षष्ठ अध्याय
अश्वमेध यज्ञ
वैदिक साहित्य में अश्वमेध की बड़ी महिमा है। जब प्रजापति ने अश्वमेध को अपने में स्थापित किया तो देव लोग प्रजापति से बोले--यही तो यज्ञ है जिसको अश्वमेध कहते हैं, हमारा भी इसमें भाग होना चाहिए।1 देवों के लिए स्पृहणीय इस अश्वमेध का सम्बन्ध प्रजापति के चक्षु के पुनराधान से भी माना गया है। तदनुसार प्रजापति की आँख ही उससे पृथक् जाकर अश्व बन जाती है और देव अश्वमेध द्वारा उस चक्षु को पुन: स्थापित कर देते हैं। इस प्रकार होने वाला अश्वमेध प्रजापति को सर्व’ बना देता है। इसी बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कहा गया है कि प्रजापति का चक्षु ही अश्व हो गया और वह अश्व ही शुचि होकर प्रजापति में पुनः प्रविष्ट हो गया । यहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि प्रजापति का वह चक्षु वास्तव में ज्योति3 है और चक्षु का पुन: प्रवेश करने का तात्पर्य है ज्योति का प्रवेश करना । यज्ञों का राजा4 भी इस अश्वमेध को कहा गया है ।
इस संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि अश्वमेध यज्ञ के मूल में प्रजापति के चक्षु रूपी ज्योति का गमन तथा पुनरागमन अवश्य है और इस चक्षु को अश्व भी कहा गया है, इसलिए अश्वमेध के कर्मकाण्ड में जो अश्व का इधर-उधर जाना और फिर घूमकर आ जाना होता है वह सम्भवतः इसी ज्योति के गमनागमन का प्रतीक हो । संभवतः इस ज्योति की पुनः पुनः प्राप्ति को ही अश्वमेध के अश्व का ‘आलभन' कहा जाता था। प्रत्येक ज्योति के आगमन से सम्बन्धित इस अश्वमेध का ही प्रतीक दर्शपूर्णमास9 नामक यज्ञ भी है। एक स्थान पर कहा गया है कि प्रजापति ने
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1 माशब्रा 13.2.1.1
2 तैसं 5.3.12.1, 2, तुलनीय माशब्रा 13,3.1.1, 2; तांब्रा 21.4.2 द्रष्टव्य जैब्रा 2.268
3 प्रजापतेरक्ष्यश्वयत् । तत् परापतत् सोऽकामत्-पुनर मा चक्षुर् आविशेद् इति । स एतत् सामापश्यत् । तेनास्तुत । ततो वै तं चक्षुः पुनर् आविशत् । अश्व एव शुचिर्भूत्वा एनं पुनर् आविशत् । तज्ज्योतिर्वै चक्षुः । ज्योतिर्वावैनं तद्
आविशत् जैब्रा 3.102
4 राजा वा एष यज्ञानां यदश्वमेधः । माशब्रा 13.2.2.1, 2
9 तं वा एतम् । मासि मास्येवाश्वमेधमालभन्ते । स यो हैवं विद्वानग्निहोत्रञ्च
जुहोति दर्श पूर्णमासाभ्यां च यजते मासि मासि हैवास्याश्वमेधे नेष्टम्भवत्येतद्व हास्याग्निहोत्रञ्च दर्शपूर्णमासो चाश्वमेधमभिसम्पद्यते । माशब्रा 11.2.5.5
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अश्वमेध की सृष्टि की तो वह प्रजापति से दूर भाग गया और दिशाओं में प्रवेश कर गया; तब देवों ने उस अश्वमेध को फिर इष्टियों द्वारा खोजकर प्राप्त कर लिया ।1 स्पष्टतः इस कथन में वही चक्षु रूपी ज्योति अथवा अश्व के गमनागमन की कथा संकेतित है।
यजमानो वा अश्वमेधः ।।
अब प्रश्न होता है कि इस ज्योति रूपी चक्षु या अश्व का गमनागमन कहाँ होता है ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने चलते हैं तो डॉ. सुधीर कुमार गुप्त का यह कथन एक निर्भ्रान्त सत्य की तरह सामने आता है कि ‘अश्वमेध का केन्द्र व्यक्ति है।2 इसी बात की पुष्टि ब्राह्मणग्रन्थों ने ‘यजमानो वा अश्वमेध'3 कहकर की है। ऐसी स्थिति में जब प्रजापति4 को अश्वमेध कहा जाता है तो आत्मा5 को ही प्रजापति मानना ठीक होगा। वस्तुतः यज्ञ का मूल रूप आध्यात्मिक ही है इसलिए आत्मा6 को प्रायः यजमान कहा गया है। अन्यत्र कहा गया है कि यजमान प्रजापति7 होकर प्र-जात होता है । इसी तथ्य की पुनरुक्ति ‘पुरुषो वै प्रजापति'8 कह कर भी की जाती है। ।
दूसरे शब्दों में, अश्वमेध का सम्बध उस आत्मयाजी साधक से है जिसे देवयाजी भी कहा जाता है। उस साधक का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह आत्मयाजी यह जानता है कि उसका कौनसा अंग किसके द्वारा सुसंस्कृत होता है और इस प्रकार वह पाप से मुक्त हो जाता है; ऐसा करके वह ऋङ्मय, यजुर्मय, साममय तथा आहुतिमय होकर स्वर्गलोक प्राप्त करता है ।9 यही आत्मयाजी साधक उस जीवयाज10 का यजन करने वाला तथा सोमपा तथा स्वादुक्षआ जीवात्मा रूपी यजमान हो
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1 प्रजापतिरश्वमेधसृजत । सोऽस्मात्सृष्टः पराङेत्स दिशोऽनुप्राविशतन्देवाः
प्रैषमैच्छस्तमिष्टिभिरनुप्रायुञ्जत तमिष्टिभिरन्वैच्छंस्तमिष्टिभिरन्वविन्दन्
यदिष्टिभिर्यजते ऽश्वमेव तन्मेध्यं यजमानोऽन्विच्छति ।। शब्रा 13.1.4.1
2 वेद-सविता, वर्ष 5 : अङ्क 11 : जून 1985 : पृष्ठ 373
3 माशब्रा 13.2.2.1, 2; 11.2
4 वही, 13.2.2.14
5 आत्मैव प्रजापतिर्यज्ञस्य । वही, 4.2.5.3
6 आत्मा यजमानः । कौब्रा 17.7, गोब्रा 2.5.4, तैआ 10.64.1
7 तैब्रा 2.2.1.2
8 जैब्रा 2.427, 256, माशब्रा 6.2.1.23, 7.1.1.37
9 तदाहुः। आत्मयाजी श्रेया३न्देवयाजी३ इत्यात्मयाजीति ह ब्रूयात्स ह वा आत्मयाजी यो वेदेदं मेऽनेनाङ्गं संस्क्रियत इदं मेऽनेनाङ्गमुपधीयत इति स यथाहिस्त्वचो निर्मुच्येतैवमस्मान्मर्त्याच्छरीरात्पाप्मनो निर्मुच्यते स ऋङ्मयो यजुर्मयः साममय आहुतिमयः स्वर्गं लोकमभिसम्भवति। माशब्रा 11.2.6.13
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सकता है जिसको अग्नि रूपी ज्योति को ‘भूमि'1 (भ्रमणशील) कहकर सम्भवतः पूर्वोक्त ज्योति रूपी चक्षु की ओर संकेत किया गया है जिसे अश्वमेध के अश्व का प्रतीक माना जाता है। इसी अग्नि से प्रार्थना की की गई है कि वह मनुष्यवत्, अंगिरसवत् ययातिवत् तथा पूर्ववत् होकर दैव्य जन को लावे और उसको हृदय रूपी बह पर आसीन करे ।2 इस क्रिया के फलस्वरूप साधक आशा करता है कि अग्नि हमें वाजवती सुमति से युक्त कर3 दे।
डाँ फतहसिंह के अनुसार, उपर्युक्त मनुष्यवत्, अंगिरसवत्, ययातिवत् तथा पूर्ववत् शब्दों द्वारा मनुष्य-व्यक्तित्व के चार कोशों की ओर संकेत किया गया है जो हिरण्ययकोश से नीचे के हैं। अतः पूर्वोक्त अग्नि रूपी ज्योति का भ्रमणशील होना ही सम्भवतः अश्वमेध के अश्व का परिभ्रमण है और इस परिभ्रमण के द्वारा उसके मेध्यत्व प्राप्त करने की ओर ही पूर्वोक्त ‘दैव्यजन' द्वारा संकेत किया गया है। इस प्रसंग में जब साधक यजमान को ‘प्रयतदक्षिणं नरं' कहा जाता है तो अश्वमेध के अश्व द्वारा की जाने वाली प्रदक्षिणा की ओर संकेत हो सकता4 है । आत्मयाजी का यह आत्मा मन, वाक् और प्राण रूप में त्रिविध माना गया है जो काम, सङ्कल्प, विचिकित्सा, श्रद्धा, अश्रद्धा, धृति, अधृति आदि मानसिक व्यापारों के अतिरिक्त प्राण, अपान, व्यान आदि के अनेक रूपों में प्रकट होकर वाङ्मय, मनोमय और प्राणमय के रूप में त्रिविध कहा जाता है जिनके सम्बन्ध से ही साधक के भीतर क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद तथा देव, पितर और मनुष्यादि की त्रिविधता5 मानी जाती है । इस प्रकार आत्मयाजी के आध्यात्मिक यज्ञ को अश्वमेध यज्ञ के रूप में कल्पित किया जाना सर्वथा समीचीन प्रतीत होता है ।
