, तार्क्ष्यः, नरः, अव्यथयः, ह्वार्याणाम्, पैद्वः, एतशः, एतग्वः, मांश्चत्वः, वह्निः, अरुषः दौर्गहः, आशुः, सप्ति और अत्यः को आध्यात्मिक दृष्टि से समझने का प्रयास किया गया है ।
दशम अध्याय :
यह अध्याय पूर्व के 9 अध्यायों का उपसंहार रूप है। इसमें पहले आए 9 अध्यायों के विषयों को संक्षेप में बताया गया है और निष्कर्ष रूप में दर्शाया गया है।
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कि अश्व की अलौकिता और विलक्षणताओं को लेकर प्रथम अध्याय में जो समस्या प्रस्तुत की गई थी उसका समाधान आध्यात्मिक दृष्टिकोण द्वारा ही किया जा सकता है।
परिशिष्ट :
परिशिष्ट में अति संक्षेप में अश्व का किञ्चित् लौकिक स्वरूप बताया गया है । वैदिक अश्व की विशेषताएँ जिस प्राणी में पाईं उसे लोक में अश्व कहा गया है । वेद में अश्व को पशुओं में श्रेष्ठ माना गया है साथ ही उसे वीर्यवत्तम, ओजस्वितम, यशस्वितम आदि कहा गया है और बताया गया है कि इसी कारण (लौकिक) अश्व पशुओं में श्रेष्ठ, वीर्यवत्तम, ओजस्वितम आदि होता है ।
आभार-प्रदर्शन
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के निर्देशक, अद्वितीय चिन्तक एवं वेदादि शास्त्रों के अद्भुत ज्ञाता डॉ. अभयदेव शर्मा के प्रति मैं अपना हार्दिक आभार अभिव्यक्त करती हूं जिनके अलौकिक वेदज्ञान और पितृवत् स्नेह ने वेदाध्ययन के प्रति न केवल मेरो रुचि जाग्रत की वरन् समय-समय पर वेदार्थ रूपी सोम का पान करा कर मेरे मानस को आध्यात्मिक अनुभव का पान भी कराया। पूज्य गुरुवर्य को देखकर निश्चित ही उन आदि ऋषियों का भी स्मरण हो जाता है जिन्होंने योगसमाधि में इस ईश्वरीय सन्देश को ग्रहण किया होगा।
मैं अपने माता, पिता, भ्राता श्री मुकेश कुमार तथा पतिदेव के प्रति भी उनके सतत सहयोग और प्रेरणा के लिए कृतज्ञता ज्ञापन करती हूं। पतिदेव श्री निरंजन साहू ने टंकण-कार्य की शुद्धि के समय घर और पुत्री के दायित्वों से दूर रखकर मुझ पर जो कृपा की हैं उसे मैं कभी नहीं भुला सकूंगी ।
इस समय पुत्री वल्लरी का स्मरण न करना उसके प्रति अत्यधिक अन्याय होगा क्योंकि वह सर्वदा छाया की भाँति मेरे साथ लगी रही है और ऐसे समय में निश्चित ही मुझसे दूर रहकर उसने मानसिक कष्ट सहा है। उस निरीह के लिए बस मेरे पास आशीर्वाद ही है ।
सखी आराधना और कामना का भी मैं आभार मानती हूं जिन्होंने कार्य को शीघ्रता से समाप्त करने हेतु मुझे निरन्तर प्रेरित किया है तथा अनेकविध सहयोग दिया है ।।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, मोतीलाल जी शास्त्री, डॉ. फतहसिंह और डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली की पुस्तकों के अध्ययन से वेद के विषय में मुझे बहुत सहायता मिली है । अतः मैं इन सबका हृदय से आभार मानती हूं।
सर्वाधिक ऋणी मैं उस परमपिता परमात्मा की हूं जिसने मुझे वेदादि पावन साहित्य एवं संस्कृत भाषा के प्रति सहज रुचि प्रदान की है । साथ ही, उन श्रेष्ठ विचारों वाले माता-पिता के घर में जन्म दिया जिन्होंने कभी भी मेरे वेदाध्ययन व संस्कृताध्ययन में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आने दी । ईश्वर से प्रार्थना है कि प्रत्येक जन्म में मैं इन्हीं को माता-पिता के रूप में प्राप्त करूँ । परमेश्वर मेरी अध्ययन के प्रति स्वाभाविक रुचि को निरन्तर बनाए रखे तथा आजीवन मुझको वेदाध्ययन की शक्ति प्रदान करे ताकि मैं पितृ-ऋण और ऋषिऋण से किञ्चित् मुक्त हो सकूँ।
मैं उन सबके प्रति अपना आभार व्यक्त करती हूं जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष --किसी भी रूप में इस शोध-प्रबन्ध को पूर्ण करने में अपना सहयोग दिया है ।
और अन्त में पुनः डॉ. अभय देव शर्मा का आभार मानती हुई मैं अपने लेखन को विराम देती हूं।
प्रस्तोत्री
माधुरी