अतः कोई आश्चर्य नहीं कि वैदिक-विश्वदर्शन के लेखक पं. हरिशंकर जोशी ने वाजसनेयी संहिता का प्रधान यज्ञ अश्वमेध को मानते हुए लिखा है कि, 'उस अश्वमेध के अश्व में पूर्ण ब्रह्मज्ञान की अनुभूति है । अश्व प्राण है, मेध मेधा है, प्राणों से मेधा फूँकते थे, यह ऋग्वेद स्वयं लिख गया है ।'6 ऋग्वेद में अश्वमेध7 शब्द ‘सूरि' (ज्ञानी) के लिए प्रयुक्त हुआ है और ऋग्वेद 5.27.4 में अग्नि से प्रार्थना की गई है कि वह जिस अश्वमेध को अपना मानता है उसे मेधा प्रार्थना करे। वास्तव में ऋग्वेद
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1 वही, 1.31.16
2 वही, 17
3 वही, 18
4 1.31.15
5 माशब्रा 14.4.3.8-14
6 हरिशंकर जोशी : वैदिक विश्वदर्शन : पृ. 21-22
7 ऋ. 5.27.4
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5.27 के 6 मन्त्रों में क्रमशः त्र्यरुण, त्रैविष्णु, त्रसदस्यु, पौरुकुत्स, अश्वमेध और अत्रि को ऋषि माना गया है । अतः इन छह मन्त्रों में से निम्नलिखित तीन मन्त्रों में अश्वमेध शब्द प्रयुक्त हुआ है--
यो म इति प्रवोचत्यश्वमेधाय सूरये ।
दददृचा सनिं यते ददन्मेधामृतायते ।।4।।
यस्य मा परुषा शतमुद्धर्षयन्त्युक्षणः ।
अश्वमेधस्य दानाः सोमा इव त्र्याशिरः ।।5।।
इन्द्राग्नी शतदाव्न्यश्वमेधे सुवीर्यम् ।
क्षत्रं धारयतं बृहद्दिवि सूर्यमिवाजरम् ।।6।।
डॉ. फतहसिंह के मतानुसार यहाँ अश्वमेध अथवा अश्वमेध सूरि से अभिप्राय उस ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति से है जिसकी दृष्टि से इन मन्त्रों को समझा जाना चाहिए। इस मान्यता से श्री हरिशंकर जोशी के उपर्युक्त मत की पुष्टि होती हुई दिखाई देती है। इसी की पुष्टि में बृहदारण्यकोपनिषद् के उस प्रारंभिक अंश को ही लिया जा सकता है जो ‘उषा वा अश्वस्य मेधस्य शिरः' से आरम्भ होता है । इसके अनुसार ‘उषा ही मेध्य अश्व का शिरः' है। सूर्य उसकी आँख है। वात प्राण है। व्यात्त अग्नि वैश्वानर है । सम्वत्सर आत्मा है । द्यौ पृष्ठ, अन्तरिक्ष उदर, पार्श्व अवान्तर दिशाएँ हैं । पसलियाँ ऋतुएँ हैं, अंग मास तथा अर्द्धमास है । पर्व अहोरात्र हैं। हड्ड़ियाँ नक्षत्र हैं। नभ मांस है। उपस्थ शुक्र है, सिन्धु गुदा है, यकृतादि पर्वत है । औषधि, वनस्पति रोम हैं, मुखभाग उत्तरायण है, जघनभाग दक्षिणायन है, उसकी गति ब्रह्मविजृम्भण है। उसका विधूनन विद्युत्गर्जना है । उसका मूत्र वर्षा है और उसकी बोली ही वाणी है ।
यह अवतरण वाजसनेयीसंहिता के बृहदारण्यकोपनिषद् से ही लिया गया है । अतः यह स्पष्ट है कि वाजसनेयी संहिता की अश्वमेध वाली परम्परा में अश्वमेध के आध्यात्मिक स्वरूप को ही प्रमुखता दी गई है और परवर्ती काल में कर्मकाण्डियों का स्वरूप निर्धारित किया वह वस्तुतः इसी आध्यात्मिक अश्वमेध का प्रतीक है। यह बात केवल अश्वमेध के लिए ही नहीं अपितु सभी श्रौतयज्ञों पर लागू होती है । उदाहरण के लिए गर्भोपनिषद्1 के उस प्रसंग को ले सकते हैं जिनमें तीन अग्नियों को क्रमशः ज्ञानाग्नि, दर्शनाग्नि तथा कोष्ठाग्नि नाम दिया गया है और इन अग्नियों के आश्रय के कारण ही शरीर को शरीर माना गया है। इनमें से कोष्ठाग्नि भोजन पकाती है, दर्शनाग्नि रूपादि का दर्शन कराती
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गर्मोपनिषद् 1.1
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है, ज्ञानाग्नि शुभाशुभ कर्म का निर्णय करती है। इनके तीन स्थान हैं--मुख में आहवनीय, उदर में गार्हपत्य और हृदय में दक्षिणाग्नि रहती है । यज्ञ का यजमान आत्मा, मन ब्रह्मा, लोमादि बलि-पशु, ज्ञानेन्द्रिय यज्ञपात्र, कर्मेन्द्रियाँ हवि, शिर कपाल, केश दर्भ तथा मुख ही अन्तर्विधि1 है । इसी प्रकार प्राणाग्निहोत्रोपनिषद्2 में लिखा है कि शरीर में चार अग्नियों में यज्ञ हो रहा है। सर्वप्रथम सूर्याग्नि हमारे मस्तिष्क में, दूसरी दर्शनाग्नि आहवनीय रूप में हमारे मुख में, अर्धचन्द्राकार दक्षिणाग्नि हृदय में और कोष्ठाग्नि गार्हपत्य बनकर नाभि में वास करती है । यह उपनिषद् आगे बतलाता है कि इस शारीरिक यज्ञ की डोरी से बँधे यूप का यजमान स्वयं आत्मा है, बुद्धि पत्नी है, वेद महाऋत्विज है, अहंकार अध्वर्यु है, चित्त ‘होता है, प्राण ब्राह्मणाच्छंसी है, अपान प्रतिप्रस्थाता है, व्यान प्रस्तोता है, उदान उद्गाता है, समान मैत्रावरुण है, शरीर वेदि है, नासिका उत्तरवेदि है, मूर्धा द्रोणकलश है, पाद रथ हैं, दाहिना हाथ स्रुवा है, बायाँ आज्यस्थाली है, दोनों कान आघार हैं, दोनों आँखें आज्यभाग हैं, ग्रीवा धारा-पोता है, तन्मात्रा सदस्य हैं, पञ्च महाभूत प्रयाज हैं, जीभ इडा है, दन्त और ओष्ठ सूक्तवाक् हैं, तालु शंयोर्वाक् है, स्मृति, दया, क्षान्ति, अहिंसा, पत्नीसंयाज हैं, ओंकार यूप है, आशा रस्सी है, मन रथ है, काम पशु है, केश कुश हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ यज्ञपात्र हैं, कर्मेन्द्रियाँ हवि हैं, अहिंसा इष्टि है, त्याग दक्षिणा है । ये सब हमारे इसी शरीर में सन्निहित हैं। इस प्रकार यह पक्ष हमारे भीतर ही होता है ।
इसी प्रकार की व्याख्या हमें नारायणोपनिषद् के अन्तिम खण्ड में मिलती है। उसमें सर्वाधिक विस्तार है इसलिए उसे यहाँ केवल मूलरूप में उद्धृत किया जा रहा है –
तस्यैवं विदुषो यज्ञस्यात्मा यजमानः श्रद्धा पत्नी शरीरमिध्ममुरो वेदिर्लोमानि बर्हिर्वेदः शिखा हृदयं यूपः काम आज्यं मन्युः पशुस्तपोऽअग्निर्दमः शमयिता दानं दक्षिणा वाग्घोता प्राण उद्गाता चक्षुरध्वर्युर्मनो ब्रह्मा श्रोत्रमग्नीत् यावद्ध्रियते सा दीक्षा यदश्नाति तद्धविर्यत्पिबति तदस्य सोमपानं यद्रमते तदुपसदो यत्सञ्चरत्युपविशत्युत्तिष्ठते च स प्रवर्ग्यो यन्मुखं तदाहवनीयो या व्याहृतिराहुतीर्यदस्य विज्ञानं तज्जुहोति यत्सायं प्रातरत्ति तत्समिधं यत्प्रातर्मध्यन्दिनम् सायं च तानि सवनानि ये अहोरात्रे ते दर्शपूर्णमासौ येऽर्धमासाश्च मासाश्च ते चातुर्मास्यानि य ऋतवस्ते पशुबन्धा ये संवत्सराश्च परिवत्सराश्च तेऽहर्गणाः सर्ववेदसं वा एतत्सत्रं यन्मरणं तदवभृथ
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1 देखिए : गर्भोपनिषद् 1.5
2 देखिए : प्राणाग्निहोत्रोपनिषद्
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एतद्वै जरामर्यमग्निहोत्रसत्रं य एवं विद्वानुदगयने प्रमीयते देवानामेव महिमानं गत्वादित्यस्य सायुज्यं गच्च्हत्यथ यो दक्षिणे प्रमीयते पितृणामेव महिमानं गत्वा चन्द्रमसः सायुज्यं गच्च्हत्येतौ वै सूर्याचन्द्रमसोर्महिमानौ ब्राह्मणो विद्वानभिजयति तस्माद् ब्रह्मणो महिमानमित्युपनिषत् ॥ १॥ - महानारायणोपनिषत् 2.80
स्वशरीरे यज्ञं परिवर्तयामीति । चत्वारोऽग्नयस्ते किंभागधेयाः । तत्रसूर्योऽग्निर्नाम सूर्यमण्डलाकृतिः सहस्ररश्मि परिवृत एकऋषिर्भूत्वा मूर्धनि तिष्ठति । यस्मादुक्तो
दर्शनाग्निर्नाम चतुराकृतिराहवनीयो भूत्वा मुखे तिष्ठति । शारीरोग्निर्नाम जराप्रणुदा हविरवस्कन्दति । अर्धचन्द्राकृतिर्दक्षिणाग्निर्भूत्वा हृदये तिष्ठति तत्र कोष्ठाग्निरिति । कोष्ठाग्निर्नामाशितपीतलीढखादितानि सम्यग्व्यष्ट्यां श्रपयित्वा गार्हपत्यो भूत्वा नाभ्यां तिष्ठति । प्रायश्चित्तयस्त्वधस्तात्तिर्यक् तिस्रो हिमांशुप्रभाभिः प्रजननकर्मा ॥
अस्य शारीरयज्ञस्य यूपरशनाशोभितस्यात्मा यजमानः । बुद्धिः पत्नी । वेदा महर्त्विजः । अहङ्कारोऽध्वर्युः । चित्तं होता । प्राणो ब्राह्मणच्छंसी । अपानः प्रतिप्रस्थाता । व्यानः प्रस्तोता । उदान उद्गाता । समानो मैत्रवरुणः ।
शरीरं वेदिः । नासिकोत्तरवेदिः । मूर्धा द्रोणकलशः । पादो रथः । दक्षिणहस्तः स्रुवः । सव्यहस्त आज्यस्थाली । श्रोत्रे आघारौ । चक्षुषी आज्यभागौ । ग्रीवा धारापोता ।
तन्मात्राणि सदस्याः । महाभूतानि प्रयाजाः । भूतानि गुणा अनुयाजाः । जिह्वेडा । दन्तोष्ठौ सूक्तवाकः । तालुः शंयोर्वाकः । स्मृतिर्दया क्षान्तिरहिंसा पत्नीसंयाजाः ।
ओङ्कारो यूपः । आशा रशना । मनो रथः । कामः पशुः । केशा दर्भाः । बुद्धीन्द्रियाणि यज्ञपात्राणि । कर्मेन्द्रियाणि हवींषि । अहिंसा इष्टयः । त्यागो दक्षिणा । अवभृतं मरणात् । सर्वा ह्यस्मिन्देवताः शरीरेऽधिसमाहिताः । - प्राणाग्निहोत्रोपनिषत्
राष्ट्रं वै अश्वमेधः :
अब तक के विवेचन से स्पष्ट है कि वैदिक यज्ञ मूलतः आध्यात्मिक यज्ञ था जिसका केन्द्र व्यक्ति होता था। इसीलिए अश्वमेध यज्ञ की तैयारी में जो अग्निचयन नामक याग होता था, उसमें जिन पाँच अग्नियों को प्रदीप्त किया जाता था वे वस्तुतः व्यष्टिगत अन्नमय आत्मा, प्राणमय आत्मा, मनोमय आत्मा, विज्ञानमय आत्मा तथा आनन्दमय आत्मा के प्रतीक कहे जा सकते हैं । इस पञ्चविध अग्निचयन का अभिप्राय, डॉ. सुधीर कुमार गुप्त1 के शब्दों में, शरीर को सक्षम बना लेने वाला प्रजापति' होना है। वे आगे कहते हैं कि ‘प्राणों को नियन्त्रित करके साधक देव बन जाता है। मन को संयत करने से साधक, इन्द्र, अग्नि और विश्वकर्मा बनता है। ये विशिष्ट देवता हैं । मन से भी ऊपर विज्ञानमय
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1 अश्वमेध, लेखक सुधीरकुमार गुप्त, वेद-सविता वर्ष 5, अङ्क 10, मई 1985
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कोश में साधनारत चेतना ऋषिसंज्ञक हो जाती है । ऋषि द्रष्टा होता है । विज्ञानमय कोश की चेतना से वह आनन्दमय कोश में स्थित आत्मा का प्रत्यक्षीकरण करता है। यही उसका द्रष्टा रूप है । ऋषि बनने के बाद ऊर्ध्वमुखी होकर साधक आनन्दमय कोश में परमेष्ठी बनता है, वह साधना की चरम सीमा है।'
इस व्यष्टिगत साधना (अग्निचयन) के पश्चात् अश्वमेध की तैयारी में सौत्रामणी यज्ञ भी करना होता था। सौत्रामणी यज्ञ का विवरण हमें यजुर्वेद के बीसवें अध्याय में अच्छी तरह मिलता है। इस अध्याय में कुल 90 मन्त्र हैं जिनकी अत्यन्त सुन्दर तथा सुसंगत व्याख्या डॉ. अभयदेव शर्मा ने की है । उस व्याख्या के अनुसार प्राणी का ज्योतिर्मण्डल ही उसका राष्ट्र है, जिस प्रकार राजा के तेज का विस्तार राष्ट्र की सीमा निर्धारित करता है -- उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी का प्रज्ञाप्राणमय प्रभामण्डल ही उसका राष्ट्र है, जिसमें जितना विवेक और प्राणबल है उतना ही उसका राष्ट्रमण्डल होगा ।' इस राष्ट्र को 20वें अध्याय के प्रारम्भ में क्षत्र की नाभि और योनि कहा गया है । तेज क्षत्र का उद्भव है और जिस प्रकार रथ-नाभि में उसके अरे जुड़े होते हैं वैसे ही तेज में क्षत्र रूपी अर जुड़ा हुआ है। प्रश्नोपनिषद् (2-7) के अनुसार प्राण वह नाभि है जिसमें क्षेत्र आदि प्रतिष्ठित हैं। अतः प्राणमय कोश भी राष्ट्र है जो देह को क्षत् से बचाने के कारण क्षत्र1 है। यह प्राणमय कोश रूपी राष्ट्र ही वह आसन्दी है जिस पर आत्मा रूपी यजमान विराजमान होता है । आसन्दी पर यज्ञ रूपी गलीचा बिछा होता है जिसका अर्थ है ऐसे कर्म जिनसे देवों का पूजन, देवों की संगति अथवा देवों के निमित्त होने वाला त्याग किया जाता है। अपने भौतिक और आध्यात्मिक उत्थान के साधन रूप कर्म को यज्ञ कहते हैं, इसलिए यज्ञकर्म और प्राणराष्ट्र में समन्वय होना आवश्यक है। प्राणशक्ति के दुरुपयोग अथवा अनुपयोग से मनुष्य दुरितमय अथवा निकम्मा हो जाता है ।
इस प्राणराष्ट्र की रक्षा के लिए साधक को आत्मा का धृतव्रत वरुण2 होना आवश्यक है । वरुण को सत्य और अनृत का देखने3 वाला कहा गया है। दूसरे शब्दों में, वरुण विवेक का प्रतीक है और विवेकपूर्वक व्रतों को धारण करने से वह प्राणराष्ट्र का सम्राट् बनने योग्य है । इस रूप में उसे सत्यराजन्4 कह कर सम्बोधित किया गया है । आत्मरूपी वरुण सम्राट् की सामान्य रूपरेखा निम्नलिखित मन्त्रों में दी गई है--
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1 माशब्रा 14.7.14.4
2 मा. 20.2
3 सत्यानृते अवपश्यन् जनानाम् । ऋ. 7.49.3
4 मा. 20.4
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शिरो मे श्रीर्यशो मुखं त्विषिः केशाश्च श्मश्रूणि ।।
राजा मे प्राणो अमृतं, सम्राट् चक्षुर्विराट् श्रोत्रम् ।।
जिह्वा मे भद्रं वाङ महो, मनो मन्युः स्वराड्भामः । ।
मोदाः प्रमोदाः अंगुलीरंगानि मित्रं मे सहः ।।
बाहू मे बलमिन्द्रियं हस्तौ मे कर्मवीर्यम् ।
आत्मा क्षत्रमुरो मम ।।
पृष्टीर्मे राष्ट्रमुदरमंसौ ग्रीवाश्च श्रोणी ।
ऊरु अरत्नी जानुनी, विशोर्मेङ्गानि सर्वतः ।।
नाभिर्मे चित्तं विज्ञानं, पायुर्मेपचितिर्भसत् ।
आनन्दनन्दावाण्डौ मे, भगः सौभाग्यं पसः ।।
जंघाभ्यां पद्भ्यां धर्मोस्मि, विशि राजा प्रतिष्ठितः ।।
प्रतिक्षत्रे प्रति तिष्ठामि राष्ट्रे, प्रत्यश्वेषु प्रति तिष्ठामि गोषु ।
प्रत्यंगेषु प्रति तिष्ठाम्यात्मन् प्रति प्राणेषु प्रति तिष्ठामि पुष्टे, प्रति द्यावापृथिव्योः प्रति तिष्ठामि यज्ञे ।1
इन मन्त्रों में सम्राट् का जो वर्णन मिलता है उससे स्पष्ट है कि उसकी कल्पना व्यष्टिगत आत्मा पर ही अवलम्बित है । उसके मुख, केश, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, जिह्वा वाक, मन आदि अंग तथा उसके राष्ट्र, चित्त आदि का जो स्वरूप बतलाया गया है उससे आध्यात्मिक परिवेश में ही सम्पूर्ण कल्पना की गई प्रतीत होती है।
डॉ. सुधीर कुमार गुप्त के अनुसार ‘पाप से बचाव ही सौत्रामणी याग है।2 निर्धन अथवा अभावग्रस्त प्राणी पापादि से बचने में समर्थ नहीं हो पाता अतः असत् से रक्षा भी सौत्रामणी याग है। सौत्रामणी के इन दोनों लक्ष्यों से यह निष्कर्ष अनायास ही प्राप्त हो जाता है कि सौत्रामणी ‘वह है जिससे कल्याणकारी सुरक्षा प्राप्त होती है (सु+त्रै+मनी) ।' यजुर्वेद में सौत्रामणी याग के प्रकरण का आरम्भ स्वादिष्ठ मधुमत् अमृत, और अमृत तुल्य पेय पदार्थ के निर्माण से किया गया है। इस पेय पदार्थ को सुरा नाम दिया गया है। डॉ. सुधीर कुमार गुप्त ने सुरा के दो रूप बताए हैं जिनमें से पहला तो लोक में प्रसिद्ध मादक द्रव्य है जिसका प्रयोग निन्दनीय माना गया है और दूसरा स्वरूप वह है जिसमें यह मानव के लिए सुष्मिणी (बल प्रदान करने वाली और उसके बल बुद्धि आदि को बढ़ाने वाली) है । इस दूसरी सुरा को ‘अन्न और औषधियों का रस' कहा
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1 मा 20.5-10
2 अश्वमेध पृ. 347, वेद-सविता, वर्ष 5, अङ्क 10, मई 1985
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गया है। यह दूसरी सुरा ही सौत्रामणी यज्ञ में अभीष्ट है, जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट है--
ब्रह्म क्षत्रं पवते तेज इन्द्रियं, सुरया सोमः सुत आ-सुतो मदाय ।
शुक्रेण देव ! देवताः पिपृग्धि, रसेनान्नं यजमानाय धेहि ।।1
मूलतः व्यष्टिपरक राष्ट्र पर आधारित होते हुए भी, अश्वमेध अन्ततोगत्वा समाजगत राष्ट्र पर भी लागू होता था। इसकी झलक हमें यजुर्वेद के अश्वमेध प्रकरण में मिलती है, जो उस वेद के 22 से 25 अध्याय तक में पाया जाता है । 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' इस प्रसिद्ध उक्ति के आधार पर व्यष्टिगत राष्ट्र के समान ही समष्टिगत राष्ट्र की कल्पना हुई, और जब अश्वमेध को राष्ट्र माना गया है तो उसे भी पिण्डाण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों में समान रूप से कल्पित किया। समाज और राष्ट्र व्यक्तियों से बनता है। इसलिए उसमें सुविकसित, प्रतिभासम्पन्न और श्रेष्ठचरित्र व्यक्तियों की आवश्यकता सदैव रहती है। इसलिए अश्वमेध प्रकरण में जो राष्ट्रप्रार्थना रखी गई है, वह सार्वकालिक और सार्वदेशिक आवश्यकता को सूचित करती हुई एक आदर्श राष्ट्र की झलक देती है। पूरी प्रार्थना इस प्रकार है
आब्रह्मन् ! ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्यः ।
शुरइषव्योऽति व्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां, योगक्षेमो नः कल्पताम् ।
कर्मकाण्ड का अश्वमेध :
ब्राह्मण ग्रन्थों में अश्वमेध के उक्त आध्यात्मिक स्वरूप को कर्मकाण्ड में प्रस्तुत किया गया, तो उसका स्वरूप सर्वथा भ्रामक हो गया। जो आभ्यन्तर पञ्चाग्नियों का तपन नियोगसाध्य था वह कर्मकाण्ड में
पञ्चाग्नि तपन' नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकार जो सोमयाग मूलतः योग-यज्ञ था, उसका प्रयोग द्रव्य-यज्ञ में बाहरी पाँच अग्नियों में शरीर को चारों ओर जला कर तपाने के रूप में किया जाने लगा। अश्वमेध के सम्पूर्ण-यज्ञ-अनुष्ठान के मूल में वही पूर्वोक्त आध्यात्मिक यज्ञ है। इस बात को समझने के लिए, यहाँ संक्षेप में उसका विवरण दिया जा रहा है ।
अश्वमेध सोमयाग
जिसका अधिकारी अभिषिक्त सार्वभौम राजा ही होता है, यज्ञ का
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1 मा. 19.5
2 वही 22
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प्रारम्भ फाल्गुन शुक्ला अष्टमी व नवमी को किया जाता है । प्रथम दिन ब्राह्मणों के वरण के पश्चात् ब्रह्मौदन पाक बनाते हैं, इस पाक को जिन चार महा ऋत्विजों को खिलाया जाता है, प्रत्येक को 1400 गायों को देने का विधान है। इसके पश्चात् यजमान राजा की चार पत्नियाँ राजा के सामने आती हैं। पहली महिषी कहलाती है, जिसकी दासी राजकुमारियाँ होती हैं। दूसरों को परिणीता वल्लभा कहते हैं, जिसकी दासी क्षत्रिय जाति की होती हैं। तीसरी का नाम अवल्लभा होता है, जिसकी दासी ग्रामनेता की पुत्रियाँ होती हैं, चौथी परिणीता दूतपुत्री होती है, जिसकी दासियाँ क्षत्र-पुत्री कही गई हैं। इन राजपत्नियों के आने पर अग्निहोत्र होता है । और रात में राजा राजवल्लभा, दूसरी पत्नी की दोनों जंघाओं के बीच शिर डाल कर ब्रह्मचर्य पूर्वक सोता है। शेष पत्नियाँ अगल-बगल में सोती हैं। दूसरे दिन प्रातः काल अग्निहोत्र करके पूर्णाहुति दी जाती है, जिसके पश्चात् पथिकृत इष्टि अष्टाकपाल पुरोडाश द्वारा करते हैं । तब राजा उसकी बनी अश्वबन्धन रस्सी को घी से सिक्त कर अश्वबन्धन के लिए ब्राह्मण की आज्ञा लेकर अश्व को बांधता है ।
अश्वमेधयज्ञ के लिए जिस अश्व को चुना जाता है उसे पूर्व में काला, पश्चिम में श्वेत तथा ललाट में शकटाकार पुण्ड्र धारण करने वाला होना चाहिए। उसका मूल्य 1000 गायों का होना चाहिए। इस अश्व को स्थिर जल के तालाब में ले जाकर नहलाते हैं। उसके पैर तले चतुरक्ष शबल कुत्ते को शूद्र से मरवाते हैं। वहाँ से लौट कर होम करते हैं । तत्पश्चात् द्वादशकपाल वाली सावित्र्य इष्टियाँ होती हैं जिनको करने के समय राजा की दान आदि की प्रशंसा होती है । वीणावादन भी चलता रहता है।
अध्वर्यु और यजमान दोनों तब 100 अन्य अश्वों सहित उस यज्ञीय अश्व को ईशान दिशा में ले जाकर छोड़ते हैं । भ्रमण के लिए छोड़े हुए इस अश्व के साथ 400 योद्धाओं को भेजते हैं। अश्व के लिए भी ब्रह्मचर्य पालन करना अनिवार्य है। वह न तो स्नान करेगा, न ही किसी बडवा से सम्पर्क करेगा । वह अश्व एक वर्ष तक भ्रमण करता है । उसके बाद लौट कर आता है। तदनन्तर निम्नलिखित कर्म होते हैं
1 परिप्लवशंसन 2 अश्वप्रक्रम 3 प्रक्रम होम 4 धृतिहोम
इस अवसर पर राजा के विजयपराक्रम पर तीन गाथाएँ वीणावादन के साथ सुनाई जानी चाहिए। इस प्रकार के क्रियाकलाप पूरे वर्ष होते रहते हैं। चैत्र मास की पूर्णिमा को उखासम्भरण इष्टका पशु का अनुष्ठान होता है। उसी दिन से प्रारम्भ करके छह दिनों तक दक्षणेष्टि
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चलती है। सप्तमी को उस दक्षिणेष्टि की समाप्ति होती है। इसके पश्चात् वैशाख तृतीया तक 12 सुत्या, तृतीया के दिन सोमक्रयण, चतुर्थी के दिन 12 उपसदों का अनुष्ठान, 21 अग्नीषोमीय पशुओं के यूपों की प्रतिष्ठा की जाती है। पशुओं को दक्षिण से उत्तर की ओर बाँधते हैं। इस रात को घी, सत्तू, खीलों में से एक-एक को प्रतिप्रहर ‘प्राणाय स्वाहा आदि मन्त्रों के 12 अनुवाकों द्वारा रात भर हवन किया जाता है ।
दूसरे दिन सर्वप्रथम एकादशिनी पशुओं को ग्रहण करते हैं। उसके पश्चात् अश्व को ग्रहण करते हैं । यूपों में दो एकादशिनी पशुओं को बाँधने के पश्चात् राज्जुदाल में अश्व, शृङ्गहीन छाग बाँधते हैं । तब अश्व के विभिन्न अंगों में 12 अन्य पशु बाँधते हैं । ललाट में कृष्णग्रीव आग्नेय, गले में सारस्वती मेषी, बाहु में आश्विन, नाभि में पौष्ण सोमा पार्श्वों में सौर्य यम देवत्य, पीछे के भागों में त्वष्ट्र दैवत्य दो लोमश अज, पूँछ में वायव्य ऐन्द्रवैष्णव, उक्त दो तूपरादिकों सहित दो आग्नेय सहित कुल 15 पशु होते हैं। जिनको पर्यङ्या कहा जाता है। शेष 20 यूपों में 15-15 बाँधे जाते हैं जिनमें से एक-एक एकादशिनी पशु पहले से ही बँधा होता है। कुल मिलाकर 337 पशु होते हैं जिनको ‘ग्राम्याः पशवः' कहा जाता है। उनके अतिरिक्त आरण्य पशु भी होते हैं जिनको बाँधा नहीं जाता अपितु यूपों में कुछ बचे हुए स्थानों में रखा जाता है । तृतीय दिन अतिरात्र संस्था का दिन होता है । इसमें सभी षोडाशिग्रहों का कार्य किया जाता है । इसके पश्चात् अवभृथ होता है एवं 21 अनुबन्ध्या पशुओं का अनुष्ठान किया जाता है, 7 वरुण के, 7 विश्वेदेवों के, 7 बृहस्पति के होते हैं। प्रत्येक को एक-एक यूप में बाँधते हैं। इसके पश्चात् 12 दिन तक प्रतिदिन आग्नेय, पुराडोश अथवा ब्रह्मोदन किया जाता है। पूरे वर्ष भर प्रत्येक ऋतु में 6-6 पशुओं की बलि दी जाती है।
अश्वमेध का रहस्य :
अश्वमेध के कर्मकाण्ड का उपयुक्त संक्षिप्त विवरण किया गया है, उसके स्थूल प्रत्यक्ष रूप को देखने से यह नहीं प्रतीत होता कि यह सब अभिनय किस लिए किया जा रहा है; परन्तु पूरे यज्ञ में प्रयुक्त वेदमन्त्रों या उससे सम्बन्धित ब्राह्मणग्रन्थों में प्राप्त होने वाली सांकेतिक व्याख्याओं से यह बात भलीभाँति सिद्ध होती है। इस यज्ञ के सभी कार्यकलाप किसी अप्रत्यक्ष रहस्य की ओर इङ्गित कर रहे हैं। इसी की ओर संकेत करते हुए ऋग्वेद 5.27.4 का ऋषि कहता है कि जो मुझसे अश्वमेध के बारे में पूछता है उससे यही निवेदन है कि अश्वमेध पहले मेधा होता
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है और मेधा देते हुए वह ऋतस्वरूप हो जाता है जिससे इन्द्राग्नी इस अश्वमेध के द्वारा शतदानी हो जाते हैं क्योंकि ऐसे अश्वमेध से इन्द्राग्नी रूप आत्मा भीतर ही भीतर ज्योतिर्मय सूर्य की तरह (ऋ. 5.27.6) चमकने लगता है। इसलिए अश्व के तीन बन्धन बतलाए गए हैं और इन्हीं तीन बन्धनों को तीन नाभियाँ भी कहा गया है। ऋग्वेद 1.164.2 में इसी अश्व का उल्लेख इस प्रकार किया गया है--
सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा ।
त्रिनाभि चक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः ।।
ऋग्वेद 162; 163 में अश्वमेधीय अश्व का जो वर्णन मिलता है, उससे स्पष्ट है कि वह कोई साधारण घोड़ा नहीं है। उसके श्येन के समान पंख हैं और हरिण के समान बाहू हैं, उसके सींग सोने के और पैर लोहे के हैं; परन्तु वह मनोवेग के समान चलने में तेज है जिस पर प्रथमो मनस्वान् इन्द्र सवारी करता है। यह अश्व अखिल भुवन में व्याप्त है, अन्तिम सीमा तक व्याप्त है। इसका मध्यम अंग आदित्य है जिसे उसका दूसरा शिर कहा गया है। उसे हंस रूप ब्रह्म के समान एक-एक तत्त्व के रूप में विकसित होता हुआ बताया गया है। इसलिए श्री हरिशंकर जोशी ने अश्वमेध का जो निम्नलिखित आध्यात्मिक स्वरूप बतलाया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है--
‘अश्वमेध प्राण-मेध प्राण-शुद्धि या प्राणों का योग है। यह मुख्य प्राण है। यजमान आत्मा है उसकी पत्नियाँ वाक आदि प्राण हैं। अनुचरियाँ अन्य प्राण । राजा का वल्लभा की टाँगों में सोना एवं अन्य पत्नियों के आस-पास सोना, इस शरीर में प्राणों की स्थितियाँ बतलाता है । अश्व का बाँधना प्राण का योग करने का सङ्कल्प है। अश्व-लक्षण मुख्य प्राण के लक्षण हैं। अश्व को विजयार्थ छोड़ना योग से सर्वत्र सर्वांग विजय करना है। वावाता के साथ शयन, प्राण वायुओं के साथ रमण हैं । 21 यूप 21 पशु योग की 24 (21) सीढ़ियाँ हैं, जिनको एक-एक कर पार किया या मारा जाता है । अश्व पर बँधे पशु शेष प्राण रूप पशु हैं, अश्व बन्ध यजमान वध है इसीलिए महिषी मृताश्व के साथ सोती है । वह सती होती है, इसीलिए उसकी अनुचरियों को दान में देते हैं अर्थात् अश्वमेध प्राणमेध है। योगी यजमान इस आभ्यन्तर अश्वमेध को करके शरीर रूप अश्व का वध करता है। महिषी अग्नि महिष की दीप्ति है, योगी यजमान राजा अग्नि रूप आग्नेय पशु रूप है, महिषी उसकी दीप्ति रूप शरीर दोनों का निर्वाण बुझना इस अश्वमेधीय सोमयाग सोमयोग या
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गोलोक विष्णुलोक प्राप्ति के लिए होता है जिसका अभिनय द्रव्ययज्ञ में उक्त प्रकार से करते हैं।
अश्वमेध में अश्लीलता की कल्पना :
उक्त रहस्य को न जानने के कारण कुछ भाष्यकारों ने यजुर्वेद के 23वें अध्याय में आए हुए ‘गणानां त्वा गणपतिं हवामहे से लेकर ‘दधिक्राव्णो अकारिषम' तक मन्त्रों का अत्यन्त अश्लील अर्थ किया है। पं. हरिशंकर जोशी ने अपने वैदिक विश्वदर्शन' ग्रन्थ के 16 अध्याय में इस पर बहुत खेद प्रकट किया हैं। उनकी मान्यता है कि उक्त मन्त्रों का वास्तविक अर्थ हमें ऐतरेय ब्राह्मण में प्राप्त होता है, जिसका एक अंश इस प्रकार है
‘पुनर्वा एतमृत्विजो गर्भं कुर्वन्ति यं दीक्षयन्त्यद्भिरभिषिञ्चन्ति, रेतो व आपः सरेतसमेवैनं तत् कृत्वा दीक्षयन्ति नवनीतेनाभ्यञ्जन्त्याज्यं वै देवानां सुरभिः, घृतं मनुष्याणामायुतं पितॄणां नवनीतं गर्भाणां तद्यन्नवनीतेनाभ्यञ्जन्ति, स्वेनैवैनं तदभागधेयेन समर्द्धयन्त्याञ्जन्त्येनं तेजो वा एतदक्ष्योर्यदाञ्जनं सतेजसमेवैनं तत्कृत्वा दीक्षयन्त्येकविंशत्यादर्भपिञ्जूलैः पावयन्ति शुद्धमेवैनं तत्पूतं दीक्षयन्ति दीक्षितविमितं प्रपादयन्ति योनिर्वा एषा दीक्षितस्य, यद्दीक्षितविमितं योनिमेवैनं तत्स्वां प्रपादयन्ति, तस्माद् । ध्रुवाद्योनेरास्ते च चरति च। तस्माद् ध्रुवाद्योनेर्गर्भा धीयन्ते च प्र च जायन्ते, तस्माद्दीक्षितं नान्यत्र दीक्षितविमितादादित्योऽभ्युदियाद्वाभ्यस्तमियाद्वापि वाभ्याश्रावयेयुर्वाससा प्रोर्णुवन्त्युल्बं वा एतद्दीक्षितस्य यद्वास उल्बेनेवैनं तत्प्रोणुवन्ति, कृष्णाजिनमुत्तरं भवत्युत्तरं वा उल्बाज्जरायु जरायुणैवैनं तत्प्रोर्णुवन्ति । मुष्टी कुरुते, मुष्टी वै कृत्वा गर्भोऽन्तः शेते, मुष्टी कृत्वा कुमारो जायते, तद्यन्मुष्टी कुरुते यज्ञं चैव तत्सर्वाश्च देवता मुष्ट्योः कुरुते, तदाहुर्न पूर्वदीक्षिणः संसवोऽस्ति परिगृहीतो वा एतस्य यज्ञः परिगृहीता देवता नैतस्यार्तिरस्त्यपरदीक्षिण एव यथा तथेत्युन्मुच्य कृष्णाजिनमवभृथमभ्यवैति, तस्मान्मुक्ता गर्भा जरायोर्जायन्ते। सहैव वाससाभ्यवैति, तस्मात् सहैवोल्बेन कुमारो जायते ।
ऐतरेय ब्राह्मण के इस अवतरण में यजुर्वेद के 23वें अध्याय के 18 से 34 तक के मन्त्रों का भाष्य-सा किया गया प्रतीत होता है। इससे स्पष्ट होता है कि कात्यायन, महीधर, उवट आदि ने उक्त मन्त्रों का जो अर्थ किया वह ब्राह्मणग्रन्थ के सर्वथा विपरीत है। उदाहरण के लिए यहाँ दो शब्दों का अर्थ भेद दिया जा रहा है--
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1 ऐब्रा 1.3
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मन्त्र में प्रयुक्त शब्द ऐतरेय ब्राह्मण भाष्यकार
1 रेतस् आपः वीर्य
2 योनि ध्रुवा ऋक् रानी या राजकुमारी का अंग
इन दोनों शब्दों के जो अर्थ शतपथब्राह्मण ने किए हैं, उनको केन्द्र मान कर यदि उक्त वेदमन्त्रों का अर्थ किया जाता है तो भाष्यकारों द्वारा किया गया अश्लीलतापरक अर्थ सर्वथा समाप्त हो जाता है। उक्त 13 मन्त्रों का अर्थ ऐतरेयब्राह्मण और शतपथब्राह्मण ने स्पष्ट शब्दों में कर दिया है । इसके अनुसार गणानां त्वा' इत्यादि मन्त्र तो ब्रह्मणस्पति या बृहस्पति के विषय में है और स्वस्तिवाचन का ‘बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये मन्त्र इसकी पुष्टि करता है । शतपथब्राह्मण ब्रह्मरूपी बृहस्पति की व्याख्या अश्वमेधीय अश्वरूप में करते हुए इन ‘गणानां त्वां' इत्यादि मन्त्रों का प्रयोग करता है । अश्वरूप गणपति या ब्रह्मणस्पति की परिक्रमा तीन पत्नियाँ करती हैं। उनके नाम अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका हैं जो वस्तुतः वाग्रूपिणी हैं। वस्तुतः यहाँ अश्वमेध के अवसर पर चतुष्पाद ब्रह्म की व्याख्या अश्व रूप में की गई है । ब्रह्म ही अश्वपति है, जिसकी चार पत्नियाँ हैं जिनमें से उक्त तीन पत्नियाँ वाक के तीन सूक्ष्म रूप क्रमशः परा, पश्यन्ती तथा मध्यमा हैं। चतुर्थपत्नी सुभद्रिका काम्पीलवासिनी भौतिक शरीर की वैखरी वाक् है । इस सम्बन्ध में यजुर्वेद का यह मन्त्र पढ़ा जाता है--
अम्बे अम्बिके अम्बालिके न मा नयति कञ्चन ।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम् ।। यजुर्वेद 23.18
यह अश्वक नामक अग्नि से उत्पन्न ब्रह्म अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका वाक् में रत न होकर भौतिक सुभद्रिका के साथ सोता है, अर्थात् वह आध्यात्मिकता से विरक्त है । जो योगी है वह इन आध्यात्मिक वाग् रूपी पत्नियों को उस अश्वक नामक ब्रह्म से मिला सकता है। अतः उनका उपालम्भ है कि हमें कोई उनके पास नहीं ले जाता । सब भौतिक वाग्रूपी स्त्री के वशीभूत हो गए हैं। उसके पास पहुंचने में भौतिकता की दीवार खडी है । शतपथब्राह्मण (13.2.8) में उक्त मन्त्रों की व्याख्या में इसी अभिप्राय को विस्तार से व्यक्त किया गया है। वहाँ तीन लोक, 6 ऋतु, 9 प्राण, प्रजा, पशु, गर्भ इत्यादि का व्याख्यान इसी दृष्टि से दिया गया है। अश्व के चतुरः पादाः सम्प्रसारयाव' में चतुष्पाद ब्रह्म की योजना बनाई गई है । अन्त में यजुर्वेदीय 23वें अध्याय का 20वें मन्त्र का उल्लेख भी किसी अश्लील भावना से युक्त नहीं बताया गया। वहाँ इस
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मन्त्र में जिस वृषा वाजी का उल्लेख है वह वही चत्वारि शृङ्गा' वाला वृषभ है जिसका उल्लेख ऋग्वेद 4.58.1 में हुआ है ।
उपर्युक्त जिस आध्यात्मिक व्याख्या की ओर संकेत किया गया है, उसके विपरीत शतपथब्राह्मण (13.5.2) में कुछ अंश अवश्य मिलता है। जिसे प. हरिशंकर जोशी1 ने प्रक्षिप्त माना है । उसको प्रक्षिप्त मानने में उन्होंने कई कारण दिए हैं। उनमें से सबसे बड़ी बात यह है कि अश्वमेध यज्ञ की महिमा का जिस प्रकार वर्णन किया जाता है उसे देखते हुए इस यज्ञ के साथ किसी अश्लीलता का योग सर्वथा अवांछनीय है। उदाहरण के लिए, इस यज्ञ को व्यष्टि और व्यावृत्ति नाम (शब्रा 13.3.7.3-5) से द्विविध लक्ष्य वाला बताया गया है। इसका तात्पर्य है कि यह यज्ञ जहाँ एक ओर व्यष्टिगत सृष्टि की ओर संकेत करता है वहीं दूसरी ओर वह व्यावृत्तिमूलक नानारूपात्मक बाह्य सृष्टि का भी प्रतीक है ।
सारांश :
अब तक अश्व एवं अश्वमेध के विषय में जो कुछ कहा गया है उस सबका सिंहावलोकन करना यहाँ समीचीन होगा। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि अश्व मूलतः परब्रह्म है । पिण्डाण्ड में उसका प्रतिनिधि आत्मा है। पिण्डाण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों में यह अश्व एक से बहु होकर अमेध्य हो जाता है--‘बहु वा अश्वोऽमेध्यमुपगच्छति ।2 उदाहरण के लिए पिण्डाण्ड में आत्मा ही अपनी शक्ति के द्वारा विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों की अनेकता और विविधता में अभिव्यक्त होता है । अमेध्य से मेध्य बनाने के लिए उसे अपनी इस अनेकता को समेट कर एकत्व ग्रहण करना पड़ता है। ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः उसी समाहार अथवा संकोचन का दूसरा नाम है । प्रत्याहार, धारणा, ध्यान द्वारा अपनी फैली हुई विविधता और अनेकता को समेटकर आत्मा अपने उस शुद्धबुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार करता है जो परमात्मा से सदा3 अभिन्न है । इस प्रकार के निरन्तर अभ्यास से प्राण अपनी सम्पूर्ण विविधता से मध्य होता हुआ सारी विविधता को अश्वमेध बना देता है। दूसरे शब्दों में, जिस अनेकतामयी अभिव्यक्ति को मनोमय, प्राणमय एवं अन्नमय कोशों में सृष्टि-यज्ञ कहा जाता है, उसके परिणामस्वरूप हमारी इच्छाएँ, भावनाएँ, क्रियाएँ आदि सभी ‘जा:' से 'प्र-जाः' हो जाती हैं और आत्मा
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1 वैदिक विश्वदर्शन : पृ. 199
2 तैब्रा 1.3.5.3
3 तस्मिन् यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः । शौ 10.2.32
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प्रजापति बन जाता है। इस प्रकार आत्मा रूपी यजमान मानो स्वयं अश्वमेध1 हो जाता है। आत्मा के द्वारा जब इच्छा, विचारादि प्रजाओं का सर्जन होता है तो जहाँ प्रजापति प्रजा रूप धारण करता है वहीं उस यज्ञ द्वारा प्राण समृद्धि तथा अश्वमेध का भी सम्पादन हो जाता है--'प्राणश्च मे2 अश्वमेधश्च मे यज्ञेन कल्पताम् ।'
अश्वमेध सम्पादन करके आत्मा रूपी यजमान स्वयं मेधपति3 हो जाता है । अहङ्कार रूपी वृत्र के प्रभाव में आत्मा रूपी अश्व का जो अमेध्य रूप होता है उसको मेध्य करने के लिए मेधा से निरन्तर सम्पर्क आवश्यक है। महाभारत4 में महापुरुषों में अहङ्कार को अश्व रूप में स्थित बताया तो उक्त अहङ्कारयुक्त देहात्मा ही अभिप्रेत है। इस मेधा के सम्पर्क से इसमें मेध नामक मेधा तत्त्व आ जाता है जिससे वह मेध्य बनता है । इसी निमित्त मन और मेधारूपा अग्नि5 के प्रकृष्टयोग पर बल दिया गया है। यह मेधा मूलतः हिरण्ययकोश की वही हिरण्यवर्णा सुरभि है जिसको तैत्तिरीय आरण्यक6 में ‘विश्वरूपा' कहकर एक से अनेक रूप धारण करने वाली कल्पित किया गया है। इसी मेधा तत्त्व को अश्वमेध का मेध नामक आज्यं कहा गया है। पिण्डाण्डीय चेतना के जिन विभिन्न स्तरों को पुरुष, अश्व, गो आदि रूप में कल्पित किया गया है उनको अमेध्य से मेध्य बनाने के लिए एक-एक करके बलि देनी पड़ती है अर्थात् एक-एक को एक-एक की उत्तरोत्तर अमेध्यता को दूर करके मेध्यता लानी पड़ती है। इसका एक विस्तृत वर्णन ऐतरेय ब्राह्मण (2.8) में इस प्रकार से किया गया है-- पुरुषं वै देवाः पशुमालभन्त तस्मादालब्धान्मेध उदक्रामत्सोऽश्वं प्राविशत्तस्मादश्वो मेध्योऽभवदथैनमुत्क्रान्तमेधमत्यार्जन्त स किंपुरुषोऽभवत् इति । ते अश्वमालभन्त सोऽश्वादालब्धादुदक्रामत्स गां प्राविशत्तस्माद्गौर्मेध्योऽभवदथैनमुत्क्रान्तमेधमत्यार्जन्त स गौरमृगोऽभवत् इति । ते गामालभन्त स गोरालब्धादुदक्रामत्सोऽविं प्राविशत्तस्मादविर्मेध्योऽभवदथैनमुत्क्रान्तमेधत्यार्जन्त स गवयोऽभवत्तेऽविमालभन्त सोऽवे
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1 माशब्रा 13.2.2.13; 4.1.15
2 तैसं 4.7.9.1
3 यजमानो मेधपति: । ऐब्रा 2.6; कौब्रा 10.4
4 अहंकारो महाभूतेष्वश्वरूपेण तिष्ठति । 10.327, 320 अध्याय (?)
5 मनो मेधाम् अग्निं प्रयुजं स्वाहा । तैसं 4.1.9.1; मैसं 2.7.7
6 आ मां मेधा सुरभिर्विश्वरूपा हिरण्यवर्णा जगती जगम्या । ऊर्जस्वती पयसा
पिन्वमाना सा मां मेधा सुप्रतीका जुषताम् ।। तैब्रा 10.42.1
7 मेधो वा आज्यम् । तै ब्रा 3.9.12.1
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रालब्धादुदक्रामत्सोऽजं प्राविशत्तस्मादजो मेध्योऽभवदथैनमुत्क्रान्तमेधमत्यार्जन्त स उष्ट्रोऽभवत् इति ।
इस प्रकार आत्मा रूपी अश्व को सर्वांग मेध्य करने के लिए उसके अङ्गभूत अनेक प्राणों आदि को भी पशु रूप में कल्पित किया गया है। इसीलिए अश्व के साथ अन्य अनेक पशुओं को बलि देने की प्रथा चल पड़ी। बलि देने के लिए आलभन शब्द का प्रयोग होता है जिसका धात्वर्थ सम्यक् रूप से ग्रहण या प्राप्त करना है। अतः आध्यात्मिक दृष्टि से जहाँ इस आलभन का अर्थ किसी अंगविशेष को नियंत्रित करके उसको मेध्य बनाना था एवं वहाँ उसे द्रव्य-यज्ञ में अश्व के साथ अनेक अश्वों को बाँधने के रूप में दिखाया जाता था। सम्भवतः प्रारम्भ में इनकी बलि नहीं होती थी, केवल इनको बाँधकर यह संकेत दिया जाता था कि इसी प्रकार आन्तरिक शक्तियों को भी बन्धन या नियंत्रण में रखकर ही उनमें मेध्यता लाई जा सकती है। कभी-कभी आलभन के साथ सं-ज्ञपन शब्द का भी प्रयोग होता है। संज्ञपन शब्द सम् पूर्वक ज्ञा धातु से निष्पन्न है । अतः इसका अर्थ होगा--सम्यक् प्रकार से जान लेना । इसका अभिप्राय यह है कि विभिन्न अंगों की मेध्यता और अमेध्यता का ज्ञान ही संज्ञपन था क्योकि अश्वमेध वस्तुतः ज्ञानयज्ञ है जिसमें पूर्वोक्त मेधा तत्त्व की सहायता से ज्ञान द्वारा ही मेध्यता लाई जाती है और इस प्रकार इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति के समवेत व्यापार या कर्म को अश्वमेध-यज्ञ के रूप में परिणत कर दिया जाता है ।
इसमें यह सन्देश नहीं कि जो अश्वमेध1 व्यष्टिगत आध्यात्मिक राष्ट्र का प्रतीक था वही कालान्तर में सामाजिक अथवा राजनीतिक राष्ट्र का प्रतीक बन गया एवं राज्य की श्री अथवा वैभव2 को ही अश्वमेध रूपी राष्ट्र माना जाने लगा। इसीलिए अश्वमेध के कर्मकाण्ड में राजकीय बल, वैभव तथा आडम्बरपूर्ण कार्यकलाप का समावेश हो गया; परन्तु फिर भी उस समस्त विविधतापूर्ण अनुष्ठान में मूलभूत तत्व आध्यात्मिक अश्वमेध के ही खोजे जा सकते हैं। जब अश्व को विभिन्न दिशाओं में घुमाते हुए उसे दिग्विजय का प्रतीक बनाया जाता है, तो वस्तुतः वह उस आत्मा का प्रतीक होता है जो अपने सभी अंग-प्रत्यंगों, इन्द्रियों, प्राणों आदि पर नियंत्रण करके उन्हें मेधा तत्त्व से युक्त करता है और इस प्रकार आध्यात्मिक अश्वमेध का उन्हें अंग बना लेता है। अनेक पशुओं के साथ
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1 राष्ट्रं वा अश्वमेधः । माशब्रा 13.2.2.16; तै ब्रा 3.8.9.4
2 श्रीर्वै राष्ट्रं अश्वमेधः । तैब्रा 3.9.7.1; माशब्रा 13.2.9.2
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में अश्व का बलिदान एक दूसरे प्रकार की क्रिया है जिसमें जीवात्मा के अहङ्काररूपी अश्व को उसके काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, घृणादि के साथ बलि देने का अभिनय अभिप्रेत हो सकता है ।
इस प्रकार इस बाह्य अश्वमेध के मूल में आध्यात्मिक आधार को स्वीकार करते हुए भी, यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारतवर्ष में उस अश्वमेध यज्ञ को राजनीतिक संगठन तथा राष्ट्रीय केन्द्रीकरण की एक महती प्रक्रिया के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है। स्वयं ब्राह्मणग्रन्थों ने अनेक ऐसे राजाओं के नाम गिनाए हैं जिन्होंने दिग्विजय की दृष्टि से अश्वमेधयज्ञ रचाए । उदाहरणार्थ --
1 एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण च्यवनो भार्गवः शार्यातं मानवमभिषिषेच तस्मादु शार्यातो मानवः समन्तं सर्वतः पृथिवीं जयन् परीयायाश्वेन च मेध्येनेजे देवानां हापि सत्रे गृहपतिरास, इति । ऐब्रा 5.21
2 एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण सोमशुष्मा वाजरत्नायनः शतानीकं
सत्राजितमभिषिषेच तस्मादु शतानीकः सात्राजितः समन्तं सर्वतः
पृथिवीं जयन् परीयायाश्वेन च मेध्येनेजे, इति । ऐब्रा 5.21
3 एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण पर्वतनारदावाम्बाष्ठ्यमभिषिषि
चतुस्तस्माद्वाम्बाष्ठ्यः समन्तं सर्वतः पृथिवीं जयन्परीयायाश्वेन च मेध्येनेजे, इति । ऐब्रा 5.21
4 एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण पर्वतनारदौ युधांश्रौष्टिभौग्रसैन्यमभिषिषिचतुस्तस्मादु युधांश्रौष्टिरौग्रसैन्यः समन्तं सर्वतः पृथिवीं
जयन परीयायाश्वेन च मेध्येनेजे, इति । ऐब्रा 5.21
5 एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण कश्यपो विश्वकर्माणं भौवनमभिषिषेच तस्मादु विश्वकर्मा भौवनः समन्तं सर्वतः पृथिवीं जयन् परीयायाश्वेन च मेध्येनेजे, इति । ऐब्रा 5.21
6 एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण वसिष्ठः सुदासं पैजवनमभिषिषेच तस्मादु सुदाः पैजवनः समन्तं सर्वतः पृथिवीं जयन्परीयायाश्वेन च
मेध्येनेजे, इति । ऐब्रा 5.21
7 एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण संवर्त आंगिरसो मरुत्तमाविक्षितम
भिषिषेच तस्मादु मरुत्त आविक्षितः समन्तं सर्वतः पृथिवीं जयन्
परियायाश्वेन च मेध्येनेजे, इति । ऐब्रा 5.21
8 एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण तुरः कावषेयो जनमेजयं पारिक्षितमभिषिषेच तस्मादु जनमेजयः पारिक्षितः समन्तं सर्वतः पृथिवीं जयन् परीयायाश्वेन च मेध्येनेजे, इति । ऐब्रा 8.21
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9 एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेणोदमय आत्रेयोअंगमभिषिषेच तस्मादंगः समन्तं सर्वतः पृथिवीं जयन्परीयायाश्वेन च मेध्येनेजे । ऐब्रा 8.22
10 भरतो दौष्यन्तिः समन्तं सर्वतः पृथिवीं ।
जयन्परीयायाश्वैरु च मेध्यैरीजे, इति ।। ऐब्रा 8.23
11 अथ द्वितीया श्वेतं समन्तासु वशञ्जरन्तं शतानीको धृतराष्ट्रस्य मेध्यम् । आदाय सह्वा दशमास्यमश्वं शतानीको गोविनतेन हेज इति ।। माशब्रा 13.5.4.22
इन उद्धरणों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि इस यज्ञ को सम्पूर्ण पृथिवी को जीतने का साधन माना जाता था । यद्यपि इन उद्धरणों में इस पृथिवी की कोई सीमा नहीं दी गई है और न उसके अन्तर्गत आने वाले देशों का ही वर्णन है; परन्तु रामायण, महाभारत और पुराणों में अश्वमेध यज्ञ के अश्व का जो भ्रमण-क्षेत्र वर्णित मिलता है उससे स्पष्ट है कि यह क्षेत्र उस भारतवर्ष के भीतर ही था जो हिन्दमहासागर और हिमालय के बीच स्थित है। कौटल्य के अर्थशास्त्र1 तथा राजशेखर की काव्यमीमांसा2 में पृथिवी शब्द को एक ऐसे पारिभाषिक अर्थ में दिया गया है जिसकी सीमा उत्तर में बिन्दुसरोवर, दक्षिण में कन्याकुमारी, पूर्व में लोहित अर्थात् ब्रह्मपुत्र और पश्चिम में गान्धार और बाह्लीक देश आते हैं। इसी सीमा के भीतर समुद्रगुप्त ने भी ऐतिहासिक काल में अपनी दिग्विजय की और कालिदास ने रघु-दिग्विजय को भी इसी सीमा के भीतर रखा है। बौद्धों के दीर्घनिकाय सुत्त में भी सार्वभौम राजा के क्षेत्र का वर्णन करते हुए इसी सीमा का उल्लेख किया गया है। अतः व्यावहारिक दृष्टि से अश्वमेध के अश्व को इसी क्षेत्र में घुमाया जाता होगा ।
फिर भी अश्वमेध के साथ जिस पृथिवी की विजय का सम्बन्ध चला आ रहा है, वह वस्तुतः आध्यात्मिक अध्वर की वह पृथिवी3 है जिसका अमृत हृदय सत्य से आवृत है और परम व्योम में स्थित बताया गया है। यही पृथिवी उत्तमम् राष्ट्र में तेज और बल को स्थापित करने वाली कही गई है अतएव राष्ट्रं वा अश्वमेधः4 की उक्ति मूलतः पृथिवी की इसी कल्पना पर आधारित प्रतीत होती है । इस निष्कर्ष की पुष्टि
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॥ देशः पृथिवी । 17। तस्यां हिमवत्समुद्रान्तरमुदीचीनंजनसहस्रपरिमाणं तिर्यक्चक्रवर्तिक्षेत्रम् । 18...." कौ. अर्थ 9.1.17; 18
2 देखिए-काव्यमीमांसा, प्रथम अधिकरण कवि-रहस्य में देश विभाग' नामक सप्तदश अध्याय ।
3 शौ. 12.1.8
4 माश 13.1.6.3; 2.2.16
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इस बात से भी होती है कि उपर्युक्त उद्धरणों में वर्णित यज्ञ के करने वाले वे राजा हैं जो इन्द्र महाभिषेक द्वारा अभिषिक्त हुए हैं । हम जानते हैं कि इन्द्रमहाभिषेक एक दिव्य संस्था है जिसके अनुसार वसुओं, रुद्रों, आदित्यों, विश्वदेवों और मरुतों आदि के गण इन्द्र का अभिषेक विभिन्न दिशाओं में विभिन्न प्रकार के राज्य, स्वराज्य, साम्राज्य, भौज्य आदि के लिए करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि आध्यात्मिक इन्द्राभिषेक और इन्द्र-राज्य के अनुकरण पर भौतिक सम्राट् तथा उसके द्वारा होने वाले अश्वमेध की कल्पना की गई थी। इसी प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि ब्राह्मणग्रन्थों में अश्वमेध यज्ञ के द्वारा ब्रह्महत्या1 के पाप से मुक्ति की कल्पना भी मिलती है और साथ ही ब्रह्महत्या का अपराधी वेद के वृत्रघ्न इन्द्र को माना जाता है। यह बात यद्यपि वैदिक संहिताओं में उपलब्ध नहीं होती; परन्तु पुराणों में इसका विशेष विस्तार मिलता है। उदाहरण के लिए, एक कथा के अनुसार वृत्रवध करने के पश्चात् इन्द्र को वृत्रहत्या के भय से कहीं अज्ञातवास करना पड़ा तो उसके सारे राज्य में त्राहि-त्राहि मच गई। तो देवताओं और ऋषियों ने मिल कर नहुष को गद्दी पर बैठाने का प्रस्ताव किया । जब नहुष ने अपनी असमर्थता प्रकट की तब देवताओं ने उसे यह वरदान दिया कि जो भी तुम्हारे सामने आएगा उसका बल और तेज तुम्हारे में आ जाएगा जिससे तुम्हें इन्द्र बनने में कोई कठिनाई नहीं होगी। अंत में जब इन्द्र अपनी ब्रह्महत्या को विभिन्न प्रकार के पशुओं में वितरण करके उससे मुक्त हो जाता है तभी नहुष के पदच्युत होने पर उसे पुनः इन्द्र पद प्राप्त होता है।
